क्रिकेट भारत में धर्म की तरह माना जाता है, और इसे खेलने वालों को भगवान जैसा. लेकिन एक समय था, जब ये खेल धर्मों के बीच में ही फंसकर रह गया था. करीब 100 साल पहले मजे-मजे में इसे धर्मों के बीच की प्रतिस्पर्धा बना दिया गया. 30 साल तक ऐसा ही चलता रहा. इसने नजरिया ही बदल दिया था, खेल की तरह नहीं, दो धर्मों के बीच की जंग की तरह क्रिकेट को देखा जाने लगा था. जब मुल्क आजादी की दहलीज पर पांव रखने वाला था, तब घुटन महसूस हुई. लगा कि जो कर दिया, वो बहुत गलत था. तब मोहम्मद अली जिन्ना जैसे मुस्लिम लीग के नेता अपने फायदे के लिए क्रिकेट का सहारा लेने लगे थे. बरगलाने लगे थे. सबको गलत होते दिख रहा था, पर कोई खेल बंद करने को तैयार नहीं था. क्योंकि इसके प्रशासकों को तगड़ा पैसा मिल रहा था. साल में महज दो-तीन महीने क्रिकेट में धर्म का ये तड़का उनकी झोली भर देता था, मालामाल कर देता था. फिर पानी सर से ऊपर जाता देख, वो शख्स खड़ा हुआ जिसे उस समय सांप्रदायिकता से सबसे ज्यादा नफरत थी. बोला- बहुत हुआ बंद कीजिए अब इसे.