एक कविता रोज़ में पढ़िए अभिषेक शुक्ल की गज़ल
बिछड़ना शर्त था फिर हम पे भी खुला इक रोज़/ज़ियादः फ़र्क़ नहीं शाम में, सवेरे में

अभिषेक शुक्ल का पहला काव्य संग्रह 'हर्फ़-ए-आवारा' 2020 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था.
कहने-सुनने का दौर हो तो गज़ल के आगे सभी पानी कम मालूम होते हैं. कहते हैं कि गज़ल लिखने वालों की उमर को उसे गाने वाले और लम्बी कर देते हैं. कई-कई बार तो ऐसा होता है कि गज़ल हमें मुंहज़बानी याद होती है और अचानक किसी दिन इंटरनेट पर दिन काटते हुए पता चलता है कि अरे ये गज़ल तो अहमद फ़राज़ ने लिखी है. ये कहते ही अपनी उम्र गुज़ारने के बाद भी अहमद फ़राज़ थोड़ा और जी लेते हैं. एक कविता रोज़ में आज हम आपके लिए एक गज़ल लेकर आए हैं. गज़ल लिखी है अभिषेक शुक्ल ने. उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर में जन्मे अभिषेक ने लखनऊ विश्वविद्यालय से पढ़ाई की. पिछले 10 -15 वर्षों के बीच जिन लोगों ने ग़ज़ल के मैदान में अपनी छाप छोड़ी है, उनमें अभिषेक शुक्ल एक अहम नाम हैं. नए लिखने वालों के लिए एक रोल मॉडल के तौर पर भी देखे जाते हैं. उन पहला काव्य संग्रह 'हर्फ़-ए-आवारा' 2020 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था. गज़लें लिखने के अलावा अभिषेक शुक्ल भारतीय स्टेट बैंक में काम करते हैं. एक कविता रोज़ में पढ़िए अभिषेक शुक्ल की गज़ल - मुझे चराग़ कहा उसने जिस अंधेरे में
सियाह पड़ गए ख़ुर्शीद उसके फेरे में ज़माना माल ए ग़नीमत समझ के ले जाता
निगाह ए यार न लेती जो अपने घेरे में मैं ख़्वाब ख़्वाब जला हूं क़सम उन आंखों की
दिखाई देता है सब कुछ मुझे अंधेरे में शिकस्ता बीनों का अम्बार जब हटा तो दिखा
कि एक सांप भी रहता है उस सपेरे में तेरे बदन से उठी आंधियों का इस्तक़बाल
फ़िराक़ नाम की मिट्टी के इस बसेरे में कोई भी जाल बरामद न कर सका उनको
छुपी हुई थीं कुछ इक मछलियां मछेरे में इधर लुटा मैं उधर कायनात मुझको मिली
अजब ख़ज़ाना छुपा था मेरे लुटेरे में बिछड़ना शर्त था फिर हम पे भी खुला इक रोज़
ज़ियादः फ़र्क़ नहीं शाम में, सवेरे में मैं जानता हूं कि जप-जाप क्या है..ढोंग है क्या
कटी है उम्र मेरी जोगियों के डेरे में अभिषेक