पिछले कुछ दिनों में इज़रायल ने साउथ लेबनान में यूएन पीसकीपर्स के बेस पर कई हमले किए हैं. इसमें लगभग 15 सैनिक घायल हुए हैं. फिर 13 अक्टूबर को इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा कि पीसकीपर्स को साउथ लेबनान से बाहर निकल जाना चाहिए. मेलोनी ने आगे बढ़कर इसका विरोध किया. आधिकारिक तौर पर वो यूएन पीसकीपर्स के समर्थन में लेबनान जा रहीं है. लेकिन कई जानकार मानते हैं कि उनका असली निशाना लेबनान का पड़ोसी सीरिया है.
सीरिया से दोस्ती क्यों करना चाहते हैं यूरोपीय देश?
अरब लीग के बाद अब यूरोपियन यूनियन (EU) के देश सीरिया के साथ संबंध बहाल करने की कोशिश कर रहे हैं. इसके पीछे का एजेंडा क्या है? सीरिया, मिडिल-ईस्ट और यूरोप के लिए कितना अहम है?


दरअसल, इटली ने सीरिया के साथ संबंध बहाल करने की पेशकश की है. इटली, यूरोपियन यूनियन (EU) के सबसे अहम देशों में से एक है. 2011 में जब सीरिया में सिविल वॉर शुरू हुआ, तब EU ने सीरिया के साथ डिप्लोमेटिक संबंध तोड़ लिए थे. कालांतर में सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद पर मानवाधिकार उल्लंघन और केमिकल हथियारों का इस्तेमाल करने के आरोप लगे. इसके चलते रिश्तों में सुधार की गुंजाइश कम होती गई.
कट टू 2024. सीरिया में असद की सरकार बरकरार है. उनके ख़िलाफ़ लगे आरोप भी. मगर EU के देश, सीरिया के साथ संबंध सुधारना चाहते हैं. उसके साथ डिप्लोमेटिक और व्यापारिक संबंध शुरू करना चाहते हैं. लेकिन ऐसा क्यों?
आइए समझते हैं.
- सीरिया सिविल वॉर की स्थिति क्या है?
- और, EU के देश सीरिया से दोस्ती क्यों करना चाहते हैं?
पहले बेसिक क्लियर कर लेते हैं. सीरिया, मिडिल-ईस्ट में पड़ता है. इसकी सीमा तुर्किए, इराक़, जॉर्डन, इज़रायल और लेबनान से लगती है. पश्चिमी सीमा भूमध्य सागर से मिलती है. सीरिया की राजधानी दमिश्क है. नई दिल्ली से दूरी लगभग 12 सौ किलोमीटर है. सीरिया की आबादी लगभग ढ़ाई करोड़ है. 90 फीसदी लोग मुस्लिम हैं. आधिकारिक भाषा अरबी है. करेंसी का नाम है, सीरियन पौंड.
सीरिया के इतिहास पर एक नज़र
अब इतिहास का रुख करते हैं. सीरिया में मानव सभ्यता के निशान साढ़े हज़ार ईसा पूर्व के हैं. तीन सौ ईसा पूर्व में वहां सिकंदर ने क़ब्ज़ा किया था. इसके बाद रोमन और बेज़ेंटाइन एम्पायर का शासन रहा. फिर 636 ईस्वी में अरब सेनाओं ने बेज़ेंटाइन एम्पायर को शिकस्त दे दी. इसके बाद सीरिया पर मुस्लिमों का शासन शुरू हुआ. आगे चलकर मंगोलों और तुर्कों ने भी इस ज़मीन के लिए जंग लड़ी.

ये तो हुआ प्राचीन इतिहास. सीरिया का आधुनिक इतिहास कैसा रहा है? पहले विश्व युद्ध में ऑटोमन साम्राज्य की हार हुई. 1918 में अरब और ब्रिटिश सेनाओं ने दमिश्क पर कब्जा कर लिया, जिससे 400 बरस पुराना ऑटोमन शासन समाप्त हो गया. इसके बाद सीरिया को फ़्रांस का मेनडेट बना दिया गया. दूसरे विश्व युद्ध के बाद सीरिया आज़ाद हो गया. फ़्रांस से तो आज़ादी मिल गई, मगर राजनीतिक झंझटों से नहीं. 1960 में उसने ईजिप्ट के साथ यूनाइटेड अरब रिपब्लिक भी बनाया. मगर ये ज़्यादा दिनों तक नहीं चल पाया.
फिर 1970 में हाफ़िज़ अल-असद ने सीरिया की सत्ता हड़प ली. वो शिया मुस्लिम थे. शिया, सीरिया में अल्पसंख्यक हैं. हाफ़िज़ अल-असद का एक और लिंक था. बाथ पार्टी से. बाथ का मतलब होता है पुनर्जागरण. इनका मकसद था, मुस्लिम देशों को एकजुट करना. इराक़ के तानाशाह सद्दाम हुसैन का संबंध भी इसी पार्टी से था. बहरहाल, हम बात कर रहे थे हाफ़िज़ अल-असद की. हाफ़िज़ ने 30 सालों तक सीरिया पर शासन किया था. उनका कार्यकाल निरंकुशता की मिसाल थी. आतंकी संगठनों को सपोर्ट करना और विरोधियों का नरसंहार उनका पसंदीदा काम था. 2000 में हाफ़िज़ अल-असद की मौत हो गई. फिर सत्ता आई उनके बेटे बशर अल-असद के पास पाई.

जब 2000 में सत्ता परिवर्तन हुआ तो हल्की-सी उम्मीद जगी. कि नया शासन पुराने की तुलना में बेहतर होगा. इसकी वाज़िब वजह भी थी. बशर अल-असद ने लंदन में मेडिकल की पढ़ाई की थी. बाद में वहीं डॉक्टरी भी करने लगे. यही उनका इरादा भी था. लेकिन बीच में ही उनके बड़े भाई की मौत हो गई. बशर को वापस सीरिया लौटना पड़ा. पिता की मौत के बाद सत्ता उनके हाथों में आ गई.
सीरिया के लोगों को लगा, लंदन में पढ़ा नौजवान है. वो उदार होगा. लोकतंत्र को बढ़ावा देगा. लेकिन ये सब कोरी कल्पना साबित हुई. बशर ने अपने पिता की परंपरा कायम रखी. उसने भी निरंकुशता का रास्ता अपनाया. सीरिया में सत्ता बदल गई थी, लेकिन लोगों की क़िस्मत वैसी की वैसी रही.
फिर दिसंबर 2010 में एक चिनगारी भड़की. ट्यूनीशिया में नगर निगम के अधिकारियों मोहम्मद बज़ीजी नामक दुकानदार का ठेला ज़ब्त कर लिया. जब वो उसे छुड़ाने दफ़्तर गया, उसको बुरी तरह दुत्कारा गया. गुस्से में उसने ख़ुद को आग लगा ली. इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. ट्यूनीशिया में प्रोटेस्ट शुरू हुआ. प्रोटेस्ट के बीच 23 सालों से सत्ता में काबिज तानाशाह बेन अली सपरिवार देश छोड़कर भागना पड़ा.

इसके बाद नंबर आया मिस्र का. वहां 30 बरसों से जमे होस्नी मुबारक को कुर्सी छोड़नी पड़ी. इसी तरह मिडिल-ईस्ट के बाकी देशों में भी बवाल शुरू हुआ. निरंकुश तानाशाहों के ख़िलाफ़. ये सारी ख़बरें रेडियो और टीवी के जरिए सीरिया में भी पहुंच रही थी. एक रोज़ सीरिया के डेरा शहर में एक बच्चे ने अपने स्कूल की दीवार पर एक पंक्ति लिखी.
‘It’s your turn, Doctor!’ अब तुम्हारी बारी है, डॉक्टर.
‘डॉक्टर’, बशर अल-असद का निकनेम है. कायदे से देखें तो ये दीवारों पर लिखी अनगिनत पंक्तियों में से एक थी. इसे नज़रअंदाज भी किया जा सकता था. लेकिन शहर के सिक्योरिटी चीफ़ आतिफ़ नजीब को ये बात अखर गई. वो राष्ट्रपति असद का रिश्तेदार था.
नजीब ने पूछताछ शुरू की. कोई भी आगे आने के लिए तैयार नहीं था. फिर पुलिस ने हर उस बच्चे को उठाना शुरू किया, जिनके नाम दीवार पर लिखे हुए थे. इनमें से कई नाम तो कई बरस पहले से मौजूद थे. गिरफ़्तार किए गए बच्चों को जेल भेज दिया गया. वहां उनको टॉर्चर किया गया. जब बच्चों के घरवाले पुलिस स्टेशन गए, तो पुलिसवालों ने कहा,
‘अपने बच्चों को भूल जाओ. अगर बच्चे चाहिए तो और पैदा कर लो. अगर नहीं कर सकते तो अपनी औरतों को हमारे पास भेज दो.’
इस रवैये ने लोगों को भड़का दिया. मार्च 2011 में लोग सड़कों पर उतर आए. उन्होंने असद सरकार का खुलकर विरोध शुरू कर दिया. पुलिस ने बलप्रयोग किया. कुछ को गिरफ़्तार भी किया गया. लेकिन इसका उल्टा असर पड़ा. पुलिस ने विरोध को जितना दबाने की कोशिश की, उतनी ही तेज़ रफ़्तार से इसकी लहर फैली.
बशर अल-असद को सत्ता गंवाने का डर था. वो इसे रोकने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार था. असद ने सेना उतार दी. उन्हें हिंसा की खुली छूट दे दी गई. अगले दिन जब लोग सरकार के ख़िलाफ़ नारे लगाने आए, उनका सामना ऑटोमेटिक हथियारों और टैंकों से हुआ. निहत्थे लोगों को बेरहमी से मारा गया.

ये देखकर सेना के एक गुट ने विद्रोह कर दिया. उन्होंने सरकारी नौकरी को दुत्कार दिया और प्रदर्शनकारियों के साथ मिल गए. उन्होंने बनाई ‘फ़्री सीरियन आर्मी’ (FSA). और, वे असद सरकार से भिड़ गए. यहां से सीरिया में हिंसक टकराव की शुरुआत हुई.
FSA को जल्दी ही विदेशी समर्थन मिलने लगा. अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस ने विरोधियों को हथियार और ट्रेनिंग मुहैया कराई. सऊदी अरब, तुर्की और क़तर ने भी मदद भेजी. लेकिन उनका सहयोग धार्मिक आधार पर था. असद परिवार का ताल्लुक शिया अलावी संप्रदाय से है. अलावी, सीरिया में अल्पसंख्यक हैं. इसलिए, सुन्नी देशों को ये वर्चस्व खलता रहा है. जब सुन्नी देशों ने विरोधियों को समर्थन दिया, तब असद के समर्थन में शिया देश आए. ईरान ने पैसों और हथियारों से मदद की. जबकि लेबनान के हेज़बुल्लाह गुट ने अपने लड़ाके उतार दिए. रूस, सीरिया का पुराना दोस्त रहा है. उसने भी असद सरकार को समर्थन दे दिया.
सीरिया बहुत सारे बाहरी हितों का युद्धक्षेत्र बन गया. एक पावर वैक्यूम बन रहा था. इसका फायदा उठाया इस्लामिक स्टेट (IS) ने. ये अभी तक इराक़ में अपने पैर जमा रहा था. जब उसे पड़ोसी सीरिया में खाली ज़मीन मिली, उसने वहां भी अपना झंडा गाड़ दिया. इराक़ के मोसुल से लेकर सीरिया में रक़्क़ा तक इस्लामिक स्टेट का राज हो गया. 2014 में IS ने रक़्क़ा को अपनी राजधानी बना दिया.
अमेरिका, इराक़ में 2003 से लड़ रहा है. IS के पीछे-पीछे वो भी सीरिया गया. हालांकि, उसने सीधा हमला IS तक ही सीमित रखा. अक्टूूबर, 2019 में अमेरिका ने IS के सरगना अबू बक़्र अल-बग़दादी को सीरिया में ही मारा था. अब सीरिया में IS का प्रभाव लगभग खत्म हो चुका है.
इन सबके अलावा, सीरिया में एक चौथा गुट भी है. सीरियन डेमोक्रेटिक फ़ोर्सज़ (SDF). ये कुर्द और अरब विद्रोहियों का मोर्चा है. इन्होंने IS से अपनी ज़मीन बचाने की लड़ाई शुरू की थी. अब इन्हें तुर्की से लड़ना पड़ रहा है. दरअसल, तुर्की इन्हें आतंकवादी मानता है. और, उनके ख़िलाफ़ हवाई हमले करता रहता है.
सीरिया पर सिविल वॉर का असर
इसमें छह लाख से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं. UN की रिपोर्ट के मुताबिक़, लगभग 50 लाख लोगों को देश छोड़कर जाना पड़ा. जबकि 68 लाख लोग विस्थापित हुए हैं. इन लोगों ने सीरिया के पड़ोसी देशों में शरण लेनी शुरू की. सबसे ज़्यादा तुर्किए पहुंचे. इस समय तुर्किए में 23 लाख से ज़्यादा सीरियाई शरणार्थी रह रहे हैं. एक बड़ी संख्या इराक़, जॉर्डन, ईजिप्ट और लेबनान भी पहुंची. बाकी लोगों ने यूरोप का रुख किया. रिपोर्ट्स के मुताबिक़, 12 लाख से ज़्यादा सीरियाई शरणार्थी यूरोप के अलग-अलग देशों में रह रहे हैं.

कहां कितने लोग हैं?
- जर्मनी - लगभग 5 लाख.
- स्वीडन - लगभग 1 लाख.
- ऑस्ट्रिया - लगभग 1 लाख.
- ग्रीस - लगभग 80 हज़ार.
- नीदरलैंड्स - लगभग 50 हज़ार
- फ्रांस और इटली में लगभग 30-30 हज़ार सीरियाई शरणार्थी हैं.
ये सभी देश यूरोपियन यूनियन (EU) के सदस्य हैं. EU यूरोप के 27 देशों का संगठन है. उनके बीच ओपन बॉर्डर, ट्रेड और कई अहम मसलों पर सहमति है.
EU की सीरिया पॉलिसी क्या रही है?
- EU ने सिविल वॉर की शुरुआत में असद सरकार की निंदा की थी. 2011 में उसने सीरिया के साथ डिप्लोमेटिक संबंध तोड़ लिए थे.
- सितंबर 2011 में EU ने सीरिया से तेल का आयात बंद कर दिया था.
- EU के देशों ने सीरिया के विद्रोही गुटों पर लगाया आर्म्स एम्बार्गो खत्म कर दिया. इससे विद्रोही गुटों तक हथियार पहुंचना आसान हो गया.
- EU सीरिया में इस्लामिक स्टेट और दूसरे आतंकवादी संगठनों को दुनिया के लिए ख़तरा बताता है.
- EU सत्ता-परिवर्तन के ज़रिए जंग को खत्म करना चाहता है.
- EU की पॉलिसी रही है कि वो सीरिया के आतंकियों को बाहरी मदद नहीं मिलने देगा.
- EU, गृह युद्ध से प्रभावित लोगों की मदद करेगा और उन्हें सुरक्षा देगा.
हालिया मुद्दा क्या है?
जैसा हमने शुरुआत में बताया EU, सीरिया से दोस्ती करने पर विचार कर रहा है. इसकी पहल इटली ने की है. पीएम मेलोनी ने 16 अक्टूबर को EU नेताओं की एक बैठक से पहले इटली की संसद में सीरिया से संबंध सामान्य करने की बात कही है. क्या-क्या बोलीं?
- हमें EU की सीरिया के लिए बनाई गई नीतियों पर फिर से विचार करना चाहिए. ताकि सीरियाई लोगों को पूरी सुरक्षा के साथ उनके घर वापस भेजा जा सके.
- जुलाई 2024 में EU के 7 देशों ने भी इसी तरह की मांग की थी. ये देश थे - ऑस्ट्रिया, इटली, चेक रिपब्लिक, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया, ग्रीस, क्रोएशिया और साइप्रस. उन्होंने कहा था कि EU को सीरिया के साथ संबंध सामान्य करने चाहिए ताकि शरणार्थियों को वापस भेजा जा सके.
सीरिया से दोस्ती क्यों करना चाहता है EU?
इसकी 2 बड़ी वजहें हैं.
> नंबर एक. यूरोप में दक्षिणपंथ का बढ़ता प्रभाव.
जून 2024 में यूरोपियन पार्लियामेंट का इलेक्शन हुआ. इसमें धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों को बढ़त मिली. ख़ास तौर पर फ्रांस की नेशनल रैली और जर्मनी की ऑल्टरनेटिव फ़ॉर जर्मनी.
इसके अलावा, स्वीडन, इटली समेत कुछ और देशों की घरेलू राजनीति में दक्षिणपंथ ने पैर पसारे हैं. इन पार्टियों ने दूसरे देशों से आए शरणार्थियों को वापस भेजने की मुहीम चलाई हुई है. इसलिए, वे सीरिया के साथ रिश्ते बेहतर करने की मांग कर रहे हैं. ताकि शरणार्थियों को आसानी से वापस भेजा जा सके.
> नंबर दो. लेबनान पर हमला.
सितंबर 2024 में इज़रायल ने लेबनान पर हमला कर दिया. उसका कहना है कि वो हिज्बुल्लाह को टारगेट कर रहा है. लेकिन लेबनान की सरकार के मुताबिक़, इसमें आम नागरिक भी मारे जा रहे हैं. 1 महीने से भी कम समय में लेबनान से लगभग तीन लाख लोग बॉर्डर क्रोस कर सीरिया जा चुके हैं. इसके चलते शरणार्थी संकट बढ़ने की आशंका है.
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