जब मन उदास होता है, निराशा के बादल घेरने लगते हैं, लगातार मिल रही नाकामी के बाद कोशिश छोड़ने का मन करता है, तब कुछ लोग हमें प्रेरणा देते हैं. उनकी कहानियां हमसे कहती है कि रुको मत, हार मत मानो, अपना 100 फीसद देते रहो. कभी न कभी कामयाबी ज़रूर मिलेगी. और अगर न भी मिले तो इस बात का मलाल नहीं रहेगा कि हमने कोशिश बीच में ही छोड़ दी. हमें प्रेरणा देने वाली ऐसी ही कई कहानियां टोक्यो ओलंपिक्स से निकलकर सामने आई हैं. ऐसी ही कहानी है अदिति अशोक की. हम बताएंगे कि कैसे 23 साल की ये लड़की भारत में गोल्फ का चेहरा बदलने की काबिलियत रखती है. कैसे वो टोक्यो ओलंपिक्स में धीरे-धीरे, बड़े शांत तरीके से आखिरी स्टेज तक पहुंची. भले ही अदिति मेडल न जीत सकीं, लेकिन दिल ज़रूर जीत लिया.
190 साल से इंडिया में है गोल्फ, फिर ओलंपिक से पहले अदिति अशोक को क्यों नहीं जानते थे?
हमें अदिति को थैंक्यू कहना चाहिए

कौन हैं अदिति?
सबसे पहले बताते हैं कि अदिति हैं कौन? बेंगलुरु की रहने वाली हैं. साढ़े पांच साल की उम्र से गोल्फ खेल रही हैं. परिवार का इस खेल से कोई लेना-देना नहीं है. लेकिन फिर भी अदिति के साथ कुछ ऐसा हुआ कि गोल्फ से उनका उम्र भर का नाता जुड़ गया. हुआ यूं था कि जब अदिति साढ़े पांच साल की थीं. तब एक दिन वो, उनके पिता अशोक गुदलमणि और परिवार खाना खाने के लिए एक होटल में गए थे. वहां से निकले तो सामने ही कर्नाटक गोल्फ एसोसियशन का कोर्स था. अशोक अपने परिवार को लेकर वहां चले गए.
लोगों को शॉट लगाते हुए देखकर अशोक को बड़ा अच्छा लगा. उन्होंने अपनी बेटी को गोल्फ स्टिक पकड़ा दी और खेलने का सिलसिला शुरू हुआ. सुबह-दोपहर-शाम अदिति बस गोल्फ की प्रैक्टिस करतीं. जब वो 9 साल की थीं, तब अपना पहला टूर्नामेंट जीत लिया. और 12 साल की उम्र में उन्होंने टीम इंडिया के लिए खेलना शुरू कर दिया. उन्होंने पहले 12 साल अमेचर गोल्फ खेला. साल 2016 में उन्होंने प्रोफेशनली गोल्फ खेलना शुरू किया. कई सारे टूर्नामेंट्स जीते. इसी साल रियो ओलंपिक्स के लिए क्वालिफाई किया. रियो के लिए क्वॉलिफाई करने वाली सबसे युवा गोल्फर थीं. तब अदिति ने 41वीं रैंक के साथ फिनिश किया था. रियो में भी उनके पिता ने उनका बहुत साथ दिया. वो कैडी की भूमिका में रहे. कैडी यानी वो व्यक्ति जो खेल के दौरान गोल्फर को सलाह-मशविरा देता है, गोल्फर का सामान लेकर चलता है.

अदिति साढ़े पांच साल की उम्र से गोल्फ खेल रही हैं.
इस साल अदिति टोक्यो ओलंपिक्स 2020 में सेलेक्ट हुईं. 4 अगस्त को महिला गोल्फर्स का टूर्नामेंट शुरू हुआ. पहले दिन से ही उन्होंने कमाल का खेल खेला. वो लगातार टॉप 2 में बनी रहीं. उनका मेडल जीतना तय माना जा रहा था. लेकिन चौथे और आखिरी दिन गड़बड़ हो गई और अदिति ने चौथी रैंक पर फिनिश किया. इस तरह अदिति अपने पहले ओलंपिक्स मेडल से चूक गईं.
टोक्यो में क्या दिक्कत हुई?
अदिति ने भले ही मेडल नहीं जीता, लेकिन ओलंपिक्स में इतने आगे जाने की वजह से उन्होंने गोल्फ को नया चेहरा ज़रूर दिया है. और अब वो 2024 पेरिस ओलंपिक्स की तैयारियों में जुट गई हैं. 'इंडिया टुडे' को हाल ही में अदिति ने एक इंटरव्यू दिया. जिसमें उन्होंने बताया कि उन्हें टोक्यो में किस तरह की दिक्कत हुई. उन्होंने बताया कि गेम्स विलेज से टोक्यो कोर्स की दूरी 75 किलोमीटर थी, वहां तक पहुंचने के लिए अदिति को रोज़ाना करीब डेढ़ घंटे का सफर तय करना पड़ता था. उन्होंने कहा-
"जब मैं टोक्यो में थी, तो फाइनल डे पर उन्होंने टी टाइम पहले कर दिया था, क्योंकि दोपहर में स्टॉर्म आने की संभावना थी. मेरा स्टार्ट टाइम 8 बजकर 18 मिनट पर था. और उसके पहले मुझे वॉर्मअप के लिए डेढ़ घंटे चाहिए, फिर और आधे घंटे ब्रेकफास्ट करने के पहले चाहिए थे. मैं विलेज में रुकी थी, जो गोल्फ कोर्स से 75 किलोमीटर दूर था. इसलिए मुझे उस दिन सुबह तीन बजे उठना था और जाकर वर्ल्ड की नंबर 1 गोल्फर के साथ खेलना था. और अब वो कहते हैं- "oh you fell short'".
अदिति आगे कहती हैं कि उनका ये मतलब नहीं है कि अगर वो गोल्फ कोर्स के पास ही रुकतीं, तो मेडल जीत ही जातीं, लेकिन इससे निश्चित तौर पर 6 घंटे और सोने में मदद मिलती. अदिति ने बताया कि उनके बहुत सारे कॉम्पिटिटर्स गोल्फ कोर्स से दो या 30 मिनट की दूरी में रुके थे. बहुत ही कम विलेज में थे. और मेडलिस्ट तो थे ही नहीं.
इसके अलावा इस इंटरव्यू में अदिति अशोक ने TOPS स्कीम माने Target Olympic Podium Scheme पर भी बात की. दरअसल, ये सरकार की वो स्कीम है, जो ओलंपिक्स बाउंड एथलीट्स के लिए चलाई जा रही है. इसके तहत इन एथलीट्स को आर्थिक मदद दी जाती है, जिससे वो अच्छे इंस्टीट्यूट में ट्रेनिंग ले सकें और अच्छे से तैयारी कर सकें. अदिति का कहना है कि चूंकि उन्होंने टोक्यो ओलंपिक्स के महज़ 60 दिन पहले क्वालिफाई किया था, इस वजह से इस स्कीम का वो फायदा ठीक से नहीं उठा पाईं. वो कहती हैं-
"वो कहते हैं कि वो फंड में मदद करेंगे, लेकिन ये स्कीम क्वालिफिकेशन के बाद ही इफेक्ट में आती है. मैं केवल 60 दिन पहले ही क्वालिफाई हुई थी, इसलिए मैं इस पैसे का ठीक से इस्तेमाल भी नहीं कर सकती थी. TOPS गोल्फर्स को सूट नहीं करता."
अदिति का कहना कि वो 2024 को ओलंपिक्स के लिए बहुत कड़ी मेहनत करेंगी. वो रियो में जैसी खिलाड़ी थीं, उससे बेहतर टोक्यो में हुईं, और उन्हें यकीन है कि पेरिस में वो और भी बेहतर गोल्फर रहेंगी. बस वो ये चाहती हैं कि पेरिस में गेम्स विलेज गोल्फ कोर्स से इतना दूर न रहे.

अब अदिति का टारगेट है पेरिस ओलंपिक्स, जो साल 2024 में होगा.
क्या है इस खेस का इतिहास?
अदिति के इतने आगे पहुंचने की वजह से ही आज हमारे जैसे कई लोग गोल्फ के बारे में बात कर रहे हैं. उस खेल के बारे में, जिसे हम हमेशा नज़रअंदाज़ करते आए हैं, या ये सोचते आए हैं कि ये तो अमीरों का खेल है. तो एक नज़र इतिहास पर भी डालते हैं.
चूंकि हमारा देश कई बरसों तक ब्रिटिशर्स के अधीन था, तो बहुत सारी चीज़ें हमारे देश में ब्रिटिशर्स ही लेकर आए. जैसे क्रिकेट हो गया या फिर बाकी और खेल. उसी तरह गोल्फ भी भारत में ब्रिटिशर्स ही लाए. 'गोल्फॉय डॉट कॉम' की रिपोर्ट के मुताबिक, पहला गोल्फ क्लब 1829 में कोलकाता में खोला गया, माने उस समय के कलकत्ता में. इसे हम आज 'रॉयल कलकत्ता गोल्फ क्लब' के नाम से जानते हैं. हालांकि शुरुआत में इसके नाम के आगे रॉयल नहीं लगा था. जब 1911 में किंग जॉर्ज और क्वीन मेरी ने इस क्लब का दौरा किया, तब इसके नाम के आगे 'रॉयल' लगाया गया. ये दुनिया का पहला ऐसा क्लब था, जो UK के मेनलैंड से बाहर खोला गया था. इसके पहले जो भी गोल्फ क्लब थे वो यूके में ही थे. यानी ये हमारे देश का सबसे पुराना गोल्फ क्लब है. इसके बाद बॉम्बे, बेंगलोर, मद्रास, शिलॉन्ग और श्रीनगर में क्लब खोले गए. और ये सब 20वीं सदी के शुरू होने के पहले ही हो गया था.
कुछ समय बाद नेशनल लेवल की चैम्पियनशिप्स होने लगी. ज़ाहिर है हम तब ब्रिटिशर्स के अधीन थे, और वो ही ये क्लब्स खोल रहे थे, तो ज्यादातर ब्रिटिशर्स ही इन क्लब्स में अपना समय बिताते थे. लेकिन इंडिया के गोल्फ की हिस्ट्री में सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट आया आज़ादी के बाद साल 1955 में. तब कलकत्ता में कुछ गोल्फर्स ने मिलकर 'इंडियन गोल्फ यूनियन' की नींव रखी. शॉर्ट में इसे हम IGU कहते हैं. इसके वजूद में आने से पहले सभी इंडियन गोल्फ क्लब्स स्कॉटलैंड के सेंट एंड्रूज़ के नियम फॉलो कर रहे थे. लेकिन फिर IGU ने भारत में गोल्फ को प्रमोट करने का काम शुरू किया. ट्रेनिंग कैम्प्स शुरू किए. साल 1964 में पहली बार इंडियन ओपन गोल्फ चैम्पियनशिप का आयोजन किया गया, दिल्ली में. आज के समय में ये भारत में गोल्फ की सबसे अहम चैम्पियनशिप है. 1965 में इंडियन गोल्फर पी.जी. सेठी इस टूर्नामेंट को जीतने वाले पहले अमेचर इंडियन गोल्फर बने. इसके बाद सीधे 1991 में ही किसी इंडियन को इस टूर्नामेंट में जीत मिली, नाम था अली शेर. यानी अब तक तो आप समझ गए होंगे कि ये टूर्नामेंट काफी फेमस हो और इसमें दूसरे देशों के गोल्फर्स भी पार्ट लेते हैं.

गोल्फ 1829 में भारत आया था.
भारतीय महिलाओं के गोल्फ में आने की बात करें, तो इससे जुड़ा एक असोसिएशन है, नाम है- Women's Golf Association of India. इसके एक आर्टिकल के मुताबिक, भारत में जब पुरुषों ने प्रोफेशनली गोल्फ खेलना शुरू किया, उसके 27 साल बाद महिलाओं ने भी खेलना चालू कर दिया था. 'द बास्टियन' वेबसाइट के मुताबिक, 1906 में लेडीज़ ऑल-इंडिया अमेचर्स चैम्पियनशिप शुरू की गई और इसी के साथ भारत में औरतों को इस खेल से इंट्रोड्यूस कराया गया. हमने IGU की वेबसाइट पर इस टूर्नामेंट की लिस्ट देखी जिसमें टूर्नामेंट के शुरुआती बरसों में विनर्स के लिस्ट में दिखने वाली ज्यादातर औरतें भारत की नहीं थीं. हालांकि पुरुषों के गोल्फ के इतिहास की तरह ही आज़ादी के बाद गोल्फ में भारतीय महिलाओं का पार्टिसिपेशन बढ़ते दिखा.
ये था गोल्फ का भारत में इतिहास. IGU की मानें तो इस वक्त भारत में 194 गोल्फ क्लब्स हैं. कई खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन भी कर रहे हैं. लेकिन फिर भी ये खेल बाकी खेल जितना पॉपुलर नहीं है. आप खुद देखिए, अदिति अशोक क परफॉर्मेंस के पहले आप गोल्फ से जुड़ी कितनी ही खबर देखते थे. ज़ाहिर है संख्या बहुत कम है.
एक्सपर्ट क्या कहते हैं?
ये जानने के लिए कि गोल्फ की पॉपुलरिटी बाकी खेलों के मुकाबले भारत में इतनी कम क्यों है? हमारे साथी नीरज ने बात की विमन्स गोल्फ असोसिएशन ऑफ इंडिया की सेक्रेटरी जनरल चंपिका सयाल से. वो कहती हैं-
"हमारे देश में सबसे बड़ी वजह ये है कि हमारे यहां क्रिकेट के अलावा किसी भी गेम को तवज्जो देने के चांस बहुत कम है. गोल्फ आमतौर पर इंडिविजुअल स्पोर्ट है. उसमें टीम भी होती है. गोल्फ कम स्पॉन्सरशिप होती है. आपको पता है क्रिकेट प्लेयर्स को खेलने के लिए कितना पैसा मिलता है. स्पॉन्सरशिप बहुत है. वैसा गोल्फ में नहीं है. हमें पैसे मांगने पड़ते हैं, सरकार से, प्राइवेट सेक्टर से. अभी जहां हमारा गेम जहां पहुंचा है, वो प्राइवेट सेक्टर्स की वजह से पहुंचा है. जितना मैंने देखा है कि जितनी भी हम कोशिश कर रहे हैं, उतना गोल्फ में कोई पैसा नहीं लगा रहा, जितना क्रिकेट में लगाते हैं. या कोई बड़ा टीम स्पोर्ट हो, उसमें लगाते हैं. फुटबॉल और हॉकी में भी थोड़ा-बहुत पैसा आ रहा है. हालांकि मैं ये बोल सकती हूं कि पिछले दस साल में गोल्फ में काफी बदलाव आया है. क्रिकेट के बाद गोल्फ में बहुत बदलाव आया. ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि बड़े क्रिकेटर्स ने गोल्फ खेलना शुरू कर दिया अपने रिटायरमेंट के बाद."
इसके अलावा हमने पूछा कि गोल्फ को अक्सर 'अमीरों का खेल' कहा जाता है. ऐसा क्यों? इसके जवाब में चंपिका ने कहा-
"इससे बड़ी मिस-अंडरस्टैंडिंग नहीं है. ये अमीरों का खेल नहीं है. इसमें ऐसे लोगों की ज़रूरत होती है जो मैथ्स कर सके, फिजिक्स समझ सके. तो पढ़े-लिखे खिलाड़ी को इसमें बहुत सफलता मिल सकती है. गरीब घरों से ताल्लुक रखने वाले लोग भी आते हैं."
हम उम्मीद करते हैं कि गोल्फ को भी अब हमारे देश में नए नज़रिए से देखा जाएगा.