याद आता है. इसमें स्मिता ने हिन्दी सिनेमा में फीमेल प्रेज़ेन्टेशन पर अपने महत्वपूर्ण विचार रखे हैं.
फिल्म 'चक्र' में स्मिता ने मुंबई के स्लम एरिया में रह रही एक साधारण महिला 'अम्मा ' का किरदार निभाया था. उस फिल्म में उनके नहाने का एक दृश्य है. उस सीन का ही एक मोमेंट फिल्म के पोस्टर में भी लगाया गया जिस पर देश भर में काफी चर्चा हुई थी. इंटरव्यू में जब स्मिता पाटिल से उस पोस्टर को लेकर सवाल किया गया था, तो उन्होंने कहा,
"एक औरत जो कि एक झुग्गी-झोपड़ी में रहती है, उसका (इस तरह) नहाना ये बहुत रोज़ की बात है. लेकिन आप रस्ते में रुकेंगे नहीं. ये भी नहीं सोचेंगे कि इनको रहने के लिए जगह नहीं है तो नहाने के लिए जगह कहां से मिलेगी... ये बात इंडियन ऑडियंस पर फोर्स की गई है कि देखिए जी इसमें तो सेक्स है, इसमें तो आधे नंगे शरीर हैं औरतों के, तो ये फिल्म देखने आइए."जब उनसे पूछा गया कि फिल्म इंडस्ट्री का यही कहना है कि पब्लिक इन चीजों को ही पसंद करती है. तो क्या इन फिल्मों को बेचने के लिए जरूरी है कि औरत को इस तरह प्रदर्शित किया जाए? इस पर स्मिता का जवाब है,
"आदमी को गलत चीज दिखाकर अगर उस पर उसको निर्भर किया जाए तो उसको वो चीज़ अच्छी लगने लगेगी ही."स्मिता के इस जवाब से मैं आपका ध्यान उन फिल्मों की तरफ ले जाना चाहती हूं जो लोकप्रिय स्टोरीलाइन या गानों के होते हुए भी हीरोइन के अंग प्रदर्शन के लिए याद की जाती हैं. सबसे पहले याद कीजिए 1985 में बनी 'राम तेरी गंगा मैली'. फिल्म ने उस साल लगभग हर कैटेगरी में फिल्मफ़ेयर अवॉर्ड जीते. लेकिन आज भी इस फिल्म को ज्यादातर लोग मंदाकिनी की एक पतली धोती पहने झरने के नीचे नहाने वाले सीन के लिए याद करते हैं.

राम तेरी गंगा मैली फिल्म में मंदाकिनी
समय से थोड़ा और पीछे जाइए और याद कीजिए 1978 में बनी ब्लॉकबस्टर 'सत्यम शिवम सुंदरम' को. एक अच्छी स्टोरी और सुपरहिट गानों के बावजूद क्या आज भी उस फिल्म का नाम सुनते आपके ज़ेहन में ज़ीनत अमान की बोल्ड ड्रेसिंग नहीं तैर जाती?

फ़िल्म सत्यम शिवम सुंदरम में ज़ीनत अमान
खैर ये तो वे फिल्में हैं जिनके पास ऑडियंस को दिखाने के लिए स्त्री देह के अलावा एक अच्छी स्टोरी लाइन भी होती थी. लेकिन इन फिल्मों के बाद हिन्दी सिनेमा में औरतों के अनावश्यक अंग प्रदर्शन का चलन इतनी तेजी से चला कि अब बेवजह भी ऐसे सीन और पोस्टर बनाए जाने लगे. इंटरव्यू में ऐसी फिल्मों को 'फॉर्मूला फ़िल्म' कहते हुए आगे स्मिता कहती हैं,
"फिल्म अगर सच्चे दिल से एक बात कह रही है तो फिल्म चलेगी. सिर्फ ऐसे पोस्टर से फिल्म चलती नहीं है. लेकिन एक बेसिक एक्सप्लॉयटेशन है ऐसी फिल्मों का."आगे वो कहती हैं,
"हीरो को तो नंगा दिखा नहीं सकते. उससे तो कुछ होने वाला नहीं है. औरत को नंगा दिखाया तो उनको लगता है सौ और लोग आ जाएंगे."मामला सिर्फ पोस्टरों में औरतों को सेमी न्यूड फॉर्म में दिखाने का नहीं है. न्यूडिटी का इस्तेमाल कहानी में वैल्यू जोड़ने के लिए किया जाए तो वाजिब लगता है. याद कीजिए टाइटेनिक फिल्म का वो दृश्य जिसमें स्कैच बनवाने के लिए केट वेंसलेट ने अपने सारे कपड़े उतार दिए थे. फिल्म में ऐसा दृश्य होने के बावजूद उसे पोस्टरों का हिस्सा नहीं बनाया गया. ये मामला बॉडी एक्सप्लॉयटेशन से कहीं अधिक सिनेमा में फीमेल कैरेक्टर्स की प्रस्तुति का भी है.

टाइटेनिक फ़िल्म में केट विंसलेट
इस बारे में पूछे जाने पर कि क्या औरत का कमज़ोर व्यक्तित्व दिखाने से इन फिल्मों का औरतों और समाज पर भी असर पड़ रहा है, स्मिता का जवाब था,
"ये कंडीशनिंग औरतों का बहुत बरसों से किया गया है, कि जो सफरिंग, पतिव्रता औरत दिखाई जाती है, जो बहुत कमज़ोर है और जिसका भीतर का स्ट्रेंथ टूट गया है. औरतें ऐसी फिल्में देखकर खुद को जस्टिफाई कर लेती हैं. उनको लगता है कि जो स्क्रीन पर दिखाई गई है, उसने इतना सफर किया (दुख झेला) है और उसको उसका कुछ दाम मिल गया है तो मतलब मेरी जिंदगी में भी ऐसा हो सकता है."स्मिता का ये इंटरव्यू एक बार फिर याद दिलाता है कि एक बेहतरीन अदाकारा होने के अलावा वो महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर हमेशा बोल्ड स्टैंड रखने वाली जागरूक महिला थीं. शायद इसीलिए स्मिता पाटिल ने ज्यादातर ऐसी ही फिल्मों का चुनाव किया जहां औरतों की नॉन ग्लोरीफाइड, वास्तविक स्थिति दिखाई गई. चाहे वो 'मंथन' की बिंदु हो या 'मिर्च मसाला' की सोनबाई. उनकी पुण्यतिथि पर हमारी उन्हें श्रद्धांजलि.