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Paris Olympics के पहले से ही अविनाश साबले हीरो हैं, उनकी कहानी जान आप भी यही कहेंगे

पेरिस ओलंपिक्स में अविनाश साबले ने इतिहास रच दिया. वे 3000 मीटर की स्टीपचेज के फाइनल में पहुंचने वाले पहले भारतीय पुरुष खिलाड़ी बन गए हैं. यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया है.

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फाइनल में पहुंच बनाया इतिहास (तस्वीर : AP)

पेरिस ओलंपिक्स में 5 अगस्त के दिन महाराष्ट्र से आने वाले अविनाश साबले ने इतिहास रच दिया. अविनाश 3000 मीटर की स्टीपलचेज के फाइनल में पहुंच गए हैं. उन्होंने इस रेस को 8 मिनट 15.45 सेकंड में पूरा किया. ये रेस कुछ बाधाओं के साथ दौड़ी जाती है. अविनाश ऐसा करने वाले पहले भारतीय पुरुष खिलाड़ी बन गए हैं. देश को उनसे अब मेडल की उम्मीद है. स्टीपलचेज का फाइनल मैच 8-9 अगस्त रात 1 बजे के करीब शुरू होगा. अविनाश साबले मेडल ला सकते हैं, लेकिन अगर नहीं भी लाते तो भी वो हीरो हैं. उनके संघर्ष की कहानी जान कर आप भी यही कहेंगे.

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अविनाश साबले की कहानी

अविनाश का जन्म 13 सितंबर 1994 के दिन महाराष्ट्र के बीड जिले के मंडवा गांव में हुआ था. उनके माता-पिता वैशाली और मुकुंद साबले ईट भट्टे का काम करते थे. अविनाश तीन भाई बहनों में सबसे बड़े हैं. BBC हिंदी की खबर के मुताबिक अविनाश के माता-पिता सुबह ही काम पर चले जाते, जिसके बाद वो रात में ही वापस आते. उनकी मेहनत को देख अविनाश ने बचपन में ही अपने घर के हालात को बदलने की ठान ली थी.

अविनाश का स्कूल घर से 6-7 किलोमीटर की दूरी पर था. वे अक्सर स्कूल पहुंचने में लेट हो जाते. इस कारण दौड़ कर स्कूल जाया करते. कुछ दिन बाद उन्हें इस काम में मजा आने लगा. फिर एक दिन शिक्षकों की नजर उन पर पड़ी. अविनाश के दौड़ने का तरीका उनको भा गया. शिक्षकों ने अविनाश की रेस उनके सीनियर के साथ कराई. अविनाश ने आसानी से उन्हें हरा दिया. इसके बाद शिक्षक उनके स्पोर्ट्स पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया.

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9 साल की उम्र में अविनाश ने अपनी पहली रेस जीती. 500 मीटर की रेस में जीतने पर उन्हें 100 रुपये का इनाम मिला. इसके बाद उन्होंने कई मैराथन में हिस्सा लिया और जीते. अविनाश पढ़ाई में भी ध्यान देते. इससे वे शिक्षकों के चहेते भी थे. लेकिन उनकी माली हालत खराब थी. इसलिए शिक्षकों ने उन्हें महाराष्ट्र क्रीडा प्रबोधिनी में जाने की सलाह दी. इससे उनकी शिक्षा मुफ्त हो जाती लेकिन ऐसा ज्यादा समय तक हो नहीं पाया.

महाराष्ट्र क्रीडा प्रबोधिनी

अविनाश ने सातवीं कक्षा के दौरान महाराष्ट्र क्रीडा प्रबोधिनी की परीक्षा दी. यही एक तरीका था जिससे वे अपनी पढ़ाई और ट्रेनिंग को जारी रख पाते. अविनाश ने ये परीक्षा पास कर ली. लेकिन समस्या उनकी हाइट के साथ थी, अविनाश हाइट में छोटे थे. इस कारण वे एकेडमी में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए. लगातार खराब प्रदर्शन के कारण उन्हें प्रबोधिनी से बाहर होना पड़ा. अविनाश पढ़ाई और खेल दोनों से हाथ गंवा चुके थे. 

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अविनाश की पढ़ाई का भार वापस उनके मां-बाप के ऊपर आ गया. उन्होंने तय किया कि वे उनकी मदद करेंगे. लेकिन अविनाश के साथी आगे की पढ़ाई कर रहे थे. ये देख उनके मां-बाप से रहा नहीं गया. उन्होंने जमीन बेच कर बेटे को आगे की पढ़ाई जारी रखने की सलाह दी. लेकिन अविनाश ने इससे इनकार कर दिया. इसके बजाय वे अपने चाचा के साथ मिस्त्री का काम करने लगे. अविनाश सुबह का समय पढ़ाई को देते और दिन में मजदूरी करते. दूसरे मजदूरों की अपेक्षा कम समय देने के कारण उन्हें 150 की जगह केवल 100 रुपये ही मजदूरी मिलती. 

सेना में भर्ती

लेकिन 12वीं के बाद किस्मत ने अविनाश को एक और मौका दिया. वे सेना की भर्ती में पास हो गए. सेना की कठिन ट्रेनिंग ने उन्हें और मजबूत बनाया. कभी वे सियाचिन में तैनात रहे तो कभी राजस्थान में. पैसों की समस्या से भी निजात मिली. सेना में रहते हुए उन्होंने दोबारा अपने खेल पर फोकस किया. अविनाश नेशनल क्रॉस कंट्री रेस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया. इस रेस में वे 5th पोजीशन पर आए.

अविनाश हर प्रतियोगिता में हिस्सा लेते. इस दौरान उनकी मुलाकात कोच अमरीश कुमार से हुई. अमरीश ने अविनाश की खूबियों को पहचानते हुए उन्हें 5 या 10 हजार मीटर की दौड़ की बजाय स्टीपलचेज में हिस्सा लेने की सलाह दी. अविनाश ने भी ऐसा ही किया. अविनाश स्टीपलचेज में कमाल दिखाने लगे. एक के बाद एक उन्होंने 9 रिकॉर्ड बनाए.

क्या होता है स्टीपलचेज?

इस दौड़ में खिलाड़ियों को कुछ बाधाओं का सामना कर रेस को पूरा करना होता है. अविनाश 3000 मीटर की दौड़ में हिस्सा लेेते हैं. इस रेस में कुल 5 हर्डल होते हैं. जिनमें से 4 हर्डल 30 इंच के होते है. और 1 वाटर पिट होता है. खिलाड़ियों को इसे पार कर रेस को जीतना होता है. इस खेल के फाइनल में तीन रेस होती हैं. हर रेस में 5 खिलाड़ी भाग लेते हैं. इस तरह इस खेल के फाइनल में कुल 15 खिलाड़ी पहुंचते हैं.

स्टीपलचेज के हर्डल को पार करते हुए अविनाश साबले (तस्वीर : PTI)
स्टीपलचेज के हर्डल को पार करते हुए अविनाश साबले (तस्वीर : PTI)
अच्छा खेल दिखाने के बाद भी पैसे की तंगी  

वापस अविनाश पर आते हैं. अच्छा खेल दिखाने के बाद भी उनको पैसे की तंगी से गुजरना पड़ता. अपनी सैलरी का बड़ा हिस्सा वे घर भेज दिया करते. इससे निपटने के लिए वो मैराथन में दौड़ते. इन्हीं पैसों से अपनी ट्रेनिंग जारी रखते. अविनाश ने 61 मिनट से भी कम समय में हाफ मैराथन को पूरा किया है, वे ऐसा करने वाले वे इकलौते भारतीय खिलाड़ी हैं.

पहला इंटरनेशनल गेम

साल 2019 में अविनाश पहली बार इंटरनेशनल गेम में हिस्सा लिया. मौका था दोहा की एशियन एथलेटिक्स चैम्पियनशिप. यहां उन्होंने दो सिल्वर मेडल अपने नाम किए. यहीं से वे टोक्यो ओलंपिक्स भी क्वालिफाई कर गए.

इसके बाद वे साल 2022 में बर्मिंघम में कॉमनवेल्थ खेलों में सिल्वर मेडल जीते. साथ ही एक नेशनल रिकॉर्ड अपने नाम किया. साल 2022 में अविनाश को अर्जुन अवॉर्ड से सम्मानित किया गया.

अब इस बार के फाइनल में सबकी निगाहें अविनाश पर है. अविनाश के माता पिता खेल के बारे में ज्यादा नहीं जानते, लेकिन उनका पूरा समर्थन करते हैं. इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक अविनाश का परिवार फाइनल मैच के लिए बड़ी स्क्रीन लगाने की तैयारी कर रहा है जिससे पूरा गांव अविनाश को मेडल जीतता देख सके. गांव में उनका नया घर भी बनकर तैयार है, जिसे अविनाश के वापस आने पर पहली बार खोला जाएगा.

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