मूवी रिव्यू: झुंड
'झुंड' में एक्टिंग अच्छी है, कास्टिंग बढ़िया है.
नागराज मंजुले. मराठी सिनेमा का बड़ा नाम. अब तक सिर्फ दो ही फीचर फ़िल्में डायरेक्ट की हैं लेकिन वो दोनों ही इतनी कमाल रहीं कि नागराज मंजुले का एक नया ब्रांड ही स्थापित हो गया. उनकी फिल्मों की डिटेलिंग, सब्जेक्ट का चयन, हार्ड हिटिंग सोशल कमेंट्री, कैमरा एंगल्स, म्यूज़िक सब कुछ इतना आला दर्जे का रहा करता है कि महज़ उनके नाम से लोग फिल्म का टिकट कटवा लें. और यही वजह रही कि महज़ दो फिल्म पुराने मराठी फिल्म डायरेक्टर को हिंदी वाले ससम्मान अपने यहां ले आए. बड़ा प्रोजेक्ट मिला. सदी के महानायक कहलाने वाले अमिताभ को बतौर लीड लिया गया. और प्रॉडक्ट सामने आया 'झुंड' के रूप में. तो क्या नागराज मंजुले का फेमस मिडास टच 'झुंड' को 'फैंड्री' या 'सैराट' जैसी उंचाइयों पर ले जाने में कामयाब रहा? या फिर 'झुंड', 'नाम बड़े और दर्शन छोटे' का इश्तेहार बनकर रह गई? आइए बात करते हैं. # 'किस्मत के मारों का, जलते अंगारों का झुंड' 'झुंड' की कहानी के केंद्र में है नागपुर शहर की एक झोपड़पट्टी. यहां रहने वाले कुछ युवाओं को फुटबॉल खेलना पसंद है. लेकिन जीवन इतना आसान है नहीं कि वो गोल गेंद और उसे बेफिक्र होकर किक मारने का मौका मयस्सर हो सके. तो क्या करते हैं? प्लास्टिक के डिब्बे को ही फुटबॉल समझकर खेलते रहते हैं. नंगे पैर. एक बरसते दिन उनका ये खेल प्रोफ़ेसर विजय बोराडे की निगाहों से गुज़रता है. प्रोफ़ेसर साहब प्रतिभा को पहचानते हैं. वो इन बच्चों में खेल के लिए जुनून पैदा करने के मिशन पर चल पड़ते हैं.
लालच, नसीहत, मदद जैसे तमाम उपायों के सहारे वो इस 'झुंड' को 'टीम' में बदलते हैं. लेकिन... क्या झोपड़पट्टी का नारकीय जीवन इन बच्चों के सपनों को पनपने के लिए ज़मीन मुहैया करा पाएगा? कोई ख्वाब देखना अलग बात है लेकिन उसे हकीक़त में बदलने के लिए ज़रूरी इच्छाशक्ति और उससे ज़रूरी संसाधन कहां से आएंगे? क्या विषमताओं से लबरेज़ इस झुंड को उनका रहनुमा किसी मंज़िल तक पहुंचा पाएगा? इन सब सवालों का जवाब जानने के लिए आपको टिकट के पैसे और जीवन के पूरे तीन घंटे खर्च करने पड़ेंगे. # कितना प्रभावित करता है ये 'झुंड'? जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि इस फिल्म से बेशुमार उम्मीदें थीं. यहां तक कि पिछले कुछ अरसे से अमिताभ बच्चन की फिल्मों में एकरसता की शिकायत करने वाले दर्शक तक इसे लेकर उत्सुक थे. कि नागराज मंजुले की फिल्म है तो कुछ तो अच्छा ज़रूर हाथ लगेगा. यूं आसमानी उम्मीदें लेकर फिल्म देखने गया मेरे जैसा दर्शक, जब एक क्लीशे से लबरेज़ फिल्म देखता है, तो यकीनन निराशा तो होती ही है. दिल से बुरा भी लगता है. ऐसा नहीं है कि ये फिल्म सिरे से खारिज करने लायक है. लेकिन ये बात भी उतनी ही सच है कि ये नागराज मंजुले ब्रांड का सिनेमा तो कतई नहीं है. आइए विस्तार से बात करते हैं.
मैं बुरी तरह ट्रोल किए जाने का ख़तरा उठाकर ये बात कहना चाहता हूं कि मुझे फिल्म के कुछेक सीन्स छोड़कर कुछ भी नया या अनोखा नहीं नज़र आया. फिल्म अपनी कोर कहानी भी ढंग से डिसाइड नहीं कर पाती. इस बात को लेकर तक कोई क्लैरिटी नहीं है कि ये प्रोफ़ेसर विजय बोराडे के मसीहा बनने की कहानी है, या झोपड़पट्टी की अभाव भरी ज़िंदगी से लड़-भिड़कर अपनी जगह बनाने की कोशिश में लगे युवाओं की. फिल्म दोनों चीज़ें साधने की कोशिश करती है और दोनों ही काम ढंग से नहीं हो पाते. # लफड़ा झाला.. खरचं इस तरह की स्पोर्ट्स बेस्ड फ़िल्में अब हिंदी सिनेमा के दर्शकों के लिए कोई नई बात नहीं. अंडरडॉग्स के सुपर अचीवर बनने की कहानी भी हम दर्जनों बार देख चुके. गरीब-गुरबा का मसीहा बनने वाले लोगों का महिमामंडन भी बड़ा परदा कई-कई बार कर चुका. स्लम्स के चक्कर तो हर साल-दो साल में लगाती ही है फिल्म इंडस्ट्री. तो बेसिकली लगभग हर एक फ्रेम देखा-देखा सा लगता है. चाहे वो खिलाड़ियों की पर्सनल ट्रेजेडी हो, या फुटबॉल मैच का फिल्मांकन. आपको 'गली बॉय', 'चक दे इंडिया', 'गोल' जैसी फिल्मों की याद आती रहती है. ऊपर से फिल्म इतनी लंबी है कि दर्शक के सब्र का पैमाना कई-कई बार छलक जाता है.
फिल्म के कई किरदार आधे-अधूरे से लिखे हुए लगते हैं. कोई कैरेक्टर आर्क नहीं नज़र आता. अमिताभ की समाजसेवा से बुरी तरह चिढ़ रखता उनका बेटा एक दिन गर्व से भरा वापस आता है. पिता के काम को सराहने के पीछे का भाव भले ही समझ आ जाए, इस बात की एक्सप्लेनेशन नहीं मिलती कि इसके लिए नौकरी छोड़ने की क्या ज़रूरत थी? इसी तरह ट्रेन के आगे आत्महत्या करने पहुंच चुका एक लड़का आखिरी लम्हे इरादा बदल देता है. वहां से निकलता है तो उस मैदान पर लैंड होता है, जहां फुटबॉल का टूर्नामेंट चल रहा है. ईश्वरीय चमत्कार ऐसा कि एक टीम का गोलकीपर उपलब्ध नहीं है और वो टीम वाले इनको खिला भी लेते हैं. फिर आगे उनका करिश्माई प्रदर्शन तो आना ही था. दिक्कत वो नहीं है. दिक्कत ये है कि इस बंदे की कोई कहानी हमें पता चलती ही नहीं. कौन है, कहां से आया है, मरना क्यों चाहता था, इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं. क्लाइमैक्स में पुलिसवाले का ह्रदयपरिवर्तन क्यों हुआ? कोई स्पष्टीकरण नहीं. बॉलीवुड के मसालों का इतना ही छौंका लगाना था तो नागराज मंजुले को क्यों लाया गया? कोई स्पष्टीकरण नहीं. # अच्छा क्या है फिर? जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि फिल्म मुकम्मल तौर से खारिज करने लायक तो खैर नहीं है. कुछेक चीज़ें अच्छी हैं. इन चीज़ों की लिस्ट में सबसे पहला नंबर है अजय-अतुल के संगीत का. इस फ्रंट पर फिल्म लिटरली स्कोर करती है. फिल्म के तमाम गाने उम्दा हैं. चाहे टाइटल ट्रैक हो, 'लफड़ा झाला' गाना हो या सॉफ्ट मोटिवेशनल सॉंग 'बादल से दोस्ती'. अजय-अतुल ने हर फ्री किक को गोल में तब्दील करके दिखाया है. अमिताभ भट्टाचार्य के लिखे लिरिक्स कई जगह ज़बरदस्त इम्पैक्ट पैदा करते हैं.
दूसरी अच्छी चीज़ है फिल्म में भाषा की ओरिजिनैलिटी. महाराष्ट्र में बसे लोग जिस तरह की हिंदी बोलते हैं, वो बड़े जेन्युइन ढंग से डायलॉग्स में पिरोई गई है. यहां नागराज मंजुले की उपस्थिति महसूस होती है. घमेला जैसे शब्द ऐसा ही कोई बंदा बोल सकता है, जो महाराष्ट्र में रहा हो. बांसुरी को बासरी कहना भी टिपिकल महाराष्ट्रियन आदमी की हिंदी है. इस फ्रंट पर फिल्म ट्रू टू स्क्रिप्ट लगती है. सेकंड हाफ में कुछेक सीन्स खिलाड़ियों की कागज़ से जुड़ी जद्दोजहद वाले हैं. पासपोर्ट बनना है लेकिन नागरिकता साबित करता कोई पेपर है ही नहीं. उन्हें हासिल करने का संघर्ष इंटरेस्टिंग है. यहां भी आपको नागराज मंजुले के फुटप्रिंट्स मिल जाएंगे. लेकिन बस थोड़े ही समय के लिए. # एक्टर्स का काम कैसा रहा? एक्टिंग के फ्रंट पर भी ज़्यादा नुक्स नहीं निकाले जा सकते. अमिताभ तो खैर इस तरह के रोल्स को नींद में भी कर सकते हैं. स्लम से आया गिरोह भी बढ़िया एक्टिंग कर जाता है. उन सबकी कास्टिंग अच्छी है काफी. 'झुंड' के सरदार का रोल करने वाले एक्टर में काफी संभावनाएं हैं. उन्हें आगे भी देखना चाहेंगे लोग. किशोर कदम, छाया कदम जैसे सीनियर एक्टर्स भी अपना रोल आसानी से निभा ले जाते हैं. सैराट की फेमस जोड़ी आकाश ठोसर और रिंकू राजगुरु को ज़्यादा स्पेस तो नहीं मिला, लेकिन जितना मिला उतने में ठीक लगे हैं दोनों. हालांकि आकाश का किरदार को भी ज़्यादा स्पष्टता से लिखने की ज़रूरत महसूस हुई. रिंकू एकदम बढ़िया हैं. कुल मिलाकर 'झुंड' में एक्टिंग अच्छी है, कास्टिंग बढ़िया है, डायरेक्टर अच्छा है लेकिन एक पैकेज के तौर पर फिल्म के पास नया कुछ भी नहीं है. फिल्म 'फैंड्री' या 'सैराट' के आसपास भी नहीं पहुंचती. ऐसे में उतनी ऊँची उम्मीदें लेकर पहुंचा दर्शक ठगा सा महसूस करता है. बाकी रिव्यू आपके हवाले है और फिल्म सिनेमाघरों में. खुद देखिए, तय कीजिए. फिर नोट्स एक्सचेंज करने आइएगा. वैसे भी मेरा हमेशा से मानना रहा है कि फिल्म देखकर पछताना ज़्यादा बेहतर होता है.