
वो ऑटो-पायलट कार जिसने एक आदमी को कुचलकर मार डाला है.
एक्टर्स का काम इस सीरीज़ में मामले की जांच कर रहे ऑफिसर साजन का रोल किया है 'गली बॉय' फेम विजय वर्मा ने. ये पुलिसवाला अकेला रहता है. इसकी गाड़ी ही इसका घर है. हमेशा गुस्से में रहने वाले इस आदमी को अकेले काम करना पसंद है. टीम जैसी किसी चीज़ में इनका कोई यकीन नहीं है. साजन को रोबोट लोग से सख्त नफरत है. उनकी साथी ऑफिसर लक्ष्मी के रोल में हैं राधिका आप्टे. लक्ष्मी रोबोट्स को लेकर सहानुभूति का भाव रखती है. जो कि कई मौकों पर इमोशनल लेवल पर चला जाता है. केस की इनवेस्टिगेशन में इनकी मदद कर रही दूसरी जूनियर अफसर हैं मोना लिसा पॉल. ये रोल निभाया है मलयाली एक्स्ट्रेस कनी कुश्रुति ने. बेसिकली ये इस सीरीज़ की कॉमिक रिलीफ हैं. लीक से हटकर चलने वाला एक ऐसा कॉमिक किरदार, जो गाहे-बगाहे बहुत ज़रूरी बातें और सवाल पूछ लेता है. ओके कम्प्यूटर में काम करने वाले तमाम एक्टर्स इस सीरीज़ को जितना विश्वसनीय और एंटरटेनिंग बना सकते थे, इन्होंने बनाया है. और उन्हें ये सब करते हुए देखना एक मज़ेदार अनुभव साबित होता है. खास कर साजन का रोल करने वाले विजय वर्मा को.

इस केस की छानबीन करने वाले अक्खड़ और गुस्सैल ऑफिसर साजन कुंडु.
इस सीरीज़ की अच्छी बातें पहली नज़र यानी शुरुआती कुछ एक एपिसोड्स देखने के बाद 'ओके कम्प्यूटर' बड़ी कॉन्ट्राइव्ड सीरीज़ लग सकती है. एक ऐसी सीरीज़ जिसे लगता है कि वो बहुत स्मार्ट है और उसका कॉन्टेंट बहुत उम्दा लेवल का है. मगर कहानी के आगे बढ़ते-बढ़ते ये चीज़ कम हो जाती है. मानों अचानक से इस सीरीज़ के मेकर्स में सेल्फ अवेयरनेस आ गई हो. ये सीरीज़ अपने वे टु फ्यूचरिस्टिक ऐटिट्यूड में भी अत्यंत रियल होती चली जाती है. इसे देखते हुए किसी बनावट का ढोंग का आभास आपको नहीं होता. इसमें इसकी मदद करते हैं इसके डायलॉग्स. घटनास्थल पर पहुंचने के बाद साजन खुद से पूछता है-
''मैं यहां क्या कर रहा हूं''
इसके जवाब में उसे मोना लिसा कहती है-
''इस सवाल का जवाब का मानव जाति हज़ारों सालों से ढूंढ रही है और इसका जवाब हमें अब तक नहीं मिला.''
ये जवाब सही होते हुए भी सिचुएशन के हिसाब से फनी है. ठीक अगले सीन में जब साजन डेड बॉडी का कुचला हुए चेहरा देखने जाता है, तो वो घिन से भर जाता है. उसकी फीलिंग को सही ठहराते हुए मोना कहती है-
''छाप-तिलक सब छीन ली है सर.''
'ओके कम्प्यूटर' से जुड़ी दूसरी अच्छी चीज़ है इसका कुछ नया करने का जज़्बा. इंडिया में साइंस-फिक्शन कॉन्टेंट की भारी कमी है. हम कब तक 'मिस्टर इंडिया' के नाम का ढोल पीटते रहेंगे. हालांकि पिछले दिनों 'कार्गो' भी रिलीज़ हुई थी. मगर उसका फोकस साइंस फिक्शन से ज़्यादा फैंटेसी पर था. इमोशन पर था. ऐसे में 'ओके कम्प्यूटर' इंडिया में बना अपनी तरह का पहला कॉन्टेंट होने का दावा करता है. साइंस फिक्शन- कॉमेडी- थ्रिलर. और उनका ये दावा काफी हद तक सही भी है. ये सीरीज़ बहुत सारी ज़रूरी बातें कहती है. मगर कई मौकों पर वो बातें डिलीवर होने की बजाय एक कोशिश बनकर रह जाती हैं. मगर इस सीरीज़ के मेकर्स पूजा शेट्टी, नील पगेड़कर और आनंद गांधी को इस कोशिश के लिए पूरा क्रेडिट मिलना चाहिए.

साजन की साथी ऑफिसर मोना लिसा पॉल जो किसी भी गंभीर विषय पर कॉमिक पुट डालकर और गंभीर बना देती हैं.
'ओके कम्प्यूटर' अपने जॉनर और कॉन्टेंट के साथ न्याय करती हुई कई कई ज़रूरी मसलों को छेड़ देती है. जैसे पूरे हिंदुस्तान पर हिंदी भाषा का थोपा जाना, फेक न्यूज़ का फैलाव, क्लाइमैट चेंज, देशभक्ति और सरवेलेंस. मगर ऐसा नहीं है कि ये चीज़ अचानक से आउट ऑफ कॉन्टेक्स्ट आपके मुंह पर लाकर मार दी जाती है. इन पर बाकायदा सिचुएशन के हिसाब से बात होती है. इसलिए ये गंभीर बातें भी पंचलाइन के माफ़िक सही तरीके से लैंड होती हैं. इस सीरीज़ की बुरी बातें कोई भी चीज़ परफेक्ट नहीं होती. ये सीरीज़ भी नहीं है. या यूं कहें परफेक्ट के आस-पास भी नहीं है. इस सीरीज़ की सबसे बड़ी दिक्कत है इसकी कहानी का पटरी से बेपटरी हो जाना. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये कहानी उस एक्सीडेंट या मर्डर की छानबीन के आसपास ही घूमती रहती है. आपको लगता है कि चलो अब ये मामला सॉर्ट आउट हो गया. लेकिन ठीक तभी एक नया ट्विस्ट आ जाता है. अगर ये चीज़ एकाध बार हो, तो जाने दे सकते हैं. मगर एक ही सीरीज़ में, एक मसले पर चार बार ट्विस्ट कैसे आ सकता है. ये चीज़ थोड़े समय के बाद थकाऊ लगने लगती है.

साजन की साथी ऑफिसर लक्ष्मी सूरी. इन दोनों की आपस में बिल्कुल नहीं पटती क्योंकि इनकी हिस्ट्री रह चुकी है.
'ओके कम्प्यूटर' की दूसरी समस्या है इसका साइंस क्लास बन जाना. ये सीरीज़ कहानी दिखाते हुए अचानक से साइंस के लेक्चर में तब्दील हो जाती है. वो बुरी बात नहीं है. मगर अचानक से ढेर सारे साइंटिफिक टर्म्स और गंभीर बातें सुनकर लगने लगता है यार काश 12वीं में साइंस लिया होता, तो ये पक्का डिकोड कर लेता.
इस सीरीज़ की सबसे इरिटेटिंग चीज़ हैं जैकी श्रॉफ. एक ऐसा किरदार, जिसे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और रोबोट जैसी चीज़ों से दिक्कत है. क्योंकि ये चीज़ें इंसानों की नौकरियां खा रही हैं. उनके मौके छीन रही हैं. मगर ये कैरेक्टर कहानी में कुछ भी जोड़ता नहीं है. बस उसके एपिसोड की संख्या बढ़ा देता है. जैकी श्रॉफ पिछले कुछ समय से मेनस्ट्रीम के साथ-साथ बढ़िया एक्सपेरिमेंटल काम कर रहे हैं. उन्हें किसी ढंग के प्रोजेक्ट में देखकर उम्मीद सी जग जाती है. मगर ये सीरीज़ उन्हें बहुत प्यार से वेस्ट कर देती है.

सीरीज़ का सबसे इरिटेटिंग कैरेक्टर जिसे किसी भी रोबोटिक या आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से सख्त नफरत है.
ओवरऑल एक्सपीरियंस जब आप किसी चीज़ को अपने जीवन के 4 बेशकीमती घंटे देते हैं, तब आप बदले में एक्सपेक्ट करते हैं कि वो आपकी समझ में कुछ इज़ाफा करे. 'ओके कम्प्यूटर' ऐसा करने की कोशिश करती है मगर कर नहीं पाती. ये इंडिया में बना बिल्कुल ही नए तरह का कॉन्टेंट है. अगर हम इस तरह के कॉन्टेंट के बढ़ावा देंगे, तो हमें ज़ाहिर तौर पर अगले कुछ समय में उसमें बेहतरी देखने को मिलेगी. ये महज़ एक थॉट है, जिसने निजी तौर पर मुझे इस सीरीज़ को देखने के लिए प्रेरित किया. मगर इंट्रेस्टिंग बात ये कि अगर आप एंटरटेनमेंट के लिए ये सीरीज़ देखना चाहते हैं, तब भी ये आपके लिए एक अच्छी चॉइस हो सकती है. अगर प्रॉपर फिल्मी कॉन्टेंट देखना चाहते हैं, तो 'ओके कम्प्यूटर' आपके लिए नहीं है.
6 एपिसोड लंबी ये सीरीज़ डिज़्नी+ हॉटस्टार पर स्ट्रीम हो रही है.