गुजरात में हैं पाटन डिस्ट्रिक्ट. वहां की एक एथलीट है काजल परमार. स्टेट और नेशनल लेवल पर मेडल्स जीत चुकी है. लेकिन गरीबी की वजह से उसको अपने सारे मेडल और सर्टिफिकेट बेचने पड़ रहे हैं. काजल का परिवार बहुत गरीब है. परिवार में 6 लोग हैं. कमाने वाले सिर्फ उसके पिता हैं. वो भी किसी और के खेत में मजदूरी करते हैं. काजल को हमेशा से स्पोर्ट्स में बहुत इंटरेस्ट था. उसके पापा ने भी उसको हमेशा सपोर्ट किया. काजल भाला फेंक, गोला फेंक और डिस्कस थ्रो में वर्ल्ड फेमस होना चाहती थी. हमेशा अपने खेल में बहुत अच्छा परफॉर्म करती थी. नेशनल और स्टेट लेवल पर वो अब तक कुल 44 मेडल्स और सर्टिफिकेट्स जीत चुकी है. स्कूल लेवल पर 12 गोल्ड मेडल, 2 सिलवर और 3 ब्रौंज़ मेडल जीते. 2014-15 में कर्नाटक और रांची में कम्पटीशन हुआ. उसमें काजल ने भालाफेंक में ब्रौन्ज़ मेडल जीता.
लेकिन अब घर की हालत बहुत खराब हो चुकी है. इसलिए काजल ने तय किया कि वो अपने सारे मेडल्स और सर्टिफिकेट बेच देगी. हो सकता है इससे उसके परिवार की कुछ मदद हो जाए.
काजल आगे भी स्पोर्ट्स में अपना करियर बनाना चाहती थी. लेकिन परिवार की वजह से उसे अपने फ्यूचर का सपना छोड़ना पड़ गया. इसके साथ ही अपने जीते हुए मेडल्स भी बेचने पड़ रहे हैं. काजल का कहना है उसने सरकार को कई बार चिट्ठियां लिखी. कई अर्जियां दिन. लेकिन ना कोई जवाब आया. ना ही कोई मदद मिली. काजल के अलावा और भी ऐसे बहुत सारे खिलाड़ी हैं. जिनको गरीबी की वजह से अपना स्पोर्ट्स करियर छोड़ना पड़ा. ना उनको गवर्नमेंट से मदद मिली ना खेल बोर्ड से. 2006 के दोहा एशियाड खेलों में
शांति सुंदराजन ने सिल्वर मेडल जीता था. लेकिन उसके बाद वो जेंडर टेस्ट में फ़ेल हो गयी थीं. उनपर बैन लग गया. उसके बाद वो कभी किसी रेस में दौड़ नहीं पायीं. अब वो एक ईंट के भट्टे में काम करती हैं. उनके पापा-मम्मी भी उसी भट्टे में मजदूर हैं. पहले वो कोचिंग में बच्चों को एथलेटिक्स सिखाती थीं. वहां उनको महीने में 5 हजार रुपए सैलरी मिलती थी. उन्होंने डीएम से चपरासी की नौकरी देने की भी मांग की. लेकिन उनको नौकरी नहीं मिली. इस वजह से अब उनके पूरे परिवार को 200 पर-डे के हिसाब से ईंट की भट्टी में मजदूरी करनी पड़ रही है.

रीवा की
सीता साहू को 2011 के एथेंस स्पेशल ओलंपिक में 2 कांस्य पदक मिले थे. लेकिन घर की हालत ऐसी कि स्पोर्ट्स आगे जारी नही रख सकतीं. अगर रखें तो उसमे कोई कमाई भी नहीं थी. उनको गोलगप्पे की दुकान खोलनी पड़ गई थी.

बहुत सारे जाने-अनजाने खिलाड़ी हैं. जिन्होंने सपने देखा होगा. इंटरनेशनल खेलों में इंडिया की तरफ से पार्टिसिपेट करने का. कईयों ने तो इंटरनेशनल लेवल पर मेडल्स भी जीते हैं. हमे बुरा लगता है जब मरिया शारापोवा कहती हैं कि वो सचिन को नही जानतीं. लेकिन हमारे देश के इन खिलाड़ियों को ना तो हम पहचानते हैं और ना ही हमारी गवर्नमेंट.