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सैकड़ों बार दोहराई कहानी को इरफ़ान भी नहीं बचा पाते :फिल्म रिव्यू 'मदारी'

सिर्फ़ इरफ़ान के चारों अोर घूमती इस इमोशनल थ्रिलर में धुआं तो बहुत है, लेकिन आग कहीं नहीं.

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मियां मिहिर
22 जुलाई 2016 (Updated: 23 जुलाई 2016, 07:13 AM IST) कॉमेंट्स
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फिल्म: मदारी

निर्देशक: निशिकांत कामथ

अभिनेता: इरफ़ान, जिम्मी शेरगिल, तुषार दलवी

अवधि: 2 घंटे 14 मिनट



'पक्ष अौर प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं, बात इतनी है कि कोई पुल बना है.'

आपातकाल की आहटों के दौर में लिखी गई दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां हमारे सिनेमा में लौटकर फिर आई हैं. इंदिरा दौर में फैले भ्रष्टाचार के काले कारनामों पर बनी 'जाने भी दो यारों' में भी एक पुल गिरा था. निशिकांत कामत की नई फिल्म 'मदारी' में भी एक पुल गिरा है. वजह दोनों की एक ही है - 'रेगिस्तान में रेत बहुत है, उसे कम करना ज़रूरी है.' लेकिन 'मदारी' इसे उजागर करने के लिए दो खोजी पत्रकारों का सहारा नहीं लेती, बल्कि एक 'पिता' की इमोशनल कहानी सुनाती है. ऐसे पिता की कहानी, जिसका बच्चा उससे छीन लिया गया.

लेकिन इमोशन इस कहानी के बैकग्राउंड में है, जो फिल्म में कुछ देरी से उभरकर आता है. शुरुआत में फिल्म की पटकथा यहां भी निशिकांत कामत की पिछली 'फोर्स' की तरह किसी थ्रिलर सी खुलती है. कथा के हीरो इरफ़ान की आवाज़ में हम सुनते हैं, "बाज़ चूज़े पर झपटा, उठा ले गया. कहानी सच्ची लगती है, अच्छी नहीं लगती. बाज़ पर पलटवार हुआ. कहानी सच्ची नहीं लगती, लेकिन खुदा कसम अच्छी बहुत लगती है." अौर फिल्म परदे पर बीते कुछ सालों में हुए तमाम सड़क के संघर्षों, विपदाअों अौर आन्दोलनों की लाइव फुटेज पिरो देती है.

कहानी का बेसिक आइडिया दरअसल बहुत बार देखा हुआ है. बेटे को खो चुका पिता, जो अपने सवालों के जवाब पाने के लिए होम मिनिस्टर के बेटे को किडनैप कर लेता है. वो आम अादमी है, लेकिन क्योंकि ये सिनेमा है, वो पुलिस अौर व्यवस्था से हमेशा दो कदम आगे रहता है. चूहे-बिल्ली की दौड़ चलती है, अौर अन्त में एक धांसू क्लाईमैक्स का वादा है. वैसे भी, अन्याय के खिलाफ़ अौर सत्ता-कानून के विपक्ष में खड़े नायकों की कहानी अौर सिस्टम से बाहर तमाम अन्यायों का 'इंसाफ' तलाश करते किरदार हमारे सिनेमा के सबसे नैचुरल हीरो रहे हैं.


'मदारी' देखते हुए लगातार दो फिल्में याद आती हैं, पहली नीरज पांडे की 'ए वेडनसडे' अौर दूसरी राकेश अोमप्रकाश मेहरा की 'रंग दे बसंती". लेकिन 'मदारी' इनके पासंग नहीं ठहरती. ना फिल्म में 'रंग दे बसंती' जैसा बड़ा ख्वाब है, जिसने उसे फिल्म से बदलकर एक अभियान बनाया, अौर थ्रिलर में इमोशनल कहानी पिरोते हुए इसने 'ए वेडनसडे' का on the edge थ्रिल भी खो दिया है.

फिल्म के एक दृश्य में इरफ़ान
फिल्म के एक दृश्य में इरफ़ान

फिल्म में पहले सीन से ही इरफ़ान का 'पिता कनेक्शन' स्पष्ट है. वैसे भी उसे फिल्म के उग्र कैम्पेन में बहुत इस्तेमाल किया गया है, इसलिए उसके उजागर होने में कोई थ्रिल नहीं. इसलिए इंटरवेल से पहले अौर बाद, जब फिल्म पिता-पुत्र के फ्लैशबैक में डूबती है, फिल्म बहुत बोरिंग हो जाती है. हालांकि फिल्म में केजरीवाल के एंटी करप्शन कैम्पेन, 'अच्छे दिन' अौर समाजवादी नेताअों की छद्म सादगी, सबके संदर्भ हैं. लेकिन फिल्म में राजनीतिक टिप्पणी के स्तर पर भी कुछ मुखरता से नहीं कहा गया है.


भ्रष्टाचार को कोसना, व्यवस्था बदलने की बातें करने में आज कुछ भी क्रांतिकारी नहीं. क्रांतिकारी है 'विकास' की अवधारणा पर छिड़ी बहस में पक्ष लेना. लेकिन हिन्दी सिनेमा का सदा से चला आया 'बेलेंसिंग एक्ट' मदारी का भी पीछा नहीं छोड़ता.

अंत में, यह फिल्म पूरी तरह से इरफ़ान का पर्सनल व्हीकल लगती है, जिसमें वही in हैं अौर वही as. एक जिम्मी शेरगिल को छोड़ दें, जो ठीक अपने 'ए वेडनसडे' वाले अवतार में हैं. तो वही लगातार परदे पर नज़र आते हैं. अन्य कलाकार तो ना ठीक से नज़र आते हैं, ना उनका कोई प्रभाव है. लगता है कि पहले इरफ़ान को नायक चुना गया है, अौर फिर उनके इर्द-गिर्द पूरी कहानी बुन दी गई है. यहां तक कि उनकी असली छवि का उपयोग करने के लिए फिल्म 'टोंक' राजस्थान के संदर्भ भी ले आती है. फिल्म के उग्र प्रचार को भी इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए.


इससे इरफ़ान को सावधान रहना होगा. क्योंकि उनका कद आज इतना बड़ा है कि उन्हें ध्यान में रख पूरी फिल्में रची जा रही हैं. उन्हें याद रखना होगा कि तकरीबन कुछ ऐसा ही अमिताभ बच्चन के साथ 80 के दशक में हुआ था. उनकी फिल्मों में पटकथाएं गौण हो गईं, अौर वे अपनी फिल्मों की पटकथाअों से ज़्यादा बड़े हो गए थे. अौर यहीं से महानायक अमिताभ का सितारा डूबा था.

सच्चाई ये है कि 'मदारी' में पिता-पुत्र के संबंधों को दिखाने के लिए जहां पूरी फिल्म को खर्च कर दिया गया है, वो भी बॉलीवुड के बहुत ही टिपिकल हैवी बैकग्राउंड म्यूज़िक के साथ, 'पान सिंह तोमर' के वो पच्चीस सेकंड जिसमें पिता अपने फौजी पुत्र को निहारता है, आज भी इस पूरी फिल्म पर भारी हैं. इरफ़ान को 'पीकू' को भी याद रखना होगा, जिसमें राष्ट्रीय पुरस्कार भले ही कोई अौर महानायक ले गया, हमारे लिए 'पीकू' हमेशा उन्हीं की फिल्म रहेगी.

https://www.youtube.com/watch?v=s8qvcYOeaNo

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