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'यातना देने के काम आती है देह'

आज एक कविता रोज़ में पढ़िए देवी प्रसाद मिश्र की कुछ बिल्कुल नई कविताएं.

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फोटो - thelallantop

सहने की जगह ही कहने की जगह है... यों मानने वाले देवी प्रसाद मिश्र की कविता इस दुनिया में बहुत कुछ खोकर अपनी खुराक जुटाती आई है. समकालीन हाहाकार में उनकी कविता की आवाज बर्बरता के विरुद्ध सबसे मूलगामी और प्रतिबद्ध आवाज है. एक पतनशील वक्त में जब क्रूरता पर हंसने का चलन शुरू हुआ है और साथियों की शिनाख्त मुश्किल हो चली है, अत्याचारी कहीं से भी निकल कर सामने आ रहे हैं. उनके हथियार और तरीके अब बिल्कुल नए हैं. इस दृश्य में देवी एक पुराने यकीन, एक पुरानी उम्मीद और कुछ पुरानी लेकिन सदा प्रासंगिक मांगों के साथ एक बिल्कुल नई राह पर हैं. यातना, क्रूरता और बर्बरता के नए संस्करणों के मध्य देवी प्रसाद मिश्र की ये बिल्कुल नई कविताएं हैं— सहने की जगह को, कहने की जगह बनाती हुईं...

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आज एक कविता रोज़ में पढ़िए इन्हें ही :

कोई और

हमने कांग्रेस-जनसंघ-संसोपा-भाजपा-सपा-बसपा-अवामी लीग-लोकदल-राजद-हिंदू महासभा-जमायते इस्लामी वगैरह वगैरह के लोंदों से जो बनाया वह भारतीय मनुष्य का फौरी पुतला है मुझे भूरी-काली मिट्टी का एक और मनुष्य चाहिए मुझे एक वैकल्पिक मनुष्य चाहिए.

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यातना देने के काम आती है देह

देह प्रेम के काम आती है. वह यातना देने और सहने के काम आती है. देह है तो राज्य और धर्म को दंड देने में सुविधा होती है पीटने में जला देने में आत्मा को तबाह करने के लिए कई बार देह को अधीन बनाया जाता है बाज़ार भी करता है यह काम वह देह को इतना सजा देता है कि उसे सामान बना देता है बहुत दुःख की तुलना में बहुत सुख से खत्म होती है आत्मा

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बर्बरता का समान वितरण

राज्य संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के अनुरूप आय का समान वितरण न कर सका तो उसने क्रूरता का समान वितरण कर दिया जो मुझे सड़क पर मारने आता है वह कुछ वैसा ही बर्बर है जो मुझे नहीं बचाता वह अधिक बर्बर है मेरे पास वहां से निकल भागने की कातर हिंसा है मैं उसका इस्तेमाल शायद अपनी स्त्री के विरुद्ध करूंगा पारस्परिक क्रूरता की यह बहुत लंबी रात है जहां नागरिकता नहीं राज्य का कोई तिलिस्मी स्थापत्य सुरक्षित है

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एक कम क्रूर शहर की मांग

मुझे साफ पानी और कम क्रूरता वाला शहर चाहिए जहां अगर कोई हमला करने आए तो बचाने के लिए बगल वाला आए. वह न आए तो उसके बगल वाला आए और अगर वह भी न आए तो पूरे शहर में चर्चा शुरू हो जाए कि देखो आजकल आदमी को बचाने आदमी कैसे नहीं आता. मुझे मॉल और दलाल वाला स्मार्ट सिटी नहीं चाहिए मुझे ऐसा शहर नहीं चाहिए जहां रामदास को मालूम हो कि रामदास की हत्या होगी. जहां मारकेज़ के पात्र को पहले से ही न मालूम हो कि वह किस तरह मरेगा. मुझे वह शहर नहीं चाहिए कि जहां आदमी को पहले से मालूम हो कि हिंसा होगी और दीनता टी.वी. पर दिखेगी और उसकी विपत्ति पर अख़बार में जो रिपोर्ट लिखी जाएगी उसकी हिंदी में भाषा नहीं होगी और करुणा नहीं होगी और अजनबीपन होगा और यह डर होगा कि उत्पीड़ित के अंधेरे पर लिखना अपराधी के उन्माद पर लिखना है.

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