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जब ज्योति बसु के रूप में देश को पहला कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री मिलते-मिलते रह गया

अपनी ही पार्टी रास्ते का रोड़ा बन गई थी.

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बाएं से क्रमश: अटल बिहारी वाजपेयी, एच डी देवगौड़ा और ज्योति बसु. सभी तस्वीरें PTI से साभार.
मई, 1996. दूसरा सप्ताह. 11वीं लोकसभा चुनाव के नतीजे आने शुरू हो गए थे. इस बार लोकसभा की 537 सीटों पर चुनाव संपन्न हुए थे. हालांकि जम्मू-कश्मीर की छह सीटों के लिए जून के आखिरी सप्ताह में चुनाव कराया गया. खैर, इस 11वीं लोकसभा चुनाव के नतीजों से सरकार बनाने के आसपास भी कोई नहीं था. सबसे अधिक सीटें बीजेपी के पास थीं. उस साल सीटों का हाल ये था-
बीजेपी - 162 सीट, लेकिन 161 सांसद (अटल जी 2 सीटों- गांधीनगर और लखनऊ से जीते) कांग्रेस -136 सीटें, लेकिन 135 सांसद (प्रधानमंत्री नरसिंह राव 2 सीटों- नांदयाल और उड़ीसा की बरहमपुर से जीते) जनता दल - 46 सीटें, लेकिन 45 सांसद (बीजू बाबू कटक और अस्का- दोनों सीट जीते) CPM -32 तमिल मनीला कांग्रेस - 20 द्रमुक - 17 सपा - 17 तेलुगूदेशम (नायडू गुट) - 17 (तब लोकसभा चुनाव के पहले ही यह पार्टी नायडू गुट और लक्ष्मी-पार्वती गुट में बंट चुकी थी) शिवसेना - 15 CPI - 12 बसपा - 11 समता पार्टी - 8 (तब समता में सजपा भी थी) अकाली दल - 8 असम गण परिषद - 5 बाकी सीटों पर अन्य छोटे दल और निर्दलीय सदस्य जीते.
इस खंडित जनादेश (Fractured Mandate) के बीच सबकी नजरें राष्ट्रपति भवन पर जा टिकीं. सबके जेहन में एक ही सवाल था कि अब क्या होगा, क्योंकि जनता ने किसी राज दल को भी बहुमत तो दूर, बहुमत के आसपास भी नहीं रखा था. केवल इतना स्पष्ट था कि देश की जनता ने आर्थिक उदारीकरण के नायक, पंजाब में शांति बहाल करने वाले और देश में केबल टीवी की शुरुआत करने वाले पीवी नरसिंह राव को सत्ता से बेदखल कर दिया था.
सीपीएम नेता ने की पहल
नतीजे आने के बाद, 10 मई की शाम से दिल्ली में बैठकों का दौर शुरू हो गया. सीपीएम नेता हरकिशन सिंह सुरजीत की पहल पर जनता दल समेत तमाम क्षेत्रीय दलों के नेता इकट्ठा होने लगे. तब जनता दल लोकसभा में तीसरी बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू यादव हुआ करते थे.
इस बीच कांग्रेस के नेताओं ने हरकिशन सिंह सुरजीत को यह सिग्नल देना शुरू कर दिया कि यदि कोई तीसरा मोर्चा खड़ा होता है, तो कांग्रेस उसे बिना शर्त समर्थन देगी. सुरजीत ने सभी नेताओं को कांग्रेस के इरादे से अवगत कराया. तब भारतीय जनता पार्टी एक हद तक राजनीतिक अस्पृश्यता (Political Untouchability) का शिकार हुई (एक हद तक आज भी है).
इसी अस्पृश्यता का फायदा सुरजीत ने उठाया और तेलुगूदेशम (नायडू गुट), सपा, तमिल मनीला कांग्रेस, द्रमुक, अगप इत्यादि दलों को इकट्ठा कर लिया. जनता दल पहले से ही साथ था. तय हुआ कि सभी दल (वाम मोर्चा के दलों समेत कुल 13 दल) राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा से मुलाकात कर सरकार बनाने का दावा पेश करेंगे. 11 मई की सुबह कामरेड सुरजीत के नेतृत्व में इन सब दलों के नेता राष्ट्रपति से मिलने पहुंचे और सरकार बनाने की अपनी मंशा से अवगत कराया. राष्ट्रपति ने इन नेताओं से अपना संसदीय दल का नेता चुनने और कांग्रेस के समर्थन की चिट्ठी लाने को कहा.
पूर्व प्रधानमत्री वीपी सिंह की तस्वीर. साभार PTI
पूर्व प्रधानमत्री वीपी सिंह की तस्वीर. साभार PTI


जब वीपी सिंह नेताओं को बिस्कुट-पानी देकर निकल गए
इसके बाद नेता चुनने की कवायद शुरू हुई. चूंकि इन दलों में जनता दल सबसे बड़ा था, इसलिए सभी दलों ने जनता दल के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह को नेता बनाने की सर्वसम्मत राय रखी. इसके बाद सभी नेतागण वीपी सिंह को 'नवगठित संयुक्त मोर्चे' (पूर्ववर्ती रामो-वामो का नया अवतार) की राय से अवगत कराने के लिए उनके आवास (1, राजाजी मार्ग) पहुंचे.
वीपी सिंह ने इन नेताओं का प्रधानमंत्री बनने का अनुरोध ठुकरा दिया. लेकिन करुणानिधि के बहुत जोर देने पर पुनर्विचार के लिए तैयार हो गए और अगले दिन साढ़े बारह बजे सबको एक बार फिर मिलने के लिए बुलाया. अगले दिन, 12 मई को जब संयुक्त मोर्चे के तमाम नेता उनके सरकारी आवास पहुंचे, तो वीपी ने सबको अपने ड्राइंग रुम में बिठाया और अंदर चले गए. एक तरफ ड्राइंग रूम में बैठे संयुक्त मोर्चे के नेता इंतजार कर रहे थे कि वीपी सिंह अब आएंगे, लेकिन वो तो इन नेताओं को कॉफी-बिस्कुट पर बिठाकर, पिछले दरवाजे से अपनी गाड़ी से निकल गए थे.
इधर शाम होने को आ रही थी. नेतागण ड्राइंग रूम में वीपी सिंह का इंतजार कर रहे थे. उधर वीपी सिंह दिल्ली के रिंग रोड पर एक चक्कर लगाने के बाद नोएडा पहुंच गए. वहां से अपने घर पर इंतजार कर रहे संयुक्त मोर्चा के नेताओं को फोन किया और कहा-
देखिए, आप सब मेरा इंतजार मत कीजिए. किसी अन्य व्यक्ति को नेता चुन लें. मैं डेढ़ साल पहले ही सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुका हूं, इसलिए अब मेरे दोबारा प्रधानमंत्री बनने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता.
वीपी सिंह की यह बात सुनकर संयुक्त मोर्चे के नेताओं के होश उड़ गए. हताश-निराश ये सभी नेता लौट गए और फिर लंबी बैठक की. किसी को कोई चारा नहीं सूझ रहा था. संयुक्त मोर्चा के सबसे बड़े घटक जनता दल के नेता वीपी सिंह ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया था. जनता दल की दूसरी परेशानी यह थी कि उस वक्त जनता दल के दूसरे वरिष्ठतम नेता (वीपी के बाद) प्रोफेसर मधु दंडवते राजापुर में शिवसेना के सुरेश प्रभु से लोकसभा चुनाव हार चुके थे.
23 साल तक बंगाल में के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु. पार्टी थी सीपीआई. तस्वीर साभार- सोशल मीडिया
23 साल तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु. तस्वीर साभार- सोशल मीडिया


जब वीपी सिंह ने ज्योति बसु का नाम सुझाया
थक-हारकर सबने यही तय किया कि फिर से वीपी सिंह के पास चला जाए और कहा जाए कि आप ही नए नेता का नाम सुझाएं. इसके लिए वीपी सिंह से जब तमाम नेता मिले, तो उन्होंने देश के वरिष्ठतम मुख्यमंत्री ज्योति बसु को अगला प्रधानमंत्री बनाने की सलाह दी. सभी दलों के नेता ज्योति बसु के नाम पर एकमत से सहमत हो गए. समाचार माध्यमों में यह खबर चल गई, 'ज्योति बसु भारत के अगले प्रधानमंत्री होंगे.'
उस वक्त वाम मोर्चे के 52 सांसद (CPM- 32, CPI- 12, RSP- 4, फॉरवर्ड ब्लॉक- 3  और केरल कांग्रेस-मणि- 1) चुनकर आए थे और यह संयुक्त मोर्चा (जिसके लोकसभा में 179 सदस्य थे) में सबसे बड़ा गुट था.
जब अपनी ही पार्टी राह का रोड़ा बन गई
लेकिन जब संयुक्त मोर्चे के इस प्रस्ताव पर ज्योति बसु की अपनी पार्टी यानी, CPM की सेन्ट्रल कमिटी की बैठक बुलाई गई, तब कमेटी ने इस प्रस्ताव को (बहुमत के आधार पर, न कि सर्वसम्मति से) सिरे से खारिज कर दिया. सेन्ट्रल कमेटी का मानना था-
 यदि ज्योति बसु प्रधानमंत्री बनते हैं, तो उन्हें बतौर प्रधानमंत्री वही भूमंडलीकरण और उदारीकरण की नीति पर चलना होगा, जो पांच साल पहले प्रचलन में आयी थी और जिसका वामपंथी दल तीखी आलोचना करते थे. 52 सांसदों के बूते हम अपनी नीतियों पर सत्ता का संचालन नहीं कर सकते, इसलिए पार्टी ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को खारिज करती है.
वहीं कुछ लोग यह भी कहते हैं कि ज्योति बसु बंगाल बनाम केरल लॉबी की CPM की अंदरूनी राजनीति में फंस गए, क्योंकि ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव का सबसे ज्यादा और मुखर विरोध प्रकाश करात ने किया था.
इसके बाद अपनी पार्टी की सेन्ट्रल कमिटी के फैसले से संयुक्त मोर्चे के नेताओं को अवगत कराने जब हरकिशन सिंह सुरजीत पहुंचे, तब वीपी सिंह ने उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाई. फिर से पुनर्विचार के लिए सेन्ट्रल कमेटी के पास जाने को कहा. इसके बाद सुरजीत फिर सेन्ट्रल कमिटी के पास पहुंचे, जहां फिर से ज्योति बसु को PM बनाने का प्रस्ताव खारिज हो गया.
इसके बाद सुरजीत ने पार्टी के निर्णय लेने वाले सर्वोच्च निकाय, मतलब पोलित ब्यूरो की बैठक बुलाई. लेकिन पोलित ब्यूरो के सदस्यों का बहुमत भी प्रकाश करात के तर्कों (Compulsion to continue economic reforms) के समर्थन में था. ज्योति बसु प्रधानमंत्री पद के एकदम नजदीक पहुंचकर प्रधानमंत्री नहीं बन पाए. पूरे दो दिनों तक ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने की कवायद जारी रही, लेकिन उनकी अपनी ही पार्टी उनके लिए अवरोध बनकर खड़ी हो गई.
1 जून 1996 में एच डी देवगौड़ा भारत के 11वें प्रधानमत्री बने थे. इससे पहले वह कर्नाटक के मुख्यमत्री रह चुके थे.
1 जून 1996 में एच डी देवगौड़ा भारत के 11वें प्रधानमत्री बने थे. इससे पहले वह कर्नाटक के मुख्यमत्री रह चुके थे.


फिर ज्योति बसु ने देवगौड़ा का नाम सुझाया
अंततः सुरजीत ने संयुक्त मोर्चे को अपनी पार्टी का अंतिम फैसला सुना दिया और एक बार फिर नेता चुनने की कवायद शुरू हुई. कई नामों पर माथापच्ची हो रही थी, लेकिन कोई एकमत राय नहीं बन पा रही थी. आखिर में 19 साल पुराने मुख्यमंत्री (ज्योति बसु) ने एक 19 महीने पुराने मुख्यमंत्री एच. डी. देवगौड़ा (हरदनहल्ली डोड्डागौड़ा देवेगौड़ा) का नाम नए प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया. इस पर सबने अपनी सहमति जता दी. देवगौड़ा की पार्टी (जनता दल) के अध्यक्ष लालू यादव ने भी उनके नाम पर कोई आपत्ति नहीं जताई
हालांकि प्रधानमंत्री बनने के बाद लालू और देवगौड़ा के बीच गहरे मतभेद हो गए थे. डॉ. जगन्नाथ मिश्रा ने तो यहां तक कहा था, ''लालू यादव आज जो दुर्दिन भोग रहे हैं, इसके लिए देवगौड़ा ही जिम्मेदार हैं. उन्होंने ही उन्हें फंसाया है और इस चक्कर में उन्हें भी (जगन्नाथ को भी) फंसा दिया''.
 अटल बिहारी वाजपेयी को मा. राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने बहुमत साबित करने का मौका दिया था, जिसके बाद 13 दिन की सरकार बनी थी. तस्वीर साभार- PTI
अटल बिहारी वाजपेयी को मा. राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने बहुमत साबित करने का मौका दिया था, जिसके बाद 13 दिन की सरकार बनी थी. तस्वीर साभार- PTI


चिट्ठी में देरी और अटल बिहारी की 13 दिन की सरकार
इसके बाद संयुक्त मोर्चा के नेताओं ने राष्ट्रपति को देवेगौड़ा के नेता चुने जाने की सूचना दे दी और सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया. लेकिन कांग्रेस की तरफ से देवगौड़ा के समर्थन की चिट्ठी राष्ट्रपति भवन पहुंचने में देर हो गई या देर कर दी गई (इस मामले में कई तरह की बातें सुनने को मिलती हैं). राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने चिट्ठी का इंतजार करने की बजाए अकेली सबसे बड़ी पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का निमंत्रण दे दिया.
16 मई को वाजपेयी सरकार को शपथ भी दिला दी गई, लेकिन यह सरकार चल नहीं हो सकी और 13 दिन में ही गिर गई. इसके बाद 1 जून, 1996 को एचडी देवेगौड़ा देश के 11वें प्रधानमंत्री बने.
इस घटना के चार साल बाद 2000 में ज्योति बसु ने अपनी पार्टी की सेन्ट्रल कमिटी के फैसले को ऐतिहासिक भूल करार दिया. कई लोगों का यह मानना है कि यदि एक बार देश को वामपंथी प्रधानमंत्री मिला होता, तो शायद दक्षिणपंथ की धारा उतनी मजबूत नहीं होती, जितनी कि आज है.