The Lallantop

'ख़तरा है गिरती हुई दीवारों को सदियों के बीमारों को'

एक कविता रोज में आज पढ़िए हबीब जालिब की ग़ज़ल खतरे में इस्लाम नहीं.

Advertisement
post-main-image
फोटो - thelallantop

खतरे में इस्लाम नहीं हबीब जालिब

ख़तरा है जरदारों को गिरती हुई दीवारों को सदियों के बीमारों को ख़तरे में इस्लाम नहीं सारी ज़मीं को घेरे हुए हैं आख़िर चंद घराने क्यों नाम नबी का लेने वाले उल्फ़त से बेगाने क्यों ख़तरा है खूंखारों को रंग बिरंगी कारों को अमरीका के प्यारों को ख़तरे में इस्लाम नहीं आज हमारे नारों से लज़ी है बया ऐवानों में बिक न सकेंगे हसरतों अमों ऊंची सजी दुकानों में ख़तरा है बटमारों को मग़रिब के बाज़ारों को चोरों को मक्कारों को ख़तरे में इस्लाम नहीं अम्न का परचम लेकर उठो हर इंसां से प्यार करो अपना तो मंशूर है ‘जालिब’ सारे जहाँ से प्यार करो ख़तरा है दरबारों को शाहों के ग़मख़ारों को नव्वाबों ग़द्दारों को ख़तरे में इस्लाम नहीं
  (राजकमल प्रकाशन ने हबीब जालिब की प्रतिनिधि शायरी छापी है. ये ग़ज़ल वहीं से साभार है.) एक कविता रोज़: दिसंबर और भूलने की कविताएं

Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement