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छत्तीसगढ़ में 'धान' बनाएगी और बिगाड़ेगी सरकार, राज्य में इसकी अहमियत समझ लीजिए

एक ओर जहां राज्य में धान उत्पादन का रकबा बढ़ा है, वहीं दलहन फसलों का रकबा बीते सालों में लगातार घटा है. ऐसे में धान पर राजनीति कितनी सही है?

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चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ में धान के किसानों के बीच पहुंचे थे (फ़ोटो- सोशल मीडिया)

छत्तीसगढ़ देश में ‘धान का कटोरा’ नाम से प्रसिद्ध है. राज्य के विधानसभा चुनाव 2023 में धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) चर्चा का विषय रहा. धान, छत्तीसगढ़ की मुख्य फसल होने के साथ प्रदेश के आम जनमानस की थाली का भी एक अभिन्न हिस्सा है. अगर उत्पादन के नजरिये से देखें तो देश में धान के उत्पादन में छत्तीसगढ़ का स्थान छठा है. छत्तीसगढ़ की 80 प्रतिशत से अधिक जनता कृषि पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर है.

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विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा और कांग्रेस दोनों ने अपने घोषणा पत्र में धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाकर देने की घोषणा की. धान की MSP पर दोनों पार्टियों की घोषणा की चर्चा देशभर में रही. कांग्रेस ने जहां धान खरीदी पर प्रति क्विंटल 3200 रूपये और प्रति एकड़ 20 क्विंटल धान खरीदी का वादा किया है. वहीं, भाजपा ने प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान 3100 रूपये के भाव से ख़रीदने के साथ-साथ एकमुश्त राशि भुगतान करने की घोषणा की है.

छत्तीसगढ़ राज्य बनने को 23 बरस पूरे हो चुके हैं. यह राज्य का चौथा विधानसभा चुनाव है. इस चुनाव से पहले दोनों पार्टियों के एजेंडे में कभी किसान वोटर्स इतनी प्रमुखता से नहीं रहे हैं. हालांकि साल 2018 में कांग्रेस की धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रति क्विंटल 2500 रुपये और किसानों की कर्जमाफी की घोषणा ने उसे अप्रत्याशित सफलता दिलाई थी. पिछले चुनाव में कांग्रेस ने 68 सीटों पर जीत हासिल कर सरकार बनाई और 15 वर्षों से सत्ता पर काबिज भाजपा को उसके न्यूनतम प्रदर्शन 15 सीटों के आंकड़े पर पहुंचा दिया था.

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राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, साल 2018 में करीब 16 लाख पंजीकृत धान उत्पादक किसान थे, वहीं 2023 में यह संख्या 26 लाख तक पहुंच गई है. इससे यह स्पष्ट होता है कि धान के बढ़े हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य (पहले 2500 रूपये और वर्तमान में 2640 रूपये) से किसानों को आर्थिक लाभ पहुंचा है. इसके कारण अधिक से अधिक किसानों ने धान की खेती शुरू की है. छत्तीसगढ़ के फसल चक्र में यह बदलाव भी दिखाता है कि इससे धान के किसानों की आमदनी बढ़ी है.

दलहन फसलों का रकबा घटा

एक ओर जहां राज्य में धान उत्पादन का रकबा बढ़ा है, वहीं दलहन फसलों का रकबा बीते सालों में लगातार घटा है. राज्य सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2016-17 में 8,13,835 हेक्टेयर में दलहन फसलें बोई जाती थीं. वहीं साल 2021 तक यह आंकड़ा घटकर 6,62,635 हेक्टयर हो चुका है. राज्य में फसल विविधता अच्छी थी, जहां सोयाबीन, चने, अरहर, मूंग जैसी फसलें बोई जाती थी. आज इन फसलों का उत्पादन छत्तीसगढ़ में लुप्तप्राय हो चुका है. इससे मांग और पूर्ति के बीच असंतुलन भी पैदा हुआ है. 

इस तरह छत्तीसगढ़ के फसल चक्र में अप्राकृतिक परिवर्तन और एकफसलीय धान की खेती से फसल में स्पाइडर माइट और रेड माइट जैसे कीटों का प्रकोप भी बढ़ा है. इससे पहले राज्य में यह नहीं देखा जाता था. विभिन्न कीटों से फसलों को बचाने के लिए किसानों को अतिरिक्त कीटनाशक का प्रयोग करना पड़ रहा है.

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छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में फसल बचाने के लिए मज़बूरी में किसानों ने तय मात्रा से अधिक कीटनाशकों का प्रयोग शुरू कर दिया है. इससे न केवल उनके उत्पादन की लागत बढ़ी है बल्कि हानिकारक कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग ने स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के एक नये संकट के बारे में सोचने के लिए मजबूर किया है.

आज भारत के दलहन और तिलहन फसलों की मांग और आपूर्ति में बहुत अंतर है. वर्तमान में, भारत अपनी घरेलू खाद्य तेल खपत का सिर्फ 44 प्रतिशत हिस्सा का ही उत्पादन करता है. कृषि प्रधान देश होने के बावजूद भारत सालाना करीब 1.6 लाख करोड़ रुपये के खाद्य तेल, इंडोनेशिया, मलेशिया आदि देशों से मंगवाता है. साथ ही 18 हजार करोड़ रुपये से अधिक की दालें अफ्रीका, कनाडा आदि देशों से आयात कर रहा है. इस तरह ना केवल हम अपनी खाद्य पदार्थों के लिए विदेशों पर आश्रित हैं, बल्कि देश को बहुमूल्य विदेशी मुद्रा इन पर खर्च करना पड़ता है.

दलहन की फसलों पर कम जोर

आजादी के बाद देश में परिस्थितियों के अनुरूप खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता थी, उस पर जोर भी दिया गया. धान, गेहूं आदि फसलों का रकबा और उत्पादन दोनों बढ़ा. लेकिन दलहन और तिलहन दोनों फसलों की बहुत उपेक्षा हुई. आज नतीजा यह है कि दोनों मामलों में हम विश्व के सबसे बड़े आयातक देशों में एक हैं. दाल का उदाहरण देखें, तो अरहर भारत में सबसे ज्यादा उपयोग की जाने वाली दालों में से एक है. इसकी खुदरा कीमत 170 से 200 रुपये किलो तक पहुंच गई है. अगर सरकारी आंकड़ों की बात करें तो पिछले एक साल में ही अरहर दाल का दाम प्रति किलो 39 रुपये बढ़ गया है.

जहां तक देश में चावल के बफर स्टॉक की बात की जाए, तो FCI गोदामों भारत की आवश्यकता से करीब तीन गुना अधिक चावल बफर स्टॉक के रूप में उपलब्ध है. PDS में चावल वितरण के बाद भी देश में बड़ी मात्रा में चावल का स्टॉक उपलब्ध रहता है. ना केवल इसके भंडारण में देश को एक बड़ी राशि खर्च करनी पड़ती है, बल्कि कीट-पतंगों, चूहों आदि से इन गोदामों में बड़ी मात्रा में चावल का प्रतिवर्ष नुकसान हो जाता है.

ध्यान देने वाली बात है कि इन नुकसानों का वहन देश की आम जनता के टैक्स के पैसों से ही किया जाता है. जहां इतनी बड़ी मात्रा में देश को दलहन और तिलहन का विदेशों से आयात करना पड़ता हो, धान का उत्पादन आवश्यकता से बहुत अधिक मात्रा में हो, वहां सरकारों की नीतियां राजनीतिक हित को साधने के लिए सिर्फ एक फसल, धान को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से बनाया जाना, कहीं से भी नीतिसंगत नहीं जान पड़ता.

सरकारों को कृषि की नीतियां त्वरित राजनैतिक लाभ के उद्देश्य से बनाने के बदले लंबे समय में देश की जरूरतों और किसानों के हित को ध्यान में रखते हुए बनानी चाहिए. छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव का परिणाम आगामी 3 दिसंबर को आ जाएगा. प्रदेश में जिस भी पार्टी की सरकार बनती है, उनकी यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह किस तरह से देश की जरूरतों के अनुरूप अपनी कृषि नीतियां बनाती है.

आने वाली सरकार को किसानों के लिए दलहन और तिलहन फसलों को प्रोत्साहन देने, उचित समर्थन मूल्य के साथ-साथ, उत्पादन की उन्नत बीज, वैज्ञानिक तकनीकी आदि उपलब्ध करने की दिशा में काम करने की जरूरत है. वर्तमान में छत्तीसगढ़ में 2 कृषि विश्वविद्यालय हैं. कृषि विश्वविद्यालय के नियमित अनुसंधानों के अलावा किस तरह से दलहन और तिलहन की उन्नत किस्में, उन्नत तकनीक विकसित करने की ओर रिसर्च के काम को बढ़ावा दे सकती है. इन अनुसंधानों पर होने वाले अतिरिक्त आर्थिक खर्च के लिए आगामी सरकार की नीतियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रहने वाली है. 

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(ये स्टोरी निखिल तिवारी ने लिखी है, जो इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर में रिसर्चर हैं. यहां लिखे गए उनके विचार निजी हैं.)

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