साल 1915. पहला विश्व युद्ध लड़ा जा रहा था. बमबारी हो रही थी और इसी बमबारी में यूरोपीय देशों में तबाही मची हुई थी. लेकिन इसी ऊहापोह के बीच भारतीय मूल का एक नौजवान यूके के Cambridge के विश्वविद्यालय में अपना ग्रेजुएशन का कोर्स पूरा कर रहा था. फिज़िक्स से. पढ़ाई पूरी करने के बाद बारी थी देश लौटने की. भारत आने की. आने के लिए बस्ता-बैग बांधा जा रहा था. और निकलने के पहले मिला अपने टीचर से. टीचर ने उसे एक पार्टिंग गिफ्ट दिया. मतलब वो तोहफा, जो दूर जाते करीबियों को दिया जाता है. गिफ्ट के रूप में मिली एक किताब. किताब का नाम ‘बायोमेट्रिका’. सांख्यिकी की किताब. अंग्रेजी में statistics कहते हैं. छोटे में आजकल stats कहने का चलन है. नौजवान छात्र वो किताब और अपना पूरा बयाना लेकर भारत चला आया. ये किताब और ये नौजवान भारत की सबसे महत्वपूर्ण संस्था की नींव रखने वाले थे. करोड़ों भारतीयों का जीवन बदलने वाली संस्था. सरकारों की दिशा निर्धारित करने वाली संस्था. संस्था को आजादी के बाद बनना था. और नाम पड़ना था योजना आयोग. वही योजना आयोग, जिसका नाम कालांतर में हुआ नीति आयोग. नौजवान का नाम प्रोफेसर प्रशांत चंद्र महालनोबिस.
कौन थे प्रशांत चंद्र महालनोबिस जिनसे पूछकर नेहरू भारत के लिए योजनाएं बनाते थे
निखिल मेनन की किताब, ‘प्लानिंग डेमोक्रेसी: हाऊ अ प्रोफ़ेसर, एन इंस्टिट्यूट एंड एन आईडिया शेप्ड इंडिया’ का कुछ अंश

तो Cambridge से निकलकर प्रशांत कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में टीचर बन गए. नेमप्लेट लगी फिजिक्स डिपार्टमेंट में. और इसी विभाग के छात्रों को थोड़ा और धार देने के लिए एक प्रयोग किया. प्रशांत ने इसी विभाग में इंडियन स्टैटिस्टिकल लैबोरेटरी शुरू की. अपने टीचर की दी हुई किताब से प्रेरणा ली. सांख्यिकी की प्रयोगशाला बन गई. ये प्रयोगशाला आगे योजना आयोग की नींव बनने वाली थी. इसी प्रयोगशाला से निकला साल 1931 में इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिट्यूट. काम था सर्वे. इस इंस्टीट्यूट ने इतना डेटा जुटा लिया कि जानकारों और सरकारों को लगा कि इस डेटा पर बहुत सारी योजनाएं बनाई जा सकती हैं. और इन्हीं योजनाओं के लिए साल 1950 में आजाद भारत की सरकार ने बनाया योजना आयोग. अंग्रेजी में कहा गया प्लानिंग कमीशन.
आज प्लानिंग कमीशन तो नहीं रहा. साल 2014 में देश की सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने पहले स्वतंत्रता दिवस संबोधन में प्लानिंग कमीशन को ख़त्म कर दिया और इसके बदले सामने आया नीति आयोग.
लेकिन थोड़ा रीवाइन्ड करते हैं. चलते हैं साल 1937 में. सुभाष चंद्र बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के अध्यक्ष थे. इधर प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रोफेसर प्रशांत गदर काटे हुए थे. कॉलेज के लोग उनको ‘Charming authoritarian’ कहते थे. हिन्दी अनुवाद क्या जानेंगे? जानते हैं मतलब. मतलब ये कि प्रोफेसर प्रशांत अपना काम भी सहजता से करवाते थे, लेकिन जरूर करवाते थे. कर्मचारी बाकायदा अपना सारा काम एक डायरी में लिखते थे और हाजिरी वाले रजिस्टर में रोज हाजिरी भरते थे. प्रोफेसर साहब रोज ये डायरी और रजिस्टर देखते थे. और उनके देखने की हड़क में कर्मचारी ये सब करते रहते थे.

तो बात फिर से सुभाष चंद्र बोस पर आती है. बोस ने एक जरूरी काम किया. प्रोफेसर प्रशांत की मुलाक़ात करवाई जवाहरलाल नेहरू से. योजना आयोग की आधारशिला रखी जा चुकी थी. कहा तो ये भी जाता है कि जब आजाद भारत में नेहरू प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे तो तमाम फैसलों के लिए प्रोफेसर प्रशांत और उनसे अपनी दोस्ती पर निर्भर रहे.
1947. देश आजाद हुआ. सरकार बनी और सरकार के कंधों पर भार आया देश के उत्थान का. बस अंग्रेज ही देश से नहीं गए थे. दूसरे विश्व युद्ध को खत्म हुए भी ज्यादा समय नहीं बीता था. बंगाल के सूखे की वजह से खाद्यान्न संकट भी गहरा गया था. देश एक विभाजन भी झेल चुका था. घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देना था. और ऐसे में देश को एक कंक्रीट प्लान चाहिए था.
योजना आयोग 1950 में बन तो गया था, लेकिन देश की पहली पंचवर्षीय योजना का प्लान बनाया इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिट्यूट ने. प्रोफेसर प्रशांत की लीडरशिप में. कई दूसरे अर्थशास्त्रियों के साथ. बनने के बाद गया योजना आयोग के पास और इसे लागू करने के लिए सरकार के पास बढ़ा दिया गया. जानकार मानते हैं कि यदि बोस ने नेहरू और प्रोफेसर प्रशांत की दोस्ती नहीं करवाई होती, तो शायद ऐसा नहीं हो पाता.
ये योगदान बड़ा था. 1955 जून में The Economic Weekly में छपे लेख Planning Technique and the Second plan में लिखा गया,
"क्या प्लानिंग का काम प्लानिंग कमीशन के बजाय प्रोफेसर और आईएसआई को दे दिया जाना चाहिए क्योंकि आईएसआई ही असल में प्लानिंग कर रहा है."
पहले पंचवर्षीय का प्लान बनाने के बाद प्रोफेसर प्रशांत ने देश के आर्थिक प्लानिंग का पूरा काम संभाला. इसकी वजह से प्लानिंग का फोकस राजनीति पर कम और डेटा पर ज़्यादा रहा. ये एक नए लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी था.
प्रोफेसर द्वारा बनाई गई पहली पंचवर्षीय योजना का कृषि पर फोकस था और दूसरी का भारी उद्योगों पर. लेकिन विदेशी मुद्रा भंडार में चल रहे संकट के चलते दूसरी योजना की कड़ी निंदा हुई. और इसके बाद से योजना आयोग की शक्तियां घटती हुई देखी गई. साल 1957 के आसपास प्लानिंग का काम प्रोफेसर प्रशांत के हाथों से लेकर वित्त मंत्रालय को सौंप दिया गया.
योजना आयोग की कहानी आगे भी बढ़ रही थी. प्रचार के नए तरीके भी थे.‘नया दौर’ जैसी फिल्में थीं. स्क्रीन पर दिलीप कुमार और वैजयंती माला थे. और गाने था ‘छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी, नए दौर से लिखेंगे हम मिलके नयी कहानी’. जिसके बारे में कहा जाता था कि ये गाना योजना आयोग का एक सॉफ्ट प्रचार है. कई संगठन भी फलक पर थे ही. लेकिन योजना आयोग राजनीति से बहुत दूर नहीं रह सकी. प्रकाश में आई "भारत साधु समाज" नाम की संस्था. डॉ राजेंद्र प्रसाद और गुलजारीलाल नंदा जैसे कांग्रेसी नेता धर्म और योजना को आपस में जोड़ने के लिए उत्साहित थे.

इसी बीच साल 1956 में दिल्ली के एक मंदिर ने एक अप्रत्याशित बैठक बुलाई. कई मंत्री, सांसद और साधु ‘बिरला मंदिर’ में मिले. मिलकर एक प्लान तैयार किया गया, जिसके मुताबिक़ तय हुआ कि संन्यासी सरकार की पंचवर्षीय योजनाओं का प्रचार करेंगे.
टुकड़ोजी महाराज जो एक बड़े साधु थे, उन्होंने दूसरे साधुओं के लिए लिखी गई एक किताब में कहा,
"अब लोग हमारे हैं, सरकार हमारी है, प्लान हमारा है, फिर हम सरकार के काम से अलग क्यों रहे?"
टुकड़ोजी महाराज भारत साधु समाज के अध्यक्ष थे और आगे चलकर विश्व हिन्दू परिषद के भी उपाध्यक्ष बने.
और यहीं से शुरू हुई सरकारी प्लान में राजनीति की मिलावट.
सरकारी अभियान में साधुओं की भागीदारी पर कई सवाल उठाए गए. कांग्रेस के नेता मुल्ला अब्दुल्ला भाई ने पूछा कि मौलवियों को इस अभियान में शामिल क्यों नहीं किया गया? सवाल ये भी था कि क्या एक सेक्युलर देश में आर्थिक नीतियों को एक धार्मिक संगठन से जोड़ना ठीक है?
तब कांग्रेस ने इन साधुओं को पूरा समर्थन दिया लेकिन बाद में जब साधु-संत गौ रक्षा की बात करने लगे और अयोध्या में मंदिर बनाने का प्रचार करने लगे तब कांग्रेस ने खुद को इससे अलग करने की कोशिश की.
बड़ा घटनाक्रम सामने आया साल 1964 में, टुकड़ोजी महाराज ‘विश्व हिंदू परिषद’ के संस्थापक उपाध्यक्ष बने. साल 1960 से सरकार ने योजना को बढ़ावा देने के लिए धार्मिक आयोजनों के लिए फंड देना शुरू कर दिया. तत्कालीन मंत्री गुलज़ारीलाल नंदा ने तीसरे व्यास सम्मेलन में भाग लिया. 7 नवंबर 1966 को साधुओं ने गौ हत्या के विरोध में लाल किले से संसद तक मार्च निकाला. संसद के सामने हिंसा भड़क उठी. तकरीबन 800 लोग गिरफ्तार किए गए और 40 लोगों की जान चली गई. इस घटना के बाद गुलज़ारीलाल नंदा ने गृहमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.
इस हिंसक घटना के बावजूद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने साधुओं के प्रति समर्थन बनाए रखा. वह यह स्पष्ट संदेश देना चाहती थीं कि उनकी सरकार धार्मिक प्रथाओं की विरोधी नहीं है. कहा जाता था कि साधु समाज हिन्दुओं के बीच कांग्रेस के प्रचार का हिस्सा था लेकिन हिन्दू समाज के VHP के साथ चले जाने के बाद कांग्रेस ने अपना प्रभाव खो दिया.
लेकिन इस बड़े ऐतिहासिक घटनाक्रम का प्रथम अध्याय तीन दशक पहले कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज के एक प्रोफेसर द्वारा लिखा गया था, जो विलायत में अपने टीचर से एक किताब लेकर भारत आ गया था. नाम था प्रोफेसर प्रशांत चंद्र महालनोबिस.
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ये आलेख निखिल मेनन की किताब, ‘प्लानिंग डेमोक्रेसी: हाऊ अ प्रोफ़ेसर, एन इंस्टिट्यूट एंड एन आईडिया शेप्ड इंडिया’ में लिखे गए तथ्यों के आधार पर लिखा गया है.
प्रकाशक: पेंगुइन
लेखक: निखिल मेनन
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