1932 की बात है. आज के बिहार का बेतिया. नेपाल की तराई से सटे इस कस्बे में नवम्बर का महीना कुछ ठंडक देने लगता है, सो हल्की धूप में कस्बे के बीचोंबीच मौज़ूद मीना बाज़ार सुस्ताते हुए आंखें खोल रहा था. दो नौजवान आपस में बतिया रहे थे. इनमें से एक को लोग ‘घोष दा’ कहते थे. अचानक दो लोग आए और जानलेवा हमला किया. घायल अस्पताल पहुंचाए गए और हमलावर भागे. हफ़्ते भर में घायल घोष दा ने दम तोड़ दिया. भागने वाले का एक सुराख़ मिला, गांव जलालपुर, थाना लालगंज, जिला मुजफ्फरपुर, बिहार. ये पता था सुकुल का. सुकुल खुद क्रांतिकारी थे और उन्होंने जिसे मारा था, वो भी क्रांतिकारी कहलाता था.जी हां, कहलाता था. सुकुल और तमाम हिन्दुस्तानियों की नज़र में घोष गद्दार थे क्योंकि उन्होंने शहीद-ए-आज़म की सज़ा मुकर्रर होने के लिए गवाही दी थी. ख़ैर, घोष अकेले नहीं थे, कुछ और गद्दार थे. कौन थे ये घोष? और कौन-कौन शामिल था इस षड्यंत्र में? किसकी बोली कितने में लगी? क्या भगत सिंह और उनके साथी बच सकते थे? जानने के लिए देखें तारीख का ये एपिसोड.
तारीख: किस गद्दार की गवाही से हुई थी भगत सिंह को फांसी?
7 अक्टूबर, 1930 को, स्पेशल ट्रिब्यूनल ने सेंट्रल जेल लाहौर में ही अपना 300 पेज लम्बा फैसला सुनाया. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई. फांसी तयशुदा तारीख से पहले हुई.
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