भारत और चीन का झगड़ा सिर्फ़ बॉर्डर तक सीमित नहीं है. चीन, बौद्ध धर्म के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा को लेकर भी नाराज़ रहता है. उसने 1959 में तिब्बत पर हमला किया था. दलाई लामा के साथ लगभग 80 हज़ार तिब्बती भागकर भारत आए. उन्हें हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में शरण मिली. यहां से तिब्बत की निर्वासित सरकार चलती है.
8 साल के बच्चे से चीन इतना घबराता क्यों है?
दलाई लामा के करीबी इस बच्चे ने चीन की नींद कैसे उड़ाई?


2011 तक दलाई लामा इस सरकार के मुखिया थे. बाद में पद छोड़ दिया. मगर तिब्बती बौद्ध धर्म के प्रतीक बने रहे. जैसे-जैसे उनकी उम्र ढल रही है, उनके उत्तराधिकार की बहस तेज़ हो गई है. असल में दलाई लामा एक पदवी है. जो 15वीं सदी से चली आ रही है. मौजूदा दलाई लामा लिस्ट में 14वें हैं. उनका असली नाम तेन्ज़िन ग्यात्सो है.
परंपरा के हिसाब से, नए दलाई लामा, पिछले दलाई लामा के अवतार माने जाते हैं. मान्यता है कि मरने के बाद उनकी आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश करती है. पुनर्जन्म का पता कैसे चलता है? ये बताने के लिए पंचेन लामा होते हैं. उन्हें ज्ञान का अवतार माना जाता है. तिब्बत में दूसरे सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति. लेकिन जिस पंचेन लामा को 15वां दलाई लामा चुनना था. उसे 1995 में चीन ने किडनैप कर लिया. फिर अपना पंचेन लामा बिठा दिया. तिब्बत की अधिकांश जनता उसको फर्ज़ी मानती है. दलाई लामा भी उसको नहीं मानते.
चीन की चालबाज़ी को चुनौती देने के लिए दलाई लामा ने नया रास्ता निकाला. उन्होंने मार्च 2023 में मंगोलिया के एक बच्चे को बोग्ड के तौर पर पेश किया. बोग्ड, तिब्बती बौद्ध धर्म की परंपरा में तीसरे सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति होते हैं. मंगोलिया की आधी आबादी बौद्ध धर्म को मानती है. वे बोग्ड के आगे सिर झुकाते हैं. और, बोग्ड की दलाई लामा से करीबी रही है. जानकारों का मानना है कि दलाई लामा के बाद वो बौद्ध धर्म के सबसे बड़े लीडर हो जाएंगे. इस तरह फर्ज़ी पंचेन लामा के ज़रिए तिब्बत को कंट्रोल करने की चाल धराशायी हो जाएगी. इससे चीन को बड़ा झटका लगा है. उसने बैकडोर से मंगोलिया को धमकाया है. कहा है कि अगर बोग्ड ने दलाई लामा के क़रीब जाने की कोशिश की तो अंज़ाम बुरा होगा.
तो, आइए समझते हैं,
- बोग्ड से चीन की परेशानी क्या है?
- चीन और दलाई लामा के बीच मंगोलिया कहां से आया?
- और, दलाई लामा का उत्तराधिकारी कौन हो सकता है?
सितंबर 2023 में ताइवान से कुछ बौद्ध श्रद्धालु धर्मशाला आए. दलाई लामा से मिले. ज्ञान बांचने की दरख़्वास्त की. प्रोग्राम तय हुआ. मगर उससे पहले ख़बर आई कि दलाई लामा बीमार हो गए हैं. डॉक्टरों ने उन्हें आराम करने की सलाह दी है. 04 अक्टूबर को वो ठीक हुए. बाहर आए. प्रवचन भी दिया. लेकिन स्वास्थ्य को लेकर अंदेशा बना हुआ है. मौजूदा दलाई लामा की उम्र 88 बरस हो चुकी है. वो कहते हैं कि मैं सौ बरस से ज़्यादा जीवित रहूंगा. मगर उनके अनुयायी अगला दलाई लामा नियुक्त करने को लेकर बेसब्र हैं. उन्हें आशंका है कि अनहोनी की स्थिति में चीन को अपना दांव खेलने का मौका मिल जाएगा.
इस आशंका की वजह क्या है?
ये समझने के लिए भूगोल और इतिहास जानना होगा.
तिब्बत का पठार. भारत के उत्तर-पूर्व में बसा है. चीन का दक्षिणी बॉर्डर तिब्बत ही है. एक समय में तिब्बत संप्रभु देश हुआ करता था. अपनी सेना थी. वे पड़ोसी देशों से समझौते करते थे. युद्ध भी लड़ते थे. फिर चौथी सदी आई. अपने साथ बौद्ध धर्म लाई. जैसे ही लोगों ने बौद्ध धर्म का मर्म समझा, पूरा लब्बोलुआब बदल गया. दलाई लामा ने अपनी आत्मकथा ‘Freedom in Exile’ में लिखा,
‘तिब्बत के लोग स्वभाव से आक्रामक और युद्धप्रिय थे, लेकिन बौद्ध धर्म ने उन्हें सबसे अलहदा बना दिया. जैसे-जैसे उनकी रूचि बौद्ध धर्म में बढ़ी, बाकी देशों से उनके संबंध राजनीतिक की बजाय आध्यात्मिक होते चले गए.’
फिर 13वीं सदी में मंगोलों ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया. उन्हीं के टाइम पहले दलाई लामा का जन्म हुआ. उनका नाम पेमा दोरजी था. दीक्षित होने के बाद गेदुन द्रुपा का नाम मिला.
दलाई लामा की पदवी मंगोल शासक अल्तान ख़ान ने 1557 में शुरू की. प्रतापी राजा दलाई ख़ान के नाम पर. दलाई का अर्थ होता है समंदर. लामा का मतलब गुरू. जब दलाई लामा की उपाधि अस्तित्व में आई, उस समय सोनम ग्यात्सो तिब्बत के सर्वोच्च धर्मगुरू थे. वो तीसरे दलाई लामा बने. गेदुन द्रुपा को मरणोपरांत ‘पहला दलाई लामा’ घोषित किया गया.
उसी समय सवाल उठा कि चौथे दलाई लामा का पता कैसे चलेगा?
इसके लिए पंचेन लामा की व्यवस्था लाई गई. बताया गया कि दलाई लामा के सामने ही एक पंचेन लामा का चुनाव होगा. और, वो मौजूदा दलाई लामा की मौत के बाद अगले को चुनेंगे. ये परंपरा चलती गई.
मौजूदा दलाई लामा के पुनर्जन्म का सपना 09वें पंचेन लामा ने देखा था. उसी के आधार पर तेन्ज़िन ग्यात्सो को तलाशा गया था. इसके कुछ समय बाद ही 09वें पंचेन लामा की मौत हो गई.
10वें पंचेन लामा चीन के क़रीबी थे. उनके टाइम ही माओ की सेना ने तिब्बत पर चढ़ाई की. दलाई लामा को भागना पड़ा.
जब दलाई लामा तिब्बत से भारत आए, पंचेन लामा वहीं रह गए. माओ के साथ काम किया. लेकिन बाद में रिश्ते ख़राब हो गए. उन्हें जेल में बंद कर दिया गया. 1989 में उनकी मौत हो गई. इसके बाद 11वें पंचेन लामा की तलाश हुई. गेदुन च्योकी न्यीमा नाम के बच्चे को चुना गया. 1995 में दलाई लामा ने भी मंज़ूरी दे दी. लेकिन कुछ महीने बाद ही चीन ने गेदुन और उनकी फ़ैमिली का अपहरण कर लिया. उनका अभी तक कोई पता नहीं चल सका है.
गेदुन की जगह पर चीन ने अपना पंचेन लामा नियुक्त किया. दावा किया कि वो अगले दलाई लामा का चुनाव करेंगे. लेकिन उनको पर्याप्त समर्थन नहीं मिला है. तिब्बत के निर्वासित लेखक भुचुंग डी. सोनम ने अक्टूबर 2023 में वॉशिंगटन पोस्ट में लिखा,
‘तिब्बती लोग उन्हें चीनी पंचेन कहते हैं. उन्हें नकली मानते हैं. वो कभी-कभार तिब्बत आते हैं. उनके साथ सरकारी मीडिया, सुरक्षा कर्मियों और बीजिंग समर्थक तिब्बती भिक्षुओं का पूरा काफ़िला चलता है. उनके उपदेशों में लोगों को बुलाने के लिए चीनी सरकार को रिश्वत देनी पड़ती है.’
दलाई लामा के निर्वासन के बाद तिब्बतियों को कुछ स्वायत्तता दी गई. लेकिन ये पर्याप्त नहीं था. चीन ने कभी तिब्बतियों का दिल नहीं जीता. उसने तिब्बत की मूल पहचान पर चोट किया. बड़ी संख्या में हान लोगों को बसाया. हान, चीन के मूल निवासी माने जाते हैं.
बच्चों को घर-परिवार से दूर बोर्डिंग स्कूलों में रखने पर मज़बूर किया गया. वहां उन्हें चीनी संस्कृति में ढालने की कोशिश होती है. स्थानीय लोगों की लगातार निगरानी की जाती है. उन्हें प्रोटेस्ट करने से रोका जाता है.
इसके अलावा, दलाई लामा के प्रति निष्ठा को अपराध घोषित कर दिया गया. तिब्बत में लोग उनका जन्मदिन नहीं मना सकते. फ़ोन में तस्वीर तक नहीं रख सकते.
2007 में चीनी सरकार ने एक आदेश जारी किया. कहा, केवल कम्युनिस्ट पार्टी को बौद्ध लामाओं को चुनने का अधिकार है. इसे चीन से बाहर का कोई व्यक्ति या समूह प्रभावित नहीं कर सकता. हालांकि, अमेरिका समेत कई देश ऐसा नहीं मानते. वे कहते हैं कि तिब्बत की निर्वासित जनता और दलाई लामा को अपना अधिकारी नियुक्त करने का हक़ है.
तिब्बत की क़ैद में रह रही और निर्वासित जनता को उम्मीद है कि किसी रोज़ आज़ादी का सपना पूरा होगा. वे पिछले सात दशकों से संघर्ष कर रहे हैं. दलाई लामा इस संघर्ष के सबसे बड़े प्रतीक हैं. हालांकि, वो अब पूर्ण आज़ादी की बजाय ऑटोनॉमी की मांग कर रहे हैं.
मगर चीन इसके लिए भी तैयार नहीं है. उसकी कोशिश है कि दलाई लामा के चुनाव को कंट्रोल कर बची-खुची उम्मीद को खत्म कर दिया जाए. इसी साज़िश के तहत उसने असली पंचेन लामा की किडनैपिंग की और अपना बिठाया. अगर मौजूदा दलाई लामा के रहते एक सर्वमान्य पंचेन लामा का चुनाव नहीं हुआ तो चीन की राह आसान हो जाएगी.
अब सवाल ये उठता है कि, इस मामले में मंगोलिया का बच्चा कहां से आया?
पहले कुछ बेसिक क्लीयर कर लेते हैं.
मंगोलिया, चीन के उत्तर में बसा है. हर तरफ़ से ज़मीन से घिरा हुआ है. दुनिया का सबसे बड़ा लैंड-लॉक्ड देश है. चीन के अलावा सीमा रूस और कज़ाकिस्तान से लगती है.
इसी जगह पर चंगेज़ ख़ान ने मंगोल साम्राज्य की स्थापना की थी. मंगोलों ने वेस्ट एशिया से लेकर चीन और भारत तक पर राज किया. उसी के वंशज बाबर ने 1526 में मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी.
16वीं सदी में ही एक और बड़ी घटना हुई. मंगोलिया में बौद्ध धर्म की एंट्री हुई. सौ बरस के भीतर एक-तिहाई आबादी बौद्ध हो चुकी थी. 17वीं सदी में चीन के चिंग वंश ने मंगोलिया को अपने में मिला लिया. 1911 में चीन में राजशाही खत्म हो गई. चिंग वंश का पतन हुआ. दस बरस बाद मंगोलिया आज़ाद हो गया.
तब तक सोवियत संघ आ चुका था. उसने मंगोलिया को अपने अधीन रखा. सोवियत संघ का पतन हुआ 1991 में. फिर मंगोलिया में नया संविधान बना. लोकतांत्रिक चुनाव हुए और नई व्यवस्था लागू हुई.
फिलहाल, मंगोलिया की आबादी लगभग 34 लाख है. तीन फीसदी लोग मुस्लिम हैं. 40 फीसदी लोग किसी धर्म को नहीं मानते. 52 फीसद बौद्ध हैं. वे बहुसंख्यक हैं. सोवियत संघ के समय उनकी पहचान को खत्म करने की कोशिश हुई थी. मठों को तबाह किया गया. बौद्ध साधुओं को जेल में ठूंसा गया. आज़ाद होने के बाद सरकार ने पहचान वापस लौटाई. धीरे-धीरे ये उनकी राजनैतिक और धार्मिक आस्था में शामिल हो गया.
ये तो हुई मंगोलिया में बौद्ध धर्म की अहमियत.
इस आस्था के शीर्ष पर बैठे शख़्स को बोग्ड कहते हैं. बोग्ड मंगोलिया की पहचान का प्रतीक है. ये परंपरा लगभग 400 बरस पुरानी है.
अमेरिकी अख़बार न्यूयॉर्क टाइम्स में डेविड पियर्सन ने लिखा है,
‘इस परंपरा की शुरुआत मंगोल सम्राट कुबलई ख़ान के वंशजों ने की थी. उन्होंने तिब्बती बौद्ध धर्म अपनाया. और, वे जहां-जहां गए, इसका प्रचार-प्रसार किया. 20वीं सदी की शुरुआत में तिब्बती मूल के बोग्ड मंगोलिया के धार्मिक शासक थे. उन्हें देव-राजा के रूप में सम्मानित किया जाता था. वे आज भी आम जनजीवन का हिस्सा बने हुए हैं. अगर कोई छींकता भी है तो मंगोलियाई लोग कहते हैं, बोग्ड आपकी रक्षा करें!’
शुरुआती दौर में बोग्ड की उपाधि मंगोलियाई शख़्स को मिलती थी. लेकिन चिंग वंश को विद्रोह का डर हुआ. उन्होंने तय किया कि बोग्ड तिब्बत से चुने जाएंगे. जब चिंग वंश का पतन हुआ, तब आठवें बोग्ड का कार्यकाल चल रहा था. 1924 में उनकी मौत हो गई.
उस वक़्त तक सोवियत संघ का शासन चालू हो चुका था. उन्होंने ऐलान कर दिया कि बोग्ड परंपरा का अंत हुआ.
लेकिन 1990 में बड़ा खुलासा हुआ. दलाई लामा ने बताया कि गुप्त तरीके से नौवां बोग्ड चुना जा चुका है. 1936 में ही. वो और दलाई लामा दोस्त थे. दोनों 1959 में चीन से भाग गए थे. और, वे गुमनामी में भारत में रह रहे थे.
2011 में वो मंगोलिया चले गए. एक बरस बाद उनकी मौत हो गई. जाते-जाते उन्होंने वसीयत में लिखा कि उनका पुनर्जन्म तिब्बत की बजाय मंगोलिया में होगा. और, अगला बोग्ड मंगोलिया की बौद्ध जनता को आगे की राह दिखाएगा.
इसी कड़ी में 2015 में अगले बोग्ड की तलाश शुरू हुई. टीम बनी. उन्होंने दलाई लामा से मदद ली. 2014 और 2015 में मंगोलिया की राजधानी उलानबटार में पैदा हुए लड़कों की लिस्ट से 80 हज़ार नाम निकाले. फिर उनमें से 11 नाम चुने गए. 09 परिवारों ने रिप्लाई किया.
फिर बच्चों को एक कमरे में बिठाया गया. उनके सामने कई धार्मिक वस्तुएं रखी गईं. कुछ बच्चे चॉकलेट की तरफ़ आकर्षित हुए. कुछ माता-पिता से दूर होते ही रोने लगे. लेकिन एक बच्चा सबसे अलग था. उसने एक हार और एक घंटी उठाई. ये नौवें बोग्ड का निजी सामान था. उसी समय साधुओं की टीम ने उसको दसवां बोग्ड घोषित कर दिया.
उस बच्चे का नाम है, ए. अल्तन्नार. असल में वो बच्चा जुड़वां है. उसके भाई का नाम भी सेम है. उनकी फ़ैमिली ने असली बोग्ड की पहचान नहीं जाहिर की है. उनका कहना है कि, 18 बरस के बाद लड़के को अपना भविष्य चुनने का अधिकार होगा. फिलहाल, दोनों भाई साथ में रहते हैं. और, धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ रेगुलर पढ़ाई भी करते हैं. उसके घरवाले मंगोलिया के सबसे अमीर लोगों में से हैं.
दसवें बोग्ड का चेहरा भी सात बरस तक छिपाकर रखा गया. फिर मार्च 2023 में उसे भारत लाया गया. दलाई लामा से मिलवाया गया. जब ये ख़बर बाहर आई तो मंगोलिया में ख़ूब जश्न हुआ. लेकिन चीन की भौंहें तन गईं.
CCP ने चीन की सीमाओं के बाहर भी तिब्बती बौद्ध धर्म पर अपना अधिकार जताने की कोशिश की है. दलाई लामा और अल्टन्नार की मुलाक़ात ने उसके दावे को चुनौती दी थी. उसने बाहर से तो कुछ नहीं कहा. मगर भितरखाने में मंगोलिया सरकार को धमकी दी. कहा, दलाई लामा से दूर रहो. बोग्ड को उनसे दूर रखो.
इसने मंगोलिया की मुसीबत बढ़ा दी है. एक तरफ़ उसे अपनी बौद्ध आबादी का मान रखना है, दूसरी तरफ़ अपनी इकोनॉमी भी बचानी है.
मंगोलिया व्यापार और बुनियादी ढांचे में निवेश के लिए चीन पर निर्भर है. राजधानी उलानबटार की सबसे अच्छी इमारतों और ओवरपास में चीन का पैसा लगा है. मंगोलिया दुश्मनी मोल लेने की स्थिति में नहीं है.
इसका एक उदाहरण सुनिए. 2016 में दलाई लामा मंगोलिया गए. वहां उन्होंने बोग्ड की खोज का ऐलान किया. इससे चीन नाराज़ हो गया. उसने दोनों देशों के बीच की सीमा बंद कर दी. टैरिफ़ लगाया और द्विपक्षीय बातचीत कैंसिल कर दी. उसके बाद से दलाई लामा दोबारा मंगोलिया नहीं जा सके हैं.
चीन की नाराज़गी की वजह क्या है?चीन, बौद्ध धर्म पर अपना फ़ुल कंट्रोल चाहता है. सीमा के अंदर भी और बाहर भी. CCP को डर है कि बौद्ध, दलाई लामा को अपना लीडर मानेंगे. और, जब तक ऐसा रहेगा, तब तक तिब्बत की आज़ादी की मांग चलती रहेगी. जानकार मानते हैं कि बोग्ड को मान्यता देकर दलाई लामा ने अपना प्रभाव बढ़ा दिया है. अब उन्हें पंचेन लामा की ज़रूरत नहीं है. इससे चीनी पंचेन की प्रासंगिकता घट गई है.
वैसे भी दलाई लामा ने कहा है कि वो किसी आज़ाद मुल्क में पुनर्जन्म लेंगे. अपने उत्तराधिकारी पर 2025 में ऐलान करेंगे. अगर वो चीन के कंट्रोल से दूर हुआ तो निश्चित ही बड़ा राजनैतिक बवाल होगा. ये इस इलाके की जियोपॉलिटिक्स पर गहरा असर डालेगा.
दलाई लामा के चैप्टर को यहीं पर विराम देते हैं. अब दूसरे हिस्से की तरफ़ चलते हैं.
ये ख़बर जुड़ी है, डिसइन्फ़ॉर्मेशन से.
जैसे-जैसे तकनीक विकसित हो रही है, उसके दुष्प्रभाव भी सामने आ रहे हैं. एक उदाहरण फ़ेक न्यूज़ का है. फ़ेक न्यूज़ से क्या-क्या हो सकता है? नैरेटिव बदला जा सकता है. किसी व्यक्ति को हीरो या किसी को विलेन साबित किया जा सकता है. किसी समुदाय को बदनाम भी किया जा सकता है. इसके भतेरे उदाहरण हमारे आस-पास मौजूद हैं.
फ़ेक न्यूज़ को दो केटेगरी में बांटा गया है.
- पहली है, मिसइन्फॉर्मेशन. जिसे भूल-चूक से शेयर हो गया हो.
- दूसरी केटेगरी है, डिसइन्फ़ॉर्मेशन की. जिसे जान-बूझकर और किसी मकसद के साथ फैलाया गया हो.
आज हम इसकी चर्चा क्यों कर रहे हैं?
क्योंकि अमेरिका ने चीन पर जान-बूझकर फ़ेक न्यूज़ फैलाने और नैरेटिव गढ़ने का आरोप लगाया है. 58 पन्नों की रिपोर्ट के ज़रिए. क्या है इसमें?
चार पॉइंट्स में समझते हैं.
- पहला, चीनी सरकार ने फ़ेक ओपिनियन मेकर्स क्रिएट किए. वे चीन के पक्ष में लिखते हैं. उनके लेख एशिया, अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका के कई बड़े मीडिया संस्थानों में छपते हैं.
- नंबर दो. चीन ने सोशल मीडिया पर अपने ख़िलाफ़ लिखे गए पोस्ट को दबाने के लिए बोट्स और ट्रॉल्स का सहारा लिया. इसके लिए ऑनलाइन आर्मी तैयार की गई है. इनका सहारा समर्थन वाली पोस्ट्स की रीच बढ़ाने में भी होता है.
- नंबर तीन. चीन ने हॉन्गकॉन्ग में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू कराया. ये कानून ऐसे लोगों पर एक्शन लेने की इजाज़त देता है, जो विदेश में रहकर चीनी सरकार और उसकी नीतियों की आलोचना करते हैं.
- नंबर चार. यूक्रेन के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करने में भी चीन ने रूस की मदद की.
अमेरिका ने दावा किया कि चीन अपनी छवि बदलने के लिए अरबों डॉलर्स खर्च कर रहा है.
एक टूर का उदाहरण भी दिया गया. चीन पर शिनजियांग प्रांत में उइगर मुस्लिमों के दमन के आरोप लगते हैं. इसको लेकर पूरी दुनिया में चीन की लानत-मलानत होती है.
इसलिए, चीनी सरकार ने सितंबर 2023 में एक टूर का आयोजन किया. 17 देशों से कुल 22 पत्रकारों को शिनजियांग बुलाया गया. टूर के बाद इन पत्रकारों ने चीन की तारीफ़ में कसीदे पढ़े. शिनजियांग को सांस्कृतिक, धार्मिक और जातीय विविधता से भरा बताया है. साथ में पश्चिमी मीडिया की निंदा भी की.
अमेरिका ने चेतावनी दी कि इस तरह के प्रोपेगैंडा से उसके दोस्तों और सहयोगियों की सुरक्षा और स्थिरता पर संकट आता है.
रिपोर्ट पर चीन क्या बोला?उसने आरोपों को नकार दिया. कहा, तथ्यों को घुमा-फिराकर पेश किया गया है. ये सारा तिकड़म अमेरिका ने ही शुरू किया. और, अब वो हमें नीचा दिखाने की कोशिश कर रहा है.
चीन का आरोप रहा है कि पश्चिमी देशों की मीडिया जान-बूझकर नेगेटिव रिपोर्टिंग करती है. इसलिए, वे अपना सूचना-तंत्र खड़ा करना चाहते हैं.
आलोचक मानते हैं कि ये तंत्र झठू, प्रोपेगैंडा और नफ़रत के खंभों पर टिका है. ये पूरी दुनिया के लिए ख़तरनाक हो सकता है.















.webp)


.webp)




