प्रिय पाठको, आज एक कविता रोज़ में बातें विद्यापति की. भारतीय साहित्य में भक्त कवियों की एक सुंदर धारा है. इसी धारा में एक बहुत जरूरी कवि थे मैथिली भाषा के विद्यापति. मैथिली के अलावा संस्कृत और अपभ्रंश के भी जानकार थे विद्यापति. इसलिए ही इनकी रचनाएं इन भाषाओँ में भी हैं. सुंदरता और भक्ति को जीने वाले विद्यापति ने ‘पदावली’ और ‘कीर्तिलता’ जैसी क्लासिक कृतियां रचीं. तुलसी, सूर, कबीर, मीरा सभी से पहले के कवि हैं विद्यापति. अमीर खुसरो जरूर उनसे पहले हुए जिन पर हम कल बात करेंगे. कवियों की क्या जाति, लेकिन फिर भी कहते हैं कि विद्यापति ठाकुर थे. उनसे जुड़े तमाम किस्से हैं जो बहुत रियलिस्टिक नहीं लगते. लेकिन यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि विद्यापति बचपन से ही कविता करने लगे थे और बचपन में ही वह अपने एरिया में बहुत मशहूर भी हो गए थे. यों तो महाकवियों का पूरा जीवन ही किंवदंतियों से भरा होता है. सो विद्यापति का भी था. उनकी मृत्यु भी किंवदंतियों से परे नहीं है. कहते हैं कि खुद उन्होंने अपनी मृत्यु का साक्षात्कार किया. अपने लोक को जीवन के हर पक्ष के लिए कविता देने वाले विद्यापति के सम्मान में डाक टिकट तो बहुत छोटी चीज है, लेकिन इसका क्या करें कि वह जारी किया जा चुका है. *
अब पढ़िए विद्यापति का यह पद : सखि हे, आज जाएब मोहि।
घर गुरुजन डर न मानब, बचन चूकब नहि॥
चानन आनि आनि अंग लेपब, भूषन कए गजमोति।
अंजन बिहुन लोचन-जुगुल, धरत धबल जोति॥
धबल बसने तनु झंपाओब, गमन करब मंदा।
जइओ सगर गगन ऊगत, सहस सहस चंदा॥
न हम काहुक डीठि निबारब, न हम करब भीति।
अधिक चोरी पर सएं करिअ, एहे सिनेहक रीति॥
भन विद्यापति सुनह जुबती, साहसे सफल काज।
बूझ सिबसिंह रस रसमय, सोरम देबि समाज॥ इसका पद का एक सामान्य अर्थ हमारे एक कविहृदय-आलोचक साथी सुशील सुमन के शब्दों यह है :
नायिका कह रही है कि आज मैं अभिसार यानी अपने प्रिय से मिलने के लिए जरूर जाऊंगी. घर के बड़े-बूढ़ों का आज डर नहीं मानूंगी. किसी भी कीमत पर आज अपने वचन से नहीं फिरूंगी. अपनी देह पर आज चंदन का लेप करूंगी मोती और हाथी-दांत से बने आभूषणों को धारण करूंगी. अपनी आंखों को काजल से सजाऊंगी. सफेद वस्त्र धारण कर धीमे कदमों से प्रिय से मिलने जाऊंगी, जब आकाश में चांद पूरी तरह उग आएगा, तब न मैं किसी की नजर लगने से घबराऊंगी, न ही किसी से डरूंगी. ऐसे चोरी-चोरी पहुंचने पर प्रियतम मुझे और प्रेम करेंगे. कवि विद्यापति इस युवा नायिका के साहस और उसके सफल अभिसार का प्रसंग इस गीत के माध्यम से राजा शिवसिंह और उनकी रानी को सुना रहे हैं, जिसे सुनते हुए वे दोनों और पूरा सहृदय समाज रसमय हो रहा है. विद्यापति का एक और पद कुछ यों है : कुंज भवन सनये निकसलि रे रोकल गिरिधारी।
एकहि नगर बसु माधव हे जनि करु बटमारी॥
छोड कान्ह मोर आंचर रे फाटत नब सारी।
अपजस होएत जगत भरि हे जानि करिअ उधारी॥
संगक सखि अगुआइलि रे हम एकसरि नारी।
दामिनि आय तुलायति हे एक राति अन्हारी॥
भनहि विद्यापति गाओल रे सुनु गुनमति नारी।
हरिक संग कछु डर नहि हे तोंहे परम गमारी॥ इस पद को हमारे प्यारे कवि बाबा नागार्जुन के अनुवाद में समझिए :
कुंज भवन से निकली ही थी कि गिरधारी ने रोक लिया. माधव, बटमारी मत करो, हम एक ही नगर के रहने वाले हैं. कान्हा, आंचल छोड़ दो. मेरी साड़ी अभी नई-नई है, फट जाएगी. छोड़ दो. दुनिया में बदनामी फैलेगी. मुझे नंगी मत करो. साथ की सहेलियां आगे बढ़ गई हैं. मैं अकेली हूं. एक तो रात ही अंधेरी है, उस पर बिजली भी कौंधने लगी - हाय, अब मैं क्या करूं? विद्यापति ने कहा, तुम तो बड़ी गुणवती हो. हरि से भला क्या डरना. तुम गंवार हो. गंवार न होती तो हरि से भला क्यों डरतीं... तो ये थे कवि विद्यापति और उनके दो पद.
शारदा सिन्हा के गायन में विद्यापति को यहां सुन भी सकते हैं : https://www.youtube.com/watch?v=6y_QVRUFTpk ***
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