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दिल्ली का 'भाजपा युग' जब मदन खुराना और साहिब वर्मा की लड़ाई में सुषमा स्वराज सत्ता पा गईं

Delhi Vidhan Sabha Chunav: दिल्ली विधानसभा चुनावों का इतिहास. उस चुनाव की कहानी जिसमें भाजपा की कमाल की जीत हुई. लेकिन जीत दिलाने वाले की अपने ही दल के एक नेता से ठन गई. Madan Lal Khurana और Sahib Singh Verma वाले दिल्ली के 'BJP काल' की कहानी.

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Delhi Assembly Election
दिल्ली विधानसभा चुनाव.
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रवि सुमन
9 जनवरी 2025 (Updated: 9 जनवरी 2025, 02:25 PM IST) कॉमेंट्स
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बीते 11 सालों से दिल्ली की सत्ता पर आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party) काबिज है. उससे पहले करीब 15 साल तक कांग्रेस (Congress). कई किस्से सुनने को मिलते हैं ढाई दशक के. मगर राजनीति का हर छात्र एक किस्सा हमेशा दोहराता है कि ये दिल्ली में प्याज के कारण सरकार बदल गई थी. और ये किस्सा तबका है जब दिल्ली में 'भाजपा काल' होता था. मजेदार बात ये है कि ये काल दशकों में नहीं बीता, मात्र पांच साल. एक या दो नहीं, कुल तीन मुख्यमंत्री बने. हर नेता अपने समय में एक कहानी छोड़ गया. मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज, तीनों के लिए दिल्ली के तख्त की अपनी-अपनी दास्तान है. एक रिफ्यूजी मुख्यमंत्री की संघर्ष कहानी. एक जाट मुख्यमंत्री जिसे प्याज ले डूबा, और एक मुख्यमंत्री जिसे हारी हुई बाजी पलटने का जिम्मा तो दे दिया गया, पर समय नहीं. 

सुषमा स्वराज ने अपनी दमदार आवाज में दिल्ली को भरोसा दिलाने की कोशिश की, तब तक हालात उनके नियंत्रण से बाहर जा चुके थे. दिल्ली की सड़कों से लेकर सत्ता के गलियारों तक की ये कहानियां सिर्फ राजनीति नहीं, बल्कि उस दिल्ली की झलक देती हैं, जो अपने दिलचस्प राजनीतिक ड्रामों के लिए भी मशहूर है. इससे पहले हमने दिल्ली के 1952 के सबसे पहले विधानसभा चुनाव में ब्रह्म प्रकाश की जीत का किस्सा पढ़ा. उनके सत्ता से बाहर जाने की कहानी से लेकर बिना विधानसभा वाले दिल्ली की भी कहानी पढ़ी. पिछली कहानी में हमने भाजपा की जीत देखी. 

पिछले अंक को यहां पढ़ें: कहानी उस दिल्ली की जहां शीला दीक्षित से पहले भी कांग्रेस की सरकार थी

अब आगे.

1993 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में मदन लाल खुराना के नेतृत्व में भाजपा को शानदार जीत मिली. खुराना ने कमाल कर दिया. उन्होंने आउटर दिल्ली और यमुना पार के इलाकों पर फोकस किया. कई जानकार कहते हैं कि खुराना ने मुस्लिम बहुल इलाकों में जनता दल का इस्तेमाल किया और कांग्रेस का हिसाब-किताब बिगाड़ दिया. ये वही साल था जब भाजपा राम मंदिर के लिए जन जागरण अभियान चला रही थी.

Madan Lal Khurana: एक रिफ्यूजी मुख्यमंत्री

भाजपा और खुराना का रिश्ता कुछ-कुछ वैसा ही रहा, जैसा ब्रह्म प्रकाश और कांग्रेस का रहा. दोनों को ही अपनी-अपनी पार्टी में विरोध का सामना करना पड़ा. 1993 का चुनाव BJP भले ही खुराना के नेतृत्व में लड़ रही थी लेकिन पार्टी ने उनको CM पद का चेहरा घोषित नहीं किया था. ये तो उस ‘धमाकेदार’ जीत की देन थी जो वो CM बनाए गए. पंजाब के फैसलाबाद में जन्मे खुराना जब 12 साल के थे तब भारत-पाकिस्तान विभाजन के कारण उनको दिल्ली पलायन करना पड़ा. 2 दिसंबर, 1993 को एक रिफ्यूजी ने मुख्यमंत्री के पद की शपथ तो ले ली. लेकिन दिल्ली के इतिहास ने अपनी एक कहानी को फिर से दोहराना ठीक समझा. और ब्रह्म प्रकाश की तरह खुराना भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके.

हुआ यूं कि सत्ता में आते ही खुराना को इस बात का अंदाजा हो गया कि दिल्ली किस कदर केंद्र पर निर्भर है. और ये मामला सिर्फ पुलिस के अधिकार भर ही नहीं था. कैबिनेट में साहिब सिंह वर्मा जैसे उनके सहयोगी ही उनके लिए चुनौती खड़ा कर रहे थे. इसके बावजूद खुराना अपने प्रयासों में लगे रहे. मार्च 1994 में उन्होंने दिल्ली मेट्रो की DPR (डिटेल्ड प्रॉजेक्ट रिपोर्ट) के लिए पैसा आवंटित किया. पीने के पानी के संकट को दूर करने के लिए, यमुना विवाद पर हरियाणा की तत्कालीन जनता पार्टी सरकार में अपने दोस्त और तब के मुख्यमंत्री भजनलाल बिश्नोई के साथ बैठकें कीं. लेकिन इस बीच उनकी छवि बदलने लगी.

खुराना की मुश्किलें

मदन लाल खुराना उस समय लगभग हर रोज ही कोई न कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस करते थे. इसको लेकर पत्रकारों में उनका मजाक बनाया जाता था. वो हर रोज ही कोई एलान करते, किसी पर आरोप लगाते या किसी आरोप का जवाब देते. इस बीच जनता पार्टी ने भी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. इससे दिल्ली की सत्ता तो नहीं हिली लेकिन खुराना के CM पद से हटने की जमीन तैयार हो गई.

29 जून, 1993 को ये प्रेस कॉन्फ्रेंस जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने की. स्वामी ने कहा,

मैं ये साबित कर दूंगा कि एक दलाल और हवाला कारोबारी सुरेंद्र जैन ने 1991 में लालकृष्ण आडवाणी को दो करोड़ रुपये दिए. जैन उस नेटवर्क से जुड़ा था, जो विदेशी धन को यहां गैर-कानूनी तरीके से रुपये में बदलकर कश्मीर के अलगाववादी संगठन JKLF की मदद करता था. 

स्वामी के बयान को बहुत ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया गया. लेकिन ये मामला एक बार फिर से CBI की नजर में आ गया. एजेंसी के दफ्तर पड़े पुराने दस्तावेजों को झाड़ा-पोंछा गया. एक डायरी को संज्ञान में लिया गया. उस डायरी में कथित रूप से कांग्रेस, BJP और कई दूसरे नेताओं के नाम का पहला अक्षर और उसके सामने एक रकम लिखी गई थी. केंद्र में नरसिम्हा राव की सरकार थी. बहुत समय तक ये डायरी बाहर नहीं आ सकी या इसे बाहर नहीं आने दिया गया. लेकिन 1996 के लोकसभा चुनाव के पहले CBI ने कार्रवाई शुरू की. चार्जशीट की तैयारी होने लगी. इसमें लालकृष्ण आडवाणी का भी नाम था. उन्होंने भाजपा के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और निर्दोष साबित होने तक चुनाव नहीं लड़ने का एलान किया. 

पुराने दोस्त ने भरोसा दिया था

इसी डायरी में खुराना का भी नाम था. उन पर 1988 में 3 लाख रुपये लेने के आरोप लगे थे. उन पर CM पद छोड़ने का दबाव बढ़ने लगा. जानकार बताते हैं कि उन्हें अपने पुराने दोस्त और नरसिम्हा राव के करीबी भजनलाल ने भरोसा दिया था कि चार्जशीट में उनका नाम नहीं होगा. इसलिए उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया.

फिर आया साल 1996 का फरवरी महीना. CBI ने कोर्ट में कहा था कि वो जैन हवाला मामले में खुराना के खिलाफ चार्जशीट दायर करने वाले हैं. आखिरी सप्ताह में जब खुराना संसद में थे तो उनसे फौरन 28 अकबर रोड जाने को कहा गया. वहां दिल्ली के पुलिस कमिश्नर रहते थे. खुराना जब वहां पहुंचे तो तब के लेफ्टिनेंट गवर्नर पीके दवे भी वहां मौजूद थे. खुराना को कहा गया कि वो दवे को अपना इस्तीफा सौंप दें.

BJP के ही कुछ नेता खुराना का साथ भी दे रहे थे. इसका नेतृत्व मुरली मनोहर जोशी कर रहे थे. हालांकि, उनके इस्तीफे के पहले आडवाणी और बिहार विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष यशवंत सिन्हा ने इसी मामले के चलते इस्तीफा दे दिया था. इसलिए उनपर भी दबाव बना. आडवाणी ने भी खुराना को यही सुझाव दिया. नतीजा ये निकला कि मदन लाल खुराना को CM पद छोड़ना पड़ा. 10 साल बाद खुराना ने अपने इस्तीफे के फैसले को अपनी सबसे बड़ी भूल बताई. 

बाद में उन्हें और बाकी नेताओं को भी इस केस से बरी कर दिया गया. जैन हवाला घोटाला इन नेताओं के लिए एक कमजोर केस साबित हुआ. बरी होने के बाद खुराना ने CM पद पाने की कोशिश की. मगर आडवाणी इसके लिए नहीं माने. खुराना उन दिनों कहा करते, अदालत ने मुझे दोषमुक्त कर दिया, मगर पार्टी ने नहीं किया. बाद में उनको अटल कैबिनेट में मंत्री बनाया गया. हालांकि, दो महीने में ही यहां से भी खुराना की विदाई हो गई. 2004 में उनको राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया. बहरहाल, समय किसी के लिए नहीं रुकता, सत्ता किसी एक व्यक्ति का इंतजार नहीं करती.

Madan Lal Khurana
अगस्त 2005 में आडवाणी की आलोचना के लिए खुराना को पार्टी से 6 सालों के लिए निकाल दिया गया था. हालांकि, माफी मांगने के बाद सितंबर 2005 में उन्हें पार्टी में वापस ले लिया गया. (फोटो: इंडिया टुडे आर्काइव)
गरीब प्याज नहीं खाते- Sahib Singh Verma

खुराना ने जब इस्तीफा दिया तब CM पद के लिए दो नाम सामने आए- सुषमा स्वराज और डॉ. हर्षवर्धन. सुषमा तब राज्यसभा में सांसद थीं और हर्षवर्धन खुराना कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री थे. लेकिन जब 48 में से 31 विधायकों ने अपना समर्थन साहिब सिंह वर्मा को दिया तो आलाकमान भी दबाव में आ गया. और आखिर में वर्मा का नाम फाइनल हुआ. 

जाट नेता साहिब वर्मा इस तरह CM पद तो पा गए लेकिन खुराना और उनके समर्थकों के बीच टकराव तेज हो गए. मामला आरोप-प्रत्यारोप से लेकर हाथापाई और फिर इस्तीफों तक पहुंचा. खुराना समर्थकों ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री एक लॉटरी किंग के जरिए उनके नेता की जासूसी करा रहे हैं. साथ में 100 करोड़ के भूमि घोटाले में मुख्यमंत्री के करीबियों के शामिल होने की बात भी घूमने लगी. साहिब ने पलटवार किया और कहा, “एक भी आरोप सिद्ध हुआ तो पद छोड़ दूंगा.” इसके बाद उपहार सिनेमा कांड हुआ. वजीराबाद में यमुना में स्कूली बच्चों से भरी बस का गिरना, मिलावटी तेल से फैली ड्रॉप्सी महामारी. साहिब सिंह सरकार अपने कार्यकाल में इन सबसे हलकान थी.

दो टीशर्ट पर एक किलो प्याज फ्री

इन सबके बीच साल 1998 आया. चुनाव का साल. साहिब वर्मा के मुख्यमंत्री बनें 2 साल से अधिक हो गए थे. दिल्ली के ग्रेटर कैलाश में कुछ लुटेरे एक कमरे के घर में घुसे और कोई कीमती चीज खोजने लगे. उनके हाथ 500 रुपये लगे जिससे वो संतुष्ट नहीं हुए. लिहाजा और महंगी चीजों की खोज में लग गए. कुछ और नहीं मिला तो फ्रस्टेट होकर मकान में रहने वाले को पीटने के लिए बढ़े. तभी उनकी नजर एक बोरे पर पड़ी. बोरे में 5 किलो प्याज था. लुटेरों ने बोरा उठा लिया और चलते बनें. इस तरह प्याज की उस बोरी ने उस व्यक्ति को पिटने से बचा लिया. लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी. पीड़ित व्यक्ति जब FIR लिखवाने थाने पहुंचा तो SHO ने मामला दर्ज करने से इनकार कर दिया और कहा,

तुम कौन से महाराज हो जो तुम्हारे पास 5 किलो होगा.

जाहिर है वक्त कुछ ऐसा चल रहा था कि आम आदमी के लिए 5 किलो प्याज रखना आम बात नहीं थी. दिल्ली के ही सरोजिनी नगर में एक दुकानदार ने प्याज में बिजनेस का ऐसा स्कोप देखा कि उसने दो टीशर्ट खरीदने पर एक किलो प्याज फ्री देने का एलान कर दिया. कह सकते हैं कि दुकानदार टीशर्ट नहीं बल्कि प्याज बेच रहा था. इंडिया टुडे मैगजीन ने अपने 9 नवंबर, 1998 के अंक में इस पर विस्तार से रिपोर्ट की.

उस साल दिवाली आते-आते पूरे देश की हालत खराब थी. खासकर महानगरों में. कारण था प्याज के बढ़ते दाम. टीवी एंकर मधु त्रेहन, कवि जावेद अख्तर और क्रिकेटर कपिल देव जैसे लोगों ने प्याज नहीं खरीदने का एलान किया था. त्रेहन ने तो यहां तक कहा था कि भाजपा आयात करने में व्यस्त है और कांग्रेस जमाखोरों को बढ़ावा देने में व्यस्त है.

एक मौका आया जब प्याज की बढ़ती कीमत पर पत्रकारों ने CM वर्मा को घेर लिया. पत्रकारों ने पूछा,

“गरीब आदमी तो इस महंगे प्याज के बारे में सोच भी नहीं सकता?”

इस पर साहिब सिंह ने जो जवाब दिया उससे उनकी CM की कुर्सी चली गई. उन्होंने कहा,

"गरीब आदमी ऐसे भी प्याज नहीं खाता है."

मामला गड़बड़ा गया. क्योंकि उस वक्त कांग्रेस पार्टी दिल्ली में अपने लिए जमीन तलाश रही थी. प्रदेश अध्यक्ष थीं, शीला दीक्षित. उन्होंने इस मामले को भुनाया. चुनाव में करीब दो महीने शेष रह गए थे. भाजपा आलाकमान को डर हो गया कि वर्मा के बयान से आगामी चुनाव में पार्टी को नुकसान हो सकता है. इसके अलावा वर्मा विधायकों के असंतोष, गुटबाजी, सिर्फ ग्रामीण दिल्ली पर फोकस करने जैसे आरोपों से भी घिरे हुए थे. लिहाजा चुनाव से 50 दिन पहले उनसे इस्तीफा मांगा गया. खुराना ने अपने दावेदारी भी पेश की.

वर्मा ने इस्तीफा तो दिया लेकिन इस शर्त पर कि किसी भी हाल में मदन खुराना वापस नहीं आने चाहिए. साहिब ने खुद ही सुषमा स्वराज के नाम का प्रस्ताव रखा. और 12 अक्टूबर 1998 को वो CM बन गईं. 

Sahib Singh Verma, Atal Bihari Vajpayee and Sushma Swaraj
साहिब सिंह वर्मा, अटल बिहारी वाजपेयी और सुषमा स्वराज. 1998 में चुनाव प्रचार के दौरान. (तस्वीर: इंडिया टुडे आर्काइव)
Sushma Swaraj: CM पद की कंप्रोमाइज कैंडिडेट

खुराना और साहिब की लड़ाई में सुषमा ने बाजी मार ली. CM की "कंप्रोमाइज कैंडिडेट" होते हुए भी उन्हें ये पद मिला. हालांकि, कुछ ही हफ्तों में दिल्ली में आचार संहिता लगना था. उनके पास समय कम था. वो अपने बयानों में कहती भी थीं,

"भईया, मुझे तो मैच का आखिरी ओवर खेलने के लिए दिया गया है. और मुझे तो हर एक बॉल पर छक्का मारना है."

उन्होंने हर बॉल पर छक्का मारने की कोशिश भी की. पार्टी ने उनको CM तो बनाया ही, उनको अगले चुनाव के लिए भी CM पद का चेहरा बताया. आलाकमान ने उनको कांग्रेस की शीला दीक्षित की महिला उम्मीदवारी के काट के रूप में देखा. सुषमा ने प्याज के दाम पर काबू पाने कि लिए गोदामों पर खूब छापे मारे. सरकार तब लॉ एंड ऑर्डर के मामले में भी आलोचना का सामना कर रही थी. दिल्ली की CM ने पुलिस चौकियों और थानों का औचक निरीक्षण किया. हालांकि, दिल्ली पुलिस गृह मंत्री आडवाणी को रिपोर्ट करती थी. सुषमा स्वराज ने उन दिनों एक बयान दिया था,

"मैं जाग रही हूं. दिल्ली की जनता को डरने की जरूरत नहीं है. मैं न सोऊंगी, न ही किसी पुलिस अधिकारी को सोने दूंगी."

BJP इतने पचड़ों में फंस गई थी कि उसे निपटाने के लिए सुषमा स्वाराज को मिला समय पर्याप्त नहीं था. नतीजा ये निकला कि दिल्ली विधानसभा चुनाव 1998 में भाजपा की बुरी गत हो गई. पार्टी 49 सीटों से सीधे 15 पर आ गिरी.

Sushma Swaraj and Sheila Dikshit
सुषमा स्वराज के साथ दिल्ली की तत्कालीन CM शीला दीक्षित. (फाइल फोटो: इंडिया टुडे आर्काइव, 4 दिसंबर, 2013)

दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार बनी. उनके लिए सरकार चलाना इतना आसान भी नहीं रहा. आगे के अंक में उनकी राजनीतिक हैसियत की बात करेंगे. इसके आगे की कहानी में उनकी सत्ता चली जाएगी. केजरीवाल का कमाल का उदय होगा. उनपर भ्रष्टाचार की छींटे पड़ेंगी. और फिर वो तिहाड़ जेल पहुंचेंगे. खुराना की ही तरह वो भी बेदाग साबित होने तक के लिए CM पद से दूरी बनाएंगे. और आतिशी, केजरीवाल को फिर से दिल्ली का CM बनाने के उद्देश्य से दिल्ली की ‘गद्दी’ पर बैठेंगी. इन सबके बारे में विस्तार से अगले अंक में. तब तक के लिए लल्लनटॉप पर बने रहिए.

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