The Lallantop

आप हम अब इतनी सेल्फी क्यों लेने लगे हैं?

डीपी, सेल्फ़ी और हमारे 'आइडिया ऑफ सेल्फ' के बारे में पूरी नॉलेज यहीं मिलेगी मेरे वर्चुएल साथियों...

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फोटो - thelallantop
sushobhitफेसबुक पर डीपी हम बदलते ही रहते हैं. कुछ लोग डीपी नहीं भी लगाते. लोगों को पहचानने का एक तरीका तस्वीर भी है. अब लोग मिलते हैं, तो कहते हैं- हां हम फेसबुक पर जुड़े हुए हैं. डीपी काम कर जाती है. लेकिन अगर उस दौर बात करें, जब वर्चुअल स्पेस नहीं था. तब, तब क्या होता था. या जो ये सेल्फी युग है. ऐसा क्यों है. ये सब बताएंगे सुशोभित सक्तावत. सुशोभित सक्तावत इंदौर में रहते हैं. दी लल्लनटॉप के लिए लिखते रहे हैं. आप भी पढ़िए उनका  फेसबुक पर लिखा ये पीस.
  फेसबुक पर डीपी होती है, Whatsapp, Twitter और Gmail पर भी. ये अब इतना सहज है कि कोई इस पर ध्यान भी नहीं देता. जबकि हमें अंदाज़ा नहीं है पहले जब वर्चुअल स्पेस नहीं था तब किसी सार्वजनिक आइडेंटिफाइंग स्पेस को क्लेम करना कितना दुर्लभ होता था. अख़बार, इश्तिहार या ज़ाहिर सूचना में हमारे चेहरे के होने का रोमांच. अनेक ऐसी मैगज़ीन निकलती थीं, जिनमें सामग्री तो होती थी किंतु Text को own नहीं किया जाता था. "The Economist" नामक लब्धप्रतिष्ठ पत्रिका में तो आज भी बाइलाइंस तक नहीं छपती हैं, लेखक की तस्वीरें तो दूर. संपादक मंडल का नाम भर एक जगह होता है. "दिनमान" में अनेक लेख अनसाइंड होते थे और पता लगाना कठिन था कि कौन-सा लेख श्रीकांत वर्मा का है और कौन-सा सर्वेश्वर का (अलबत्ता शैली उनकी पहचान की चुगली कर देती थी). संपादक तक अमूमन अपने नाम के केवल इनिशियल्स लिखते थे, जैसे र.स. (रघुवीर सहाय). लेव तॉल्सताय का तो पहला नॉवल ("Childhood") unsigned ही था. "सोव्रेमेन्निक" पत्रिका ने उसे महज़ उनके नाम के इनिशियल्स ल.न. (लेव निकोलायेविच) से ही छापा था. (अनेक philosophical texts जैसे उपनिषद अहस्ताक्षरित ही हैं). जबकि असंख्य ऐसे लेखक थे, जो छद्मनामों से लिखते थे, जैसे नागपुर से छपने वाले पत्र "नया ख़ून" में ग.मा.मुक्तिबोध के अनेक (आज तलक) असंकलित लेख. जब पहले-पहल लेख के साथ लेखक की तस्वीर छापने की शुरुआत हुई तो इसने कइयों को असहज किया था. "द हिंदू" में तो ऐन अभी तक लेख के साथ लेखक का चित्र नहीं छापा जाता था. अब उसने भी वैसा शुरू कर दिया है. लेकिन text की सचित्र ownership कोई ऐसी चीज़ नहीं रही है, जो हमेशा से सर्वस्वीकृत सत्य रही हो. और social media ने जिन अनेक संकोचों को तोड़ा है यह उनमें से एक है. जबकि पहले एक public space में किसी text को own करना एक ऐसी "लग्ज़री" थी, जिसे हर कोई "अफ़ोर्ड" नहीं कर सकता था.
आज हम डीपी बदलते वक़्त इन परिप्रेक्ष्यों के बारे में संभवतः सोचते नहीं. और हालांकि Facebook या Twitter सोशल नेटवर्क के माध्यम हैं किंतु अनेक लोग इनका इस्तेमाल एक publishing space या ब्लॉग की तरह ही करते हैं. सोशल नेटवर्किंग जैसी समकालीन परिघटना बिना personalization के संभव नहीं है और अपने लेखन को भी personalize या own करना यूं तो निरापद ही है, किंतु मेरा मंतव्य एक परिप्रेक्ष्य में किन्हीं पूर्वनियत मानकों के प्रकाशन का है.
दूसरे स्तर पर Selfie परिघटना है जो अपने वृहद प्रसार में किसी epidemic के समकक्ष है. इसमें दो ऐतिहासिक कालखंड हैं : "Other's gaze" का वह दौर, जब हमारी तस्वीरें उतारी जाती थीं, कभी पूछकर, कभी बिन पूछे. और फिर "Self's appreciation" का यह दौर, जिसमें हम स्वयं की तस्वीरें उतारते हैं, बहुधा Others की अनुशंसा के लिये ही. "Look, this is me" का सर्वव्यापी उद्घोष. Narcissism के सिद्धांतों में अभी जाऊंगा नहीं क्योंकि अभी वह हमारा विषय नहीं है. इसके बजाय हमारा विषय है : "The idea of self." मसलन, यह पूरी तक़रीर एक ही बिंदु पर एकाग्र है : हमारे "Idea of self" के केंद्रीय उपकरण के रूप में हमारा "चेहरा". हमारी "प्रोफ़ाइल तस्वीर", "डिस्प्ले पिक", "सेल्फ़ी" इत्यादि. आप यह सोचकर आश्चर्य करेंगे कि यह उपकरण कितना आकस्मिक और सांयोगिक है. चूंकि आंखें कभी स्वयं को नहीं देख सकतीं, इसलिये अगर आईने, प्रतिबिम्ब और तस्वीरें ना होतीं तो हम कभी नहीं जान पाते कि हम कैसे दिखते हैं. कभी भी नहीं. मृत्युपर्यंत नहीं. हम सबको देखते, सब हमें, पर अपना ही चेहरा हमें अनजान होता.
सवाल है तब हमारा "Idea of self" कैसा होता? क्या वह भय, उल्लास, कामना, गर्व, क्षोभ के अमूर्त भावों का एक जमाजोड़ नहीं होता? बिना डीपी की एक प्रोफ़ाइल? बिना तस्वीर का एक लेख (जबकि नाम भी सांयोगिक ही होता है)? जिसमें पाठ की ही केंद्रीय सत्ता का संकेत हो, अन्यथा नहीं.