दंगल की छोरियां ठीक वैसी भी नहीं हैं, जैसी दिखाई गई हैं
क्या-क्या फर्क है रील और रियल में.
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फोटो - thelallantop
दंगल की तारीफ तो खूब हो रही है मगर उस पर फोगाट परिवार के तथ्यों से छेड़छाड़ का आरोप लग रहा है. गीता फोगाट के कोच ने आरोप लगाया है कि उनको ज़बरन विलेन बनाया गया है. वहीं जिस आखिरी फाइट में गीता नाटकीय ढंग से पिता की सलाह मान कर जीतती हैं, वो भी वैसे नहीं है. गीता पूरी फाइट में शुरू से हावी रही थीं और दो राउंड में ही जीत गई थीं. और तो और गीता ने रियल लाइफ में छोटे बाल नहीं रखे हैं.फिल्म बनाने के लिए कहानी को स्क्रीन प्ले के फॉरमेट में लिखा जाता है. स्क्रीन प्ले में तीन ऐक्ट होते हैं. हीरो को हीरो बनाने के लिए कन्फ्लिक्ट चाहिए होता है. क्लाइमैक्स में हीरो को जिताने से पहले एक ऐंटी क्लाइमैक्स चाहिए होता है, जिसमें उसे हारता दिखाकर आखिर में जिताया जाता है. आप इससे सहमत हों न हों, मगर स्क्रीनप्ले फिल्म का एक तकनीकी पहलू है. इसे तोड़ना मुश्किल है और रियल लाइफ स्टोरी के मामले में तो ये गुंजाइश और कम हो जाती है. ज़रूरी नहीं कि हर रियल लाइफ कहानी स्क्रीन प्ले के हिसाब से घटी हो. हर हीरो के करियर में क्लाइमैक्स से पहले ऐंटी क्लाइमैक्स आया हो.
हिंदी सिनेमा में लेखक को लंबे समय तक बहुत कम वैल्यू दी गई है. कई बार लेखक को मिलने वाला पैसा नाममात्र का होता है. स्क्रीन प्ले लिखते वक्त भी कहानी के लॉजिक्स की जगह स्टार को ग्लैमराइज़ करना होता है. भारतीय समाज के हिसाब उसकी नैतिकता भी देखनी पड़ती है.
उदाहरण के लिए, फिल्म सुल्तान में हीरो ईंट के चट्टे उठाकर प्रैक्टिस करता है. जबकि आज के एथलीट ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते हैं. फिल्म भाग मिल्खा भाग में जिस रेस को आखिरी दिखाया गया है. वो मिल्खा सिंह की आखिरी रेस नहीं थी. मिल्खा सिंह की प्रसिद्ध ओलंपिक रेस में भी वो सबसे आगे नहीं चल रहे थे, जैसा फिल्म में दिखाया गया था. न ही उनके साथ ‘भाग मिल्ख्या’ वाली कोई घटना हुई थी. एयरलिफ्ट में एक सरकारी अफसर को विलेन दिखाया गया, जबकि असल घटना में वो नायक से कम नहीं था.
ये सब वो रूपक हैं जिनके ज़रिए डायरेक्टर कहानी के एक ऐक्ट से दूसरे में जाता है. मिसाल के तौर पर ‘लड़कियों का बाल काटना’ उनके कैरेक्टर में आए बदलाव को दिखाने वाला एक ग्लोबल रूपक है. आपने हिंदी, हॉलीवुड और वर्ल्ड सिनेमा की तमाम फिल्मों में ऐसा देखा होगा.
बायोपिक किसी की दशकों की यात्रा को 2-3 घंटे में दिखाती है. ऐसे में ये लेखक और डायरेक्टर की सोच है कि वो नायक के जीवन का कितना हिस्सा दिखाएंगे, कैसे दिखाएंगे, किस घटना को छोड़ेंगे, किसको स्क्रीनप्ले के हिसाब से बदलेंगे. रियल इंसिडेंट्स फिल्मों में ये हमेशा ही विवादास्पद रहा है. ‘गांधी’ में एडनबरो ने गांधी के पूरे जीवन को दिखाया. 'चक दे' में मीर रंजन नेगी के सेल्युलाइड वर्ज़न कबीर खान के सिर्फ विमेंस हॉकी कोच वाले रूप को दिखाया गया है.
ऐसा भी नहीं है कि ऐसा सिर्फ हिंदी सिनेमा में ही होता हो. 'टाइटैनिक' में शिप ऑफिसर विलियम मर्डोक को एक खलनायक बनाया गया है, फिल्म का किरदार रिश्वत लेता है, बेगुनाह तीसरे दरजे के मुसाफिरों को गोली मारता है. जबकि रियल लाइफ में ऑफिसर मर्डोक कई घंटे तक लोगों को लाइफ बोट में चढ़ाते रहे. पानी में डूब रहे लोगों की मदद के लिए लाइफ जैकेट और लकड़ी के फट्टे फेंकते रहे और अंत में ठंडे पानी में डूब गए.

फिल्म में ऑफिसर विलियम मर्डोक.
साउंड ऑफ म्यूज़िक में व़ॉन ट्रैप परिवार नाज़ियों से खुफिया तरीके से पहाड़ों से निकलता है, रियल लाइफ में पूरा परिवार बड़े आराम से रिजर्वेशन करवाकर अमेरिका गया था. आप इसे सही या गलत में बांट सकते हैं. मगर एक सच ये भी है कि
चक दे जैसी फिल्म में अगर 'ये लेफ्ट मारेगी, राइट में जाएगी... या अल्लाह ये तो सीधा शॉट लेगी' जैसा सीक्वेंस नहीं होता तो शायद कोच कबीर खान की ये फिल्म इतनी खास नहीं बन पाती.आमिर खान एक प्रोड्यूसर और अभिनेता हैं. वो कुश्ती के देसी दांव-पेचों को आधुनिक तकनीकों से बेहतर दिखाते हैं, जो कि गलत है मगर फिर भी कुश्ती, गीता, बबिता और महावीर फोगाट को वो पूरा क्रेडिट मिलता है, जो मिलना चाहिए. फिल्म चक दे इंडिया में कोच का नाम तो आपको पता है, मगर क्या उन असली खिलाड़ियों (फिल्म की एक्टर्स नहीं) में से एक को भी आप फिल्म के कारण जानते हैं? सोचिएगा एक बार.
उससे पहले वो असली फाइट देखिये जिसमें मैट पर गीता अपनी विरोधी को पटक रही हैं.
https://www.youtube.com/watch?v=pmHBSHSHH8Y
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