दरगाह में हरे रंग में रंगा गुंबद है. ऊपर ऊंचे में भगवा रंग फहरता है. वहां गायें रहती हैं और मलंग भी. मलंग वो लोग हैं जो उस जगह का ख्याल रखते हैं. गायें चराते हैं. वहां पर लगा भगवा रंग का झंडा दरअसल सूफिज्म के प्रतीक के तौर पर है. लोग उस दरगाह को पवित्र मानते हैं. मुसलमान भी वहां गायों के लिए घास ले जाते हैं. प्रसाद चढ़ाते हैं साथ में पैसा भी चढ़ाते हैं.

Source- caravanmagazine
इस जगह पर शिया संत शेर शाह दफ़न हैं. बेसिकली अपने इंडिया के पंजाब से हैं. यहां भी उनकी दरगाह है. उनको सिख भी मानते हैं और मुसलमान भी. उनको उनने मानने वालों ने गायें दी थीं. पूरी 2000 गायें. The Carvan मैगजीन के हारून खालिद को संत के घर वाले बताते हैं. इंडिया-पाकिस्तान बंटा तो इंडिया वाले उनके भक्त बोले न जाओ, न जाओ. लेकिन उनको पता था इंटोलरेन्स बढ़ रही है. रहना सेफ नहीं है यहां. तो वो पाकिस्तान चले गए. सरकार उनको भाम्बा भेज दी. वहां के छोड़े हुए गुरूद्वारे में उनने रहने का ठिकाना बना लिया. गए तो अपने संग गायें भी लिए गए. वहां के लोग गायों को पवित्र मानने लगे. गायों को बाबे दी गावां
बुलाने लगे. उनको लगता गायों को खुश रखेंगे तो उनका भी भला होगा.
गायों का ऐसा भौकाल हो गया कि अगर खेत में घुसकर उनकी फसल भी खा लें तो कुछ नहीं कहते थे. उनको लगता गायों को कुछ नुकसान पहुंचा तो उनके साथ भी कुछ न कुछ गलत हो जाएगा. अब सीन ऐसा था कि संत के पास गायें ज्यादा थी संसाधन कम . कभी वो चाहते थे कि गायें बेच भी दें तो कोई लेने वाला नहीं मिलता था.
हारून खालिद को लोगों ने बताया कि एक बार एक आदमी आया, वो गायें लेना चाहता था. बोला अगर मैंने गाय ले ली तो क्या मेरी टांग टूट जाएगी? सब बोले न लो, न लो. नहीं माना. जैसे ही उसने गाय ली. उसकी टांग सच में टूट गई.
अब भी वहां हर साल कार्यक्रम होता है, गायें हैं, कम हो गई हैं फिर भी हैं. लोग उनके खुर छूकर आशीर्वाद लेते हैं. इसी बहाने उनको पालने वालों का भी घर चल रहा है.