चुनावी मौसम में दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आया है पॉलिटिकल किस्सों की ख़ास सीरीज़- मुख्यमंत्री. इस कड़ी में बात राजस्थान के उस मुख्यमंत्री की, जिसकी सदारत में पार्टी तो जीत गई, लेकिन वो खुद दो जगहों से चुनाव हार गया. वो मुख्यमंत्री, जिसकी कुर्सी नेहरू भी नहीं बचा पाए और जिसे हराने में उसके दो करीबियों की ही भूमिका थी. नाम था जयनारायण व्यास.
जय नारायण व्यास : राजस्थान का वो मुख्यमंत्री, जो पद पर रहते दो सीटों से चुनाव हार गया
सबसे करीबी दो लोगों ने ही छीन ली कुर्सी.

जय नारायण व्यास: नेहरू के खास सीएम जिनकी कुर्सी नेहरू भी न बचा पाए
साल 1952. पूरे देश में चुनाव हो चुके थे. लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक हुए. नंबर आया रिजल्ट का. वोटिंग पोस्टल बैलेट पर हुई इसलिए नतीजे आने में कई दिन लग रहे थे. उस टाइम राजस्थान के सीएम थे जयनारायण व्यास. व्यास अपने खास नेता मित्रों माणिक्यलाल वर्मा, मथुरादास माथुर और रामकरण जोशी के साथ बैठकर रिजल्ट्स का हिसाब-किताब ले रहे थे. जयनारायण व्यास सिटिंग सीएम थे और दो जगह से चुनाव लड़ रहे थे. एक सीट थी जालौर-ए और दूसरी जोधपुर शहर-बी. व्यास अपनी जीत को लेकर कॉन्फिडेंट थे. तभी व्यास के सचिव वहां आए और बोले- दो खबर हैं. एक अच्छी एक बुरी. अच्छी ये कि पार्टी 160 में से 82 सीटों पर चुनाव जीत गई है. बुरी खबर ये कि व्यासजी दोनों जगह से चुनाव हार गए हैं. कमरे में सन्नाटा पसर गया. वहां बैठे लोगों के लिए कांग्रेस जीत की खुशी से ज्यादा व्यास की हार का दुख था. क्योंकि सालभर पहले ही इस कैंप ने हीरालाल शास्त्री को हटवाकर जयनारायण व्यास को सीएम बनवाया था. अब व्यास के साथ उनका भी करियर खतरे में आ गया. लेकिन कहानी यहां खत्म नहीं हुई है. चलते हैं शुरुआत पर.
अंक 1: गोली चली तो जिंदगी बदल गई
30 मार्च, 1919 की शाम. सदर बाजार में कुछ लड़के खाना खा रहे थे. इनमें से एक था जयनारायण. जोधपुर का रहने वाला. पढ़ाई के वास्ते पंजाब यूनिवर्सिटी का दाखिला लिया. तब पीयू का एग्जाम सेंटर दिल्ली में भी हुआ करता था. उसी के वास्ते सब आए आए थे. पहला कौर तोड़ते ही बाजार में शोर मचा. चांदनी चौक में गोली चल गई.
बात सही थी. पुलिस और क्रांतिकारियों के ग्रुप के बीच टकराव हुआ था. कई शहीद हुए थे. व्यास जब मौके पर पहुंचे तो देखा. एक तरफ पुलिस. दूसरी तरफ हजारों की भीड़. जिसके आगे स्वामी श्रद्धानंद और हकीम अजमल खान. पुलिस को ललकारते. पुलिस को अब पीछे हटना पड़ा.

स्वामी श्रद्धानंद और हकीम अजमल खां.
इस नजारे ने व्यास को बदल दिया. अब वो क्रांतिकारियों के साथी थे. और मास्टर जी भी. ये मास्टर क्यों. क्योंकि खर्चा चलाने के लिए वो बच्चों को पढ़ाते थे और फिर दिल्ली में इसी नाम से मशहूर रहे.
अंक 2: राजा अखबार की दुकान से खफा है
दिल्ली के बाद व्यास जोधपुर लौटे. साल था 1921 और मकसद था स्वामी श्रद्धानंद के काम को आगे बढ़ाने. स्वामी विजय नाम का अखबार निकालते थे. इसके प्रचार प्रसार के लिए जयनारायण ने किताबों और अखबारों की दुकान खोल ली. फिर यहां नौजवानों का मजमा लगने लगा. आजादी पर बात होने लगी.
राजा तक खबर पहुंची. दुकान बंद करवा दी गई. इसके लिए उसने 1909 के अपने ही बनाए कानून का इस्तेमाल किया. क्या कानून. कि राज्य में कोई अखबार नहीं पढ़ सकता मेरे हुकुम के बने. एक और अफलातूनी फरमान था. कोई टाइपराइटर नहीं खरीद सकता, बिना परमिशन के. राजा और व्यास का झंझट यहां खत्म नहीं हुआ. इसे संदर्भ के तौर पर याद रखिएगा.
अंक 3: इसको दस नंबर के रजिस्टर में डालो
जोधपुर राज्य में किसानों पर कड़े प्रतिबंध लाद दिए गए. इसके खिलाफ मारवाड़ हितकारिणी सभा ने आंदोलन किया. इस सभा को आप कांग्रेस का जोधपुर संस्करण समझ लें. व्यास इसके महासचिव थे. आंदोलन को कुचलने के लिए राजा आतुर था. उसकी सरकार ने जयनारायण व्यास और कई दूसरे नेताओं को दस नंबरी घोषित कर दिया. ये दस नंबरी क्या होता है. सुना तो खूब होगा.

जोधपुर के तत्कालीन महाराज उम्मेद सिंह.
दस नंबरी मतलब थानों में एक दस नंबर का रजिस्टर खोला जाता था. इस रजिस्टर में जिनका नाम दर्ज होता उन पर पुलिस नज़र रखती थी. कहीं आने-जाने से पहले इन लोगों को थाने में बताना पड़ता था. तो व्यास थाने में हाजिरी भरते. फिर अपने क्रांति के काम में जुट जाते. कभी लोगों से बातकर तो कभी कविता लिख. ये उदाहण देखिए. व्यास की लिखी एक मारवाड़ी कविता.
मोनै एड़ौ दी जो राज म्हारा राजाजी
गांव-गांव में पंच चुणी जै, करे राज रो काज, पंचां मांय सूं बणै मिनिस्टर, पंच चलावै राजा. म्हारा राजाजी
मतलब. ऐसा राज हो राजा जी. जिसमें गांव गांव में पंच चुने जाएं, जो राजकाल चलाएं. इन्हीं में से मंत्री बने और यही पंच राजा को भी चलाएं.
कविता के अलावा जोधपुर के हालात के बारे में बाहर के अखबारों में छपे लेख वगैरह तो थे ही. राजा खार खाए थे. बड़े मौके का इंतजार किया गया. ये आया 1927 में.
इस साल कांग्रेस का बंबई अधिवेशन हुआ. एक बड़ा फैसला लिया गया. जहां अंग्रेजों का सीधा शासन, वहां तो कांग्रेस है. मगर जहां रियासतें हैं, वहां भी आंदोलन हो. वहां कांग्रेस का नाम प्रजामंडल होगा. राजशाही के समानांतर खड़ी लोकसत्ता. अधिवेशन में ये भी तय हुआ कि रियासतों से आने वाले कांग्रेस सदस्य वापस जाकर प्रजामंडल की गतिविधियां शुरू करें. जाहिर सी बात है कि ये सब राजा को खटका. व्यास को वापस लौटने पर प्रजामंडल की गतिविधियां शुरू होते ही गिरफ्तार कर लिया गया. नागौर के किले में कई लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा चलने लगा. बचाव के लिए वकील तक नहीं. व्यास और उनके साथियों को छह साल की सजा हुई. मगर जेल में चार साल ही रहे. गांधी-इरविन समझौते के तहत राजनीतिक कैदी छोड़े गए तो वह भी बाहर आ गए.
व्यास और राजशाही की अदावत, व्यास का जेल जाना. सब इसके बाद भी जारी रहा.
अंक 4: अखबार वाले से मुख्यमंत्री तक का सफर
1933 में जेल से रिहा होने के बाद व्यास ने अखिल भारतीय देशी राज्य प्रजा परिषद का गठन किया. नेहरू को इसका अध्यक्ष बनाया गया और जयनारायण ने सचिव का काम संभाला. अब उनकी गतिविधियों का केंद्र जोधपुर की जगह मुंबई हो गया. यहीं पर उन्होंने 'अखंड भारत' नाम का अखबार शुरू किया. क्रांति की बात पूरे देश में फैलने लगी, मगर पैसे चुकने लगे.
जीवनीकारों के मुताबिक मुफलिसी का आलम ये था कि दिन में जो अखबार बेचते, रात में उसी के बचे हुए अंक बिछा समंदर किनारे सोते थे व्यास. कई बार पैसे कमाने के लिए फिल्मों में काम करने का ख्याल भी आया.
इन सबमें दो साल बीत गए. अखबार बंद हो गया. जोधपुर लौटने का मन किया. पर एक पेच था. जोधपुर के प्रधानमंत्री डोनाल्ड फील्ड ने उनको राज्यबदर कर रखा था. व्यास फिर भी मुंबई से लौटने लगे. ट्रेन के जरिए। मगर पुलिस ने उन्हें उतरने नहीं दिया. अजमेर के ब्यावर इलाके को रवाना कर दिया. दो साल यहीं बीते. फिर बाप की तबीयत बहुत बिगड़ी तो राजशाही कुछ पिघली.
जयनारायण को मानवीय आधार पर जोधपुर वापसी की इजाजत दे दी गई. वापसी के कुछ हफ्तों बाद पिता गुजर गए. मगर जयनारायण वापस नहीं गए. मारवाड़ लोकपरिषद के काम में लग गए. अंग्रेज सरकार ने स्थानीय निकाय चुनाव करवाए तो व्यास नगरपालिका अध्यक्ष बन गए. फिर आया भारत छोड़ो आंदोलन. सब पद बेकार. जेल यात्रा फिर चालू. और प्रधानमंत्री डोनाल्ड से टसल भी. 1945 में सब राजनीतिक कैदी छूटे. देश की आजादी की बात चलने लगी. तभी व्यास ने डोनाल्ड की शिकायत करते हुए नेहरू को खत लिखा. इन सबके बारे में हमने आपको वेंकटाचारी वाले किस्से में बताया है.

नेहरू, शेख अब्दुल्ला और इंदिरा जोधपुर आए थे जिसके बाद यहां कि परिस्थितियों में सुधार आया.
अभी बस इतना रिकैप कर लें कि डोनाल्ड गए. फिर दो साल बाद 1947 में राजा उम्मेद भी गुजर गए. उनके बेटे हणूत सिंह राजा बने. शुरू के कुछ महीने नेहरू-पटेल के प्रति वो अक्खड़ रहे. और जाहिर है कि जोधपुर में उनके प्रतिनिधि जयनारायण के लिए भी. मगर देश अब आजाद था. लोकप्रिय सरकार का समय था. राजा ज्यादा कुछ कर नहीं पाए. जयनारायण व्यास 1948 में जोधपुर राज्य की लोकप्रिय सरकार के मुख्यमंत्री बन गए. पर ये सब एक बरस ही चला. क्योंकि 30 मार्च 1949 को सब रियासतों को मिलाकर राजस्थान राज्य बना दिया गया.
व्यास को लगा कि नेहरू का आशीर्वाद उनके साथ है. इस बड़े राज्य के मुखिया भी वही बनेंगे. मगर नेहरू नेशनल अफेयर्स में बिजी थे. और यहां उनकी नहीं पटेल की चली. और पटेल की पहली पसंद थे जयपुर रियासत की लोकप्रिय सरकार के मुख्यमंत्री हीरालाल शास्त्री. इनकी कहानी हमने आपको मुख्यमंत्री-राजस्थान के पहले किस्से में विस्तार से सुनाई है.
जब तक पटेल रहे शास्त्री की हनक रही. उनके निधन के बाद बगावत हो गई. संवैधानिक संकट भी. एक आइएएस वेंकटाचार को तीन महीने के लिए वर्किग सीएम बनाना पड़ा. फिर नेहरू ने जयानारायण व्यास को गद्दी सौंप दी.
अंक 5: राजा का बदला पूरा, मगर अधूरा
26 अप्रैल 1951 को व्यास सीएम बने. मगर कुछ ही महीनों के लिए. क्योंकि 1951 के आखिर से देश के पहले चुनावों की प्रक्रिया शुरू हो गई. ज्यादातर जगहों पर कांग्रेस को बढ़त थी. मगर राजस्थान में मुकाबला जोरदार था. वजह, यहां के राजघराने खुलकर कांग्रेस का विरोध कर रहे थे. जागीरदार और राजा जनसंघ, राम राज्य परिषद के टिकट पर या फिर निर्दलीय चुनाव में उतर गए. इनका नेतृत्व कर रहे थे जोधपुर के राजा हनवंत उर्फ हणूत सिंह. चुनाव में व्यास दो सीटों से लड़े. एक जालौर-ए और दूसरी जोधपुर शहर-बी.

महाराजा हनवंत सिंह ने व्यास को दोनों जगह से चुनाव हरवाया था.
हणूत ने व्यास के लिए पूरी फील्डिंग सेट कर दी. जोधपुर से खुद लड़े और जालौर से जागीरदार माधो सिंह को लड़वाया. इसका नतीजा क्या रहा, हम आपको शुरू में बता चुके हैं. व्यास, सिटिंग सीएम, दोनों जगह से हार गए. जो जीते उसका भी फसाना सुन लीजिए. हणूत सिंह 1952 में जोधपुर से लोकसभा और विधानसभा, दोनों का चुनाव लड़े. दोनों जीते. मगर वोटिंग होने के बाद और नतीजों से पहले उनका निधन हो गया. पाकिस्तान सीमा के पास एक हवाई दुर्घटना में.
अंक 6: डिप्टी की किस्मत- आरोह-अवरोह और प्रस्थान
कांग्रेस में तब जयनारायण व्यास खेमा हावी था. हीरालाल शास्त्री और गोकुलभाई भट्ट जैसे नेता पहले ही हाशिए पर जा चुके थे. ऐसे में व्यास समर्थक हारने के वाबजूद उन्हें ही सीएम बनाने पर अड़े थे. लेकिन तब नैतिकता इतनी भी नहीं गुजरी थी. व्यास पर्दे के पीछे चले गए. कुछ वक्त के लिए. सीएम बने पिछली सरकार में उनके डिप्टी रहे टीकाराम पालीवाल.
टीकाराम ने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने हिसाब से दांव चलने शुरू कर दिए. मंत्रिमंडल में व्यास और उनके खास संगठनकर्ता माणिक्य लाल वर्मा की नहीं चली. ये माणिक्य लाल को याद रखिएगा. आगे के किस्से में ये लौटेंगे. जयनारायण व्यास टीकाराम के सब दांव देखते रहे. फिर अपनी चाल चली. किशनगढ़ से विधायक चांदमल मेहता ने इस्तीफा देते हुए जयनारायण व्यास को वहां से उपचुनाव लड़ने का न्योता दिया. व्यास उपचुनाव में जीते.

जयनारायण व्यास का मंत्रिमंडल.
फिर आया दिल्ली से संकेत और टीकाराम पालीवाल ने सीएम पद छोड़ दिया. 1 नवंबर, 1952 को जयनारायण व्यास फिर से राजस्थान के मुख्यमंत्री बन गए. पालीवाल को फिर से डिप्टी सीएम बनाया गया. लेकिन ये शांति और पुनर्वास ऊपरी था. कुछ ही दिन महीनों बाद पालीवाल पद छोड़ गए. अब जयपुर में व्यास और उनके खास मथुरादास माथुर और माणिक्यलाल वर्मा जैसे नेताओं की चलती थी.
अंक 7: सस्ता शेर याद करो, मुझे अपनों ने लूटा...
व्यास के सीएम बनने के दो साल के अंदर ही विधायक बगावती मूड में आ गए. नेहरू का दम अब काम नहीं आ रहा था. बागी विधायक एक 38 साल साल के युवा विधायक मोहन लाल सुखाड़िया के पीछे जुट गए. विरोध बढ़ा तो हाईकमान ने दखल दिया. विधायक दल की मीटिंग हुई और करीबी मुकाबले में व्यास हार गए.
कैसे हार गए व्यास. दो साल में अचानक क्या हो गया. सब बताएंगे. पहले व्यास रचित ये कविता सुनिए
मैंने तो अपने हाथों से अपनी चिता जलाई,
देख-देख लपटें मैं हंसता तू क्यों रोता भाई.
आपने माणिक्यलाल और मथुरादास का जिक्र सुना था. अब कुछ और जान लीजिए. माणिक्य लाल राजस्थान बनने से पहले मेवाड़ राज्य के मुख्यमंत्री थे. उदयपुर से सियासत करते थे. कुछ बरस तो वो व्यास के पीछे खडे रहे मगर फिर राजनीतिक महात्वाकांक्षा कुलबुलाने लगी. अब उन्हें चाहिए था कोई जो अंतःपुर के भेद जानता हो. एंटर मथुरादास. जोधपुर से आने वाला जयनारायण का खास. उनकी सरकार में मंत्री. जिन पर उस दौर में भ्रष्टाचार के इल्जाम लगे. माणिक्यलाल और मथुरादास एक हो गए.

माणिक्यलाल वर्मा और मथुरादास माथुर. पहले व्यास के करीबी रहे और फिर इनकी वजह से ही व्यास की गद्दी गई.
उन्होंने पहले निपटाया टीकाराम को. जब टीकाराम ने व्यास के लिए गद्दी छोड़ी तो जयनारायण ने उन्हें अपनी नई सरकार में फिर डिप्टी सीएम बना दिया. मगर माणिक्य और मथुरा को ये अखर गया. उन्हें ये भी बुरा लग रहा था कि जयनारायण अब रामकरण जोशी को ज्यादा तवज्जो दे रहे थे. ये भी उस सरकार में एक मंत्री थे.विवाद बढ़ने लगा. माणिक्य-मथुरा ने पहला वार किया. राज्यसभा के चुनाव में कांग्रेस विधायकों के एक ग्रुप ने कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार को वोट कर दिया. व्यास ने पलटवार किया. 22 विपक्षी विधायकों को कांग्रेस में ले आए.
अब तलवारें खुले में बाहर थीं. विधायकों ने मोहनलाल सुखाड़िया को अपना नेता प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया. बार बार दिल्ली जाकर विधायकों के जत्थे शिकायत करने लगे.आजिज आकर नेहरू ने दिल्ली से अखिल भारतीय कांग्रेस के महासचिव बलवंत राय मेहता को पर्यवेक्षक बनाकर जयपुर भेजा. विधायकों की राय जानने के लिए. यहीं पर वोटिंग हुई और व्यास हार गए.
नतीजे सुनने के बाद हॉल से निकलते व्यास एक बार पलटे. देखा, कल तक जो साथ थे अब वे पाले के उस पार जश्न मना रहे थे. माणिक्य लाल-मथुरा दास.मगर अभी करुणा का सार्वजनिक प्रदर्शन, भौंडा ही सही. कुछ बाकी था. व्यास बाहर आए तो सरकारी गाड़ी में नहीं बैठे. तांगा मंगवाकर सरकारी आवास गए. खुद ही सामान चादरों में बांधने लगे.तभी दरवाजे पर अर्दली आया और बोला, सुखाड़िया जी आए हैं. कांग्रेस विधायक दल के नए नेता जयनारायण का आशीर्वाद लेने आए थे. और उनके साथ, माणिक्य लाल-मथुरादास.

व्यास के बाद सीएम बने सुखाड़िया लगातार 17 सालों तक सीएम रहे.
दोनों व्यास के पैर छू फूट फूट रोने लगे.व्यास को पता था. सब तात्कालिक है. उन्होंने तांगे पर सामान लदवाया और दोस्त केसूजी के घर रहने चले गए.
अब सूर्य अस्ताचल को था. जयनारायण व्यास एक बार राज्यसभा सांसद बने. दो साल प्रदेश अध्यक्ष भी रहे. मगर सत्ता का केंद्र अब उनकी नजर से ओझल हो चुका था. जीवन भी ओझल हुआ. मार्च 1963 में. दिल्ली में.
मुख्यमंत्री के अगले एपिसोड में देखिए उस लड़के की कहानी, जिसने शादी की तो विरोध में पूरा शहर बंद रहा. जो लगातार 17 साल सीएम रहा. उत्तर भारत की सियासत के लिहाज से ये एक रेकॉर्ड है, जो आज तक कायम है.
वीडियो- कदांबी शेषाटार वेंकटाचार: IAS होते हुए राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने वाले नेता की कहानी