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चिदंबरम के 'ड्रीम बजट' और सिन्हा के 'मिलेनियम बजट' ने कैसे तैयार की निर्मला के 'टैबलेट बजट' की बुनियाद

Budget History : आर्थिक सुधारों के बाद की बजटीय कहानी

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पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम, यशवंत सिन्हा और मौजूदा वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण (साभार: पीआईबी भारत सरकार, लोस, इंडिया टुडे)
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प्रमोद कुमार राय
1 फ़रवरी 2022 (Updated: 31 जनवरी 2022, 04:48 AM IST)
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दी लल्लनटॉप की 'बजट का इतिहास' सीरीज के तहत आप पिछले तीन भागों में आजादी से पहले और बाद के कई अहम बजटीय पड़ावों को देख चुके हैं. लाइसेंसराज से लेकर ऐतिहासिक आर्थिक सुधारों तक की यात्रा भी कर ली है. इस भाग में हम जानेंगे कि कैसे आर्थिक सुधारों की बुनियाद पर 1991 के बाद भारत ने पी. चिदंबरम के 'ड्रीम बजट', यशवंत सिन्हा के 'मिलेनियम बजट' और अरुण जेटली के 'मिडल क्लास बजट' जैसे मील के पत्थर छुए. साथ ही यह भी कि देश की पहली फुलटाइम महिला वित्तमंत्री ने कौन-कौन से नए प्रतिमान गढ़े हैं.

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1991 के आर्थिक सुधारों के बाद जिस बजट ने पहली बार सुर्खियां बटोरीं, वह था पी. चिदंबरम का 1997 वाला 'ड्रीम बजट'. इसे ड्रीम बजट इसलिए कहा जाता है कि एलपीजी (लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन) की आंच पर जो सपने पक रहे थे, उसमें इस बजट ने रंग भर दिए. आम आदमी और कंपनियों, दोनों पर टैक्स का बोझ घटा. इनकम टैक्स की ऊपरी सीमा 40 से घटाकर 30 फीसदी कर दी गई, जो आज 25 साल बाद भी वहीं है. कॉरपोरेट टैक्स पर सरचार्ज खत्म हुआ. निजीकरण तेज हुआ. पहली बार काले धन को सामने लाने के लिए वॉलिंटरी डिसक्लोजर ऑफ इनकम स्कीम (VDIS) आई. उस साल पर्सनल इनकम टैक्स से रेकॉर्ड करीब 18,700 करोड़ रुपये की आय हुई.
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1997 में अपने ड्रीम बजट से चमके पी. चिदंबरम प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान (फोटो साभार : फोर्ब्स इंडिया)

ड्रीम बजट के फायदे तो बाद में दिखे, सपना चार महीने बाद ही दरकने लगा. एशियाई आर्थिक संकट मुंह बाए खड़ा था. जीडीपी ग्रोथ जो 7 फीसदी तक जा पहुंची थी, एक ही झटके में 4 फीसदी पर आ गई. लेकिन चिदंबरम को 'लकी फाइनेंस मिनिस्टर' कहा जाता है. इस संकट से एक महीना पहले ही कांग्रेस के समर्थन वापस ले लेने से संयुक्त मोर्चा सरकार गिर गई. चिदंबरम लकी इस मायने में रहे कि 1996 में वित्तमंत्री के रूप में उन्हें जो आर्थिक विरासत मिली थी, उसे मनमोहन सिंह ने बीते पांच वर्षों में सींचा था. जीडीपी ग्रोथ 7 फीसदी थी. फिस्कल डेफिसिट 4.5 फीसदी तक आ गया था, जो 1991 में 8 फीसदी हुआ करता था. चिदंबरम को इस बने बनाए मैदान में चौके-छक्के जड़ने थे, जो उन्होंने कर दिखाया. लेकिन एशियाई संकट का जो बुरा असर हुआ, उसे नई सरकार और नए वित्तमंत्री को झेलना था. वह वित्तमंत्री थे, यशवंत सिन्हा. कई मायनों में 'मिलेनियम' था, सिन्हा का मॉर्निंग बजट साल 2000 का बजट आजादी के 53 साल बाद पहली बार शाम 5 बजे के बजाय सुबह 11 बजे पेश हुआ. असल में आजादी से पहले भारत में पेश होने वाले बजट के लिए वही समय तय था, जब ब्रिटिश संसद में बजट पेश होता था. लेकिन आजादी के बाद भी यह परंपरा चलती रही. इसे तोड़ा नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (NDA) सरकार में वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने. लेकिन सिन्हा ने खुद इसकी एक दिलचस्प वजह बताई थी-
''बजट पेश करने के बाद इंटरव्यू का एक लंबा दौर शुरू हो जाता है. जिसकी वजह से देर रात तक जगने से हम सब को थकान हो जाती है. इस कारण इसका समय बदलकर दिन में कर दिया गया''
लेकिन यह वो कारण नहीं था, जिसके लिए साल 2000 के बजट को मिलेनियम बजट कहा जाता है. इस बजट की खास बात थी, आईटी सेक्टर को मिली सौगातें. बदलते वक्त के साथ उभरीं आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहन. टैक्स रियायतों की भरमार हुई. कंप्यूटर सहित 21 तरह के आईटी उत्पादों पर कस्टम ड्यूटी घटाई गई. यहां से आईटी बूम का दौर चला. रोजगार के नए अवसर बने. कई भारतीय आईटी कंपनियां ग्लोबल मार्केट में पैठ बना पाईं.
लेकिन दो साल बाद आया सिन्हा का ही 'बजट-2002' इतिहास में 'रोलबैक बजट' के नाम से जाना जाता है. इसमें सर्विस टैक्स रेट सहित कई चीजों के दामों में खूब बढ़ोतरी की गई थी. लेकिन जल्द ही जनता और विपक्ष के विरोध के बाद इन्हें वापस लेना पड़ा था.
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फाइल ग्राफिक्स, साभार: इंडिया टुडे
वह वित्तमंत्री जिसने आर्थिक सुधारों के पहले और बाद में भी बजट पेश किया साल 1982-83 में अपना पहला बजट पेश करने वाले प्रणब मुखर्जी ने शायद ही सोचा होगा कि 25 साल बाद फिर वह इसी भूमिका में नजर आएंगे. 2009 में उन्हें मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार में वित्तमंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गई. ऐसे में वह देश के इकलौते वित्तमंत्री रहे, जिन्होंने 1991 के आर्थिक सुधारों से पहले और बाद में भी बजट पेश किया. हालांकि इस फेहरिस्त में यशवंत सिन्हा का भी नाम आ सकता है, लेकिन उन्होंने चंद्रशेखर सरकार में अंतरिम बजट पेश किया था ना कि फुल बजट.
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इंदिरा गांंधी कैबिनेट में वित्तमंत्री रहे मुखर्जी ने 1982-83 में पहला बजट पेश किया था. (फोटो साभार बीबीसी)

प्रणब मुखर्जी को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट से देश को बखूबी उबारा. करीब 1.86 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज अपने आप में ऐतिहासिक था. यह उस समय जीडीपी का 3.5 फीसदी था. लेकिन अगले दो बजट भी चर्चा और विवादों में रहे. साल 2012 के बजट में उन्होंने रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स से कंपनियों की नींद उड़ा दी. पिछले मर्जर और अधिग्रहण पर टैक्स नोटिस थमाए जाने लगे. कुछ मामलों में कंपनियों के 60 साल पुराने इनकम टैक्स के मामले भी खोले जाने लगे. इस कानून के खिलाफ वोडाफोन और केयर्न इंडिया की वैधानिक चुनौतियों ने भारत सरकार की काफी किरकिरी कराई. आखिरकार एक दशक बाद मोदी सरकार ने 2021 में इस कानून को खत्म कर दिया. प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब ' The Coalition Years 1996-2015 ' में लिखा है-
'' रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स व्यवस्था न केवल मौजूदा टैक्स चोरी रोकने के लिए, बल्कि पुराने मामलों में दबे राजस्व को निकालने के लिए थी. एक वित्तमंत्री के रूप में मैं राजस्व के लिहाज से देश के हितों की रक्षा करने के अपने कर्तव्य के प्रति आश्वस्त था''
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प्रणब मुखर्जी की वित्तमंत्रालय में दूसरी पारी 2009 से 2012 तक रही.  (साभार: इंडिया टुडे)

प्रणब ने इसी बजट में महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों के लिए इनकम टैक्स में छूट की सीमा बढ़ाकर वाहवाही लूटी थी. रुपये का अपना सिंबल होगा, यह प्रस्ताव भी 2012 के बजट से ही निकला था. उसी साल जुलाई में वह देश के राष्ट्रपति चुन लिए गए और एक बार फिर वित्तमंत्रालय की कमान पी. चिदंबरम के हाथ आ गई. लेकिन इस बार भाग्य चिदंबरम के सिर ज्यादा देर नहीं टिका. जीडीपी ग्रोथ 8 पर्सेंट तक पहुंची तो थी, लेकिन फिस्कल डेफिसिट भी 6 फीसदी तक बढ़ गया. बैंकों के एनपीए फैलने लगे. यही वो दौर था, जब जनलोकपाल और कालाधन वापस लाओ का नारा बुलंद कर अन्ना हजारे और बाबा रामदेव सत्ता परिवर्तन की भूमिका लिख रहे थे. जीएसटी और जेटली ने कैसे बदल दिए बजट के मायने साल 2014 में सत्ता में आई मोदी सरकार के लिए अपने वादे और जनता की उम्मीदें सबसे बड़ी चुनौती थीं. कालाधन लाकर सबके खाते में 15-15 लाख देने की बात तो जुमला कहकर उड़ा दी गई, लेकिन 'कुछ बड़ा होने वाला है' का सस्पेंस इस सरकार का स्थायी भाव बन गया. जुलाई 2014 में अपना पहला बजट पेश कर रहे वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सबसे पहले नौकरीपेशा और मिडल क्लास को खुश करने की कोशिश की. महंगाई से जूझ रही जनता को रिझाने के लिए इनकम टैक्स से छूट की सीमा 2 लाख से बढ़ाकर ढाई लाख कर दी गई. सेक्शन 80सी के तहत डिडक्शन के लिए निवेश सीमा 1 लाख से 1.5 लाख रुपये कर दी गई. होम लोन के ब्याज पर डिडक्शन लिमिट 1.5 लाख से 2 लाख कर दी गई.
अगला बजट जेटली का पहला फुल बजट था. यहां अमीरों पर शिकंजा कसकर आम आदमी को राहत देने की पॉलिसी दिखी. वेल्थ टैक्स खत्म कर 2 फीसदी सरचार्ज लगाया गया. करीब 13 साल बाद 2018-19 के बजट में स्टैंडर्ड डिडक्शन की वापसी हुई. यह 2005 में खत्म कर दिया गया था. मेडिकल और ट्रांसपोर्ट एलाउंस के बदले 40,000 रुपये का स्टैंडर्ड डिडक्शन मिला. लेकिन जेटली को यूपीए सरकार से विरासत में एक बड़ा राजकोषीय घाटा मिला था. हर बजट में उनका यह दर्द छलक उठता. एक बजट भाषण में उन्होंने कहा-
'' मेरे पूर्ववर्ती (पी. चिदंबरम) ने फिस्कल डेफिसिट को घटाकर 4.1 फीसदी करने का कठिन लक्ष्य रखा था. मैने इस चैलेंज को स्वीकार करने का फैसला किया है.''
मोदी सरकार साल 2017-18 तक फिस्कल डेफिसिट 3.5 फीसदी तक लाने में कामयाब हो गई.
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मोदी सरकार में वित्तमंत्री रहे जेटली ने लगातार पांच बजट पेश किए थे (फोटो इंडिया टुडे)

साल 2016 से 2018 का दौर बजटीय इतिहास में मील का पत्थर कहा जा सकता है. इसने आम बजट के मायने ही बदल दिए. रेल बजट अलग से पेश करने की 92 साल पुरानी परंपरा को खत्म करते हुए मोदी सरकार ने इसे आम बजट में ही समाहित कर दिया.
1 जुलाई 2017 से लागू हुए देश के सबसे बड़े टैक्स रिफॉर्म यानी गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (GST) ने 17 तरह के अप्रत्यक्ष करों को समाहित कर लिया. जीएसटी रेट तय करने का अधिकार जीएसटी काउंसिल को चला गया. ऐसे में 'क्या सस्ता-क्या महंगा' वाली सुर्खियां आम बजट से लगभग गायब ही हो गईं.
लेकिन नोटबंदी और जीएसटी के तुरंत बाद असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र की जो दुर्दशा हुई, उसने अर्थव्यवस्था को झकझोर दिया. और शायद अरुण जेटली की छवि को भी. बीजेपी नेता सुब्रमण्यन स्वामी ने मोदी और जेटली की आर्थिक नीतियों की खुलकर आलोचना शुरू कर दी. एक बार जेटली को निशाने पर लेते हुए स्वामी ने कहा-
'' भाजपा को अपने मंत्रियों से कहना चाहिए कि विदेश यात्रा के दौरान पारंपरिक भारतीय परिधान पहनें. कोट और टाइ में वे वेटर जैसे लगते हैं। "
आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी जेटली के कई फैसलों और नीतियों की कड़ी आलोचना की.
ब्रीफकेस से बहीखाता और टैबलेट बजट वाली वित्तमंत्री 2019 के आम चुनाव में मोदी सरकार की धमाकेदार वापसी हुई, लेकिन वित्तमंत्रालय की कमान अरुण जेटली की जगह निर्मला सीतारमण को दी गई. वह देश की पहली फुल टाइम महिला वित्त मंत्री हैं. 5 जुलाई 2019 को पहला बजट पेश करने वाली निर्मला बजट पर हावी 'चमड़े का थैला' परंपरा को तिलांजलि देते हुए संसद में ब्रीफकेस की जगह 'बहीखाता' लेकर पहुंचीं. कोरोना के साये में आए 2021 के बजट में तो उन्होंने एक कदम आगे जाकर टैबलेट के जरिए पहला पेपरलेस बजट पेश किया.
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बजट 2020 के दौरान वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण (साभार इंडिया टुडे)

हालांकि निर्मला को हमेशा मोदी के साये में काम करने वाले औपचारिक वित्तमंत्री की तरह ही देखा गया. लेकिन कई बड़े फैसलों में सरकार ने यह जाहिर नहीं होने दिया. निर्मला अब तक के बजट में जो न कर पाईं, वो काम सितंबर 2019 में हुआ. कॉर्पोरेट टैक्स 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया गया. नई कंपनियों के लिए रेट 25 से घटकर 15 फीसदी हो गया. इसका असर अब कंपनियों के मुनाफे पर दिख रहा है.
लेकिन निर्मला के लिए चुनौतियां बाकी थीं. जीडीपी में सबसे ज्यादा योगदान देने वाला इनफॉर्मल सेक्टर पहले से ही तंग था, कोरोना महामारी ने 1.2 करोड़ लोगों की रोजी-रोटी छीन ली. किसानों की आमदनी दोगुना करते-करते मोदी सरकार किसानों की ही आंख की किरकिरी बन गई. ऐसे में पिछले और आने वाले बजट के लिए भी सरकार की चुनौती इसी सेक्टर को साधने की हो चली है. लेकिन बजट के नजरिए से सरकार के लिए एक राहत की बात यह है कि टैक्स रेवेन्यू में अच्छी खासी तेजी आई है. ये उसके पिछले सुधारों और आर्थिक पैकेज का नतीजा भी बताया जा रहा है.

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