अल्लामा इकबाल की ग़ज़ल
सच कह दूं ऐ बरहमन गर तू बुरा न माने तेरे सनमक़दों के बुत हो गए पुराने
सच कह दूं ऐ बरहमन गर तू बुरा न माने तेरे सनमक़दों के बुत हो गए पुराने
अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने
तंग आके आख़िर मैंने दैर-ओ-हरम को छोड़ा वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है
आ ग़ैरत के पर्दे इक बार फिर उठा दें बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
दुनिया के तीरथों से ऊंचा हो अपना तीरथ दामान-ए-आस्मां से इस का कलस मिला दें
हर सुबह मिल के गाएं मंतर वो मीठे मीठे सारे पुजारियों को मै पीत की पिला दें
शक्ति भी शांति भी भक्तों के गीत में है धरती के बासियों की मुक्ती प्रीत में है