EVM और इलेक्टोरल बॉंन्ड (Electoral Bonds) की बहस के बीच चुनावों को लेकर तमिलनाडु विधानसभा में भी गतिविधि हो रही है. यहां 14 फरवरी को दो प्रस्ताव पारित किए गए. पहला प्रस्ताव है ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के सिद्धांत के खिलाफ. दूसरा प्रस्ताव है जनगणना के आधार पर 2026 के बाद प्रस्तावित परिसीमन प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाने को लेकर. तमिलनाडु सरकार का कहना है कि दोनों सिद्धांत अलोकतांत्रिक हैं, संविधान सम्मत भी नहीं हैं.
'एक राष्ट्र, एक चुनाव' और परिसीमन को लेकर तमिलनाडु सरकार और केंद्र के बीच खींचातानी क्यों?
तमिलनाडु विधानसभा में 14 फरवरी को दो प्रस्ताव पारित किए गए. पहला प्रस्ताव है ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के सिद्धांत के खिलाफ. दूसरा प्रस्ताव है जनगणना के आधार पर 2026 के बाद प्रस्तावित परिसीमन प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाने को लेकर.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर अपने बयानों में एक राष्ट्र, एक चुनाव की वकालत करते नज़र आते हैं. सितंबर 2023 में इसकी चर्चा और तेज हो गई थी जब केंद्र सरकार ने 18-22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया था. कहा जाने लगा कि सरकार इस मुद्दे पर कुछ बड़ा करने जा रही है. इसके बाद खबर आई कि पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली एक कमेटी गठित की गई है. इसी कमेटी के पास एक देश, एक चुनाव का खाका तैयार करने का काम है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक कमेटी अपना काम लगभग पूरा कर चुकी है. लेकिन ये रिपोर्ट अभी सरकार अथवा चुनाव आयोग के पास औपचारिक रूप से पहुंची नहीं है.

इस प्रस्ताव पर अगर सभी स्टेकहोल्डर्स ने सहमति जता दी तो यह 2029 से लागू हो जाएगा. लेकिन इससे पहले दिसंबर 2026 तक 25 राज्यों में विधानसभा चुनाव कराने होंगे. मध्यप्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में हालिया विधानसभा चुनाव हुए हैं. इस कारण इन राज्यों को पुनः चुनाव कराने की आवश्यकता नहीं होगी. तमिलनाडु की विधानसभा ने इस प्रस्ताव को खारिज करते हुए कहा कि भारत जैसी विविधता वाले देश में समय-समय पर चुनाव होना काफी जरूरी है. चुनाव आमजनों के मुद्दों को समय-समय पर उठाने के लिए जरूरी होते हैं. स्टालिन सरकार को इस प्रस्ताव को राज्य के कई दलों का भी समर्थन मिला है.
अब बात दूसरे प्रस्ताव की. यानी परिसीमन के खिलाफ पास किए गए प्रस्ताव की. परिसीमन यानी जनसंख्या के हिसाब से प्रतिनिधत्व को सुनिश्चित करने हेतु विधायिका के लिए सीटों का सीमांकन. माने किसी लोकसभा या विधानसभा सीट की सीमाएं इस तरह तय करना, कि पूरे देश में एक सांसद या किसी राज्य के भीतर एक विधायक, बराबर नागरिकों का प्रतिनिधित्व करे.
परिसीमन 2026 में प्रस्तावित है. हाल में ये चर्चा का विषय बना, जब केंद्र के बुलाए विशेष सत्र के दौरान 18 सितंबर 2023 को महिला आरक्षण बिल पास हो गया. तब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बताया था वो दिन दूर नहीं जब संसद में एक तिहाई महिलाएं बैठेंगी. उन्होंने कहा था कि 2024 में लोकसभा चुनाव के बाद जनगणना और परिसीमन की प्रक्रिया शुरू होगी. वैसे हम बता दें, परिसीमन नियत था. ये प्रधानमंत्री या गृहमंत्री के किसी बयान या ऐलान के चलते हो रहा है, ऐसा नहीं कहा जा सकता.
कौन करता है परिसीमन और कब होता है?भारत में चुनाव करवाना और उनके नतीजों का औपचारिक ऐलान करना चुनाव आयोग का काम है. आयोग की ही देखरेख में परिसीमन भी होता है. इसके लिए समय-समय पर एक परिसीमन आयोग का गठन होता है. ये आयोग चुनाव प्रक्रिया से जुड़े सभी स्टेकहोल्डर्स मसलन राजनैतिक दलों आदि को सुनता है, स्वयं जानकारी इकट्ठा करता है. और फिर अपनी रिपोर्ट देकर परिसीमन की अनुशंसा करता है.
भारत के इतिहास में लोकसभा सीटों के परिसीमन के लिए चार दफा आयोग बनाए गए - 1952, 1963, 1973 और 2002 में. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, इस बार परिसीमन आयोग बनाने से पहले सरकार ने इसके खाके पर काम शुरू कर दिया है. जिसमें प्रतिनिधित्व को लेकर मौजूदा व्यवस्था से छेड़छाड़ नहीं होगी, बल्कि ‘जनसांख्यिकी संतुलन’ को ध्यान में रखकर एक ‘ब्रॉडर फ्रेमवर्क’ पर विचार जा रहा है.
जब 2002 में परिसीमन हुआ था तो निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या में कोई बदलाव नहीं हुआ था यानी 1973 से लोकसभा सदस्यों की संख्या 543 ही है. माने कहा जा सकता है कि 1971 की जनसंख्या के आधार पर ही 2024 में भी लोकसभा सीटें तय हो रही हैं. 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी 42वां संविधान संशोधन विधेयक बिल लेकर आई थीं, जिसमें 2001 तक निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं के पुनर्निधारण पर रोक लगाने का प्रस्ताव था. उन्होंने फैमिली प्लानिंग को बढ़ावा देने का हवाला देते हुए संसद में यह प्रस्ताव दिया था. 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 91वां संविधान संशोधन विधेयक पेश कर इस रोक को 2026 तक बढ़ाने का प्रस्ताव दिया. पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी ने भी जनसंख्या स्थिरीकरण एजेंडे का हवाला देकर रोक को बरकरार रखा था.
दिक्कत कहां आ रही है?1971 की जनगणना में देश की आबादी 55 करोड़ बताई गई. आज ये संख्या 140 करोड़ के आसपास बताई जाती है. चूंकि 2011 के बाद से जनगणना हुई नहीं है, इसीलिए आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है. 1971 से 2024 तक जनसंख्या बस बढ़ी ही नहीं है, उसके घनत्व में भी अंतर आया है. और ये घनत्व हर सूबे में अलग तरह से बढ़ा है.
केंद्र और सूबों की सरकारों ने फैमिली प्लानिंग पर काफी जोऱ दिया. इस मामले में दक्षिण के राज्यों का प्रदर्शन बढ़िया रहा, लेकिन उत्तर के राज्य पिछड़ते रहे क्योंकि आबादी के बीच शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कवरेज उत्तर में थोड़ी कम रही. इस बात को दक्षिण के राज्यों ने तुरंत पकड़ लिया और 70 के दशक में ही भारी हंगामा हुआ. आखिरकार साल 1976 में संविधान में संशोधन किया गया. यह तय कर दिया कि साल 2001 तक 1971 की जनगणना के आधार पर ही लोकसभा सीटें तय होंगी. वाजपेयी सरकार ने यही छूट 2026 तक बढ़ा दी थी.
दक्षिण के सूबों का डर है कि 2026 के परिसीमन के लिए यदि 2011 या फिर 2024-2025 में होने वाली जनसंख्या के आंकड़े इस्तेमाल किए गए, तो उन्हें उनके अच्छे प्रदर्शन के बावजूद नुकसान उठाना पड़ेगा. क्योंकि उनकी आबादी कम बढ़ी है, और उत्तर के राज्यों की ज़्यादा बढ़ी है. ऐसे में बढ़ने वाली सीटें ज़्यादातर उत्तर में बढ़ेंगी. सीटें दक्षिण में भी बढ़ेंगी ही, लेकिन अनुपात बदल जाएगा. दक्षिण के राज्य पहले ही केंद्रीय टैक्स में अपने हिस्से को लेकर शिकायतें कर रहे हैं.
ऐसी ही चिंताओं के चलते तमिलनाडु सरकार ने परिसीमन को लेकर केंद्र सरकार के प्रस्ताव को साजिश बता दिया है. तमिलनाडु विधानसभा में इस मुद्दे पर बोलेते हुए मुख्यमंत्री स्टॉलिन ने अपने तर्क रखे. उन्होंने कहा कि यह संसद में दक्षिण भारत, खासकर तमिलनाडु के लोगों का प्रतिनिधित्व कम करने की साजिश है. इसकी प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही इसे ख़त्म करने की ज़रूरत है. स्टालिन सरकार का कहना है कि यह प्रक्रिया 1971 में हुई जनसंख्या (जनगणना) के आधार पर तय किए गए मापदंडों पर पूरी की जानी चाहिए.