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स्पेशल फ्रंटियर फोर्स: तिब्बती लड़ाकों की खुफिया यूनिट, जिसे देखते ही चीन की सेना रास्ता बदल लेती है

आड़े वक्त में हमारी सेना के कंधे से कंधा मिलाया.

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एसएफएफ जवानों की ये तस्वीर (बाएं) बांग्लादेश लिबरेशन वॉर-1971 के समय की है. (फाइल फोटो सोर्स - Claude Arpi Blogspot). अब पैंगोंग के पास फिर भारतीय सेना ने इनकी मदद से अपर हैंड हासिल किया है. (दाएं) (सांकेतिक फोटो सोर्स – PTI)
बीते 31 अगस्त को सेना की तरफ से एक बयान आया –
“29-30 अगस्त की दरमियानी रात चीन की सेना ने पैंगोंग झील के पास पहले से बनी सहमति का उल्लंघन किया. भारत के सैनिकों ने त्वरित कार्रवाई करते हुए झील के दक्षिणी किनारे पर अपनी स्थिति मज़बूत कर ली है.”
पैंगोंग झील. जिसके आस-पास लगातार भारत और चीन की सेनाओं के बीच तनाव काफी समय से बना है. हमें आज इस झील के दक्षिण में चलना है. इधर किनारे के पास है- चुशूल सेक्टर. चुशूल में 29 और 30 अगस्त की रात को चीन की सेना के LAC पार घुसपैठ करने की खबर आई थी. हमारी सेना अलर्ट पर थी. लिहाजा चीन की कोशिश कामयाब नहीं हो पाई. जानकारी के मुताबिक, भारतीय सेना ने रणनीतिक लिहाज से अहम कुछ ऊंची चोटियां भी अपने कब्जे में ले ही हैं. चुशूल सेक्टर में ही रेज़ांग-ला, रेचिन-ला और ब्लैक टॉप. ये यहां पहाड़ियों के नाम हैं. पैंगोंग झील के दक्षिणी किनारे पर रणनीतिक बढ़त के लिहाज से ये इलाके काफी अहम हैं.

सेना की तरफ से आधिकारिक बयान नहीं आया है. लेकिन जानकारी है कि इस त्वरित कार्रवाई में भारतीय सेना का हाथ बंटाया स्पेशल फ्रंटियर फोर्स यानी कि एसएफएफ ने.
कौन है ये एसएफएफ, जिसने चीन कोबैकफुट पर ला दिया है? क्या ये भारतीय सेना का हिस्सा है? क्या है इसका इतिहास? सब समझने की कोशिश करते हैं.

चीन और तिब्बत का लंबा संघर्ष

20वीं सदी की शुरुआत से ही चीन ने लगातार तिब्बत पर अपना अधिकार जमाने की कोशिशें की हैं. 1906-07 में वो तिब्बत में दाख़िल होने में एकबारगी कामयाब भी हुआ. चीनी सेना तिब्बत की राजधानी ल्हासा तक पहुंचने में कामयाब हो गई. लेकिन चीन में राजनीतिक अस्थिरता के बीच 1912-13 में चीन की सेना को तिब्बत से बाहर निकालना पड़ा. 13वें दलाई लामा ने तिब्बत की आज़ादी की घोषणा की और 1950 तक तिब्बत तिब्बतियों का रहा.
1950 में चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने वापस तिब्बत में घुसपैठ की. इस बार पहले से ज़्यादा मजबूती के साथ. चीन की ताकत का तिब्बत पर भारी दबाव था. इसी दबाव में तिब्बत के प्रतिनिधियों ने 1951 में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए. इसके तहत तिब्बत को ‘पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का स्वायत्त क्षेत्र’ घोषित करने का वादा किया गया. अब चीन की सेना ल्हासा में थी. इसके बाद 1956 और 1959 में तिब्बतियों ने चीन के ख़िलाफ छिट-पुट आंदोलन किए, लेकिन चीन ने अपने बाहुबल से इसे दबा दिया.
Untitled Design (32) 1950 की तस्वीर. तिब्बत तक पहुंच बनाने के लिए रोड बनाती चीन की सेना. (फोटो सोर्स - Getty)

तिब्बती लड़ाकों ने तैयार की चुशी गांगड्रुक

तिब्बत अब चीन के छाते के नीचे आ चुका था. लेकिन तिब्बती लड़ाकों में चीन को लेकर भारी गुस्सा और असंतोष था. 1957 में कुछ तिब्बतियों ने मिलकर एक लड़ाका यूनिट तैयार की. नाम– चुशी गांगड्रुक (Chushi Gangdruk). माने चार नदियों, छह पर्वतों के क्षेत्र की सेना.
पहले ये यूनिट तिब्बत के एक क्षेत्र ‘खाम’ तक ही सीमित थी. फिर 1958 में संख्या बल बढ़ने के साथ-साथ ये एक पूरे तिब्बत का प्रतिनिधित्व करने वाली लड़ाका यूनिट के तौर पर तैयार हो गई.

सीआईए की ट्रेनिंग और असफल विद्रोह

चुशी गांगड्रुक, चीन के ख़िलाफ थी. ये वो दौर था, जब दुनिया का एक बड़ा और ताकतवर देश भी चीन से नाम से नाक-मुंह सिकोड़ने लगा था. अमेरिका. अमेरिका ने तिब्बत के मसलों मे गहरी दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी थी.
समीकरण बदले. चुशी गांगड्रुक के गुरिल्ला लड़ाकों से अमेरिका की सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) ने संपर्क किया. कहा जाता है कि सीआईए ने चुशी के लड़ाकों को ट्रेनिंग देने के लिए पहले तत्कालीन ईस्ट पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में कैंप लगाए. फिर बाकायदा अपने देश में कैंप चलाए. लड़ाकों को वहां ले जाकर ट्रेनिंग दी जाती, फिर वापस तिब्बत भेज दिया जाता.
चुशी गांगड्रुक के पास अब तक अच्छा-ख़ासा संख्या बल भी हो गया था. 20 हजार के अल्ले-पल्ले. उन्हें लगा कि सीआईए से हथियारों की अच्छी मदद मिलेगी और वो चीन को खदेड़ देंगे. लेकिन ऐन मौके पर सीआईए ने गोली दे दी. चुशी गांगड्रुक को पुराने और दगे हुए हथियार मिले. विद्रोह असफल हो गया. चुशी गांगड्रुक चुपाही मारकर बैठ गई. बाद में ऐसे हालात बने कि दलाई लामा को तिब्बत छोड़कर भारत आना पड़ा और उनके साथ तमाम चुशी लड़ाके भी कथित तौर पर भारत आ गए.
Untitled Design (31) तस्वीर 1959 की है. चीन की सेना के सामने हथियार डालते तिब्बती. (सोर्स - AFP-Getty)

इन सबके बीच भारत का रुख़ क्या था? भारत, चीन और तिब्बत के इस मसले में नहीं पड़ना चाहता था. इसलिए चुशी गांगड्रुक को भारत का कोई समर्थन नहीं था.

1962 में भारत-चीन युद्ध

इसी के कुछ साल बाद 62 की जंग में भारत चीन से बुरी तरह हारा. भारत ने पूरा ध्यान सेना को मज़बूत करने में लगाया. भारी संख्या में फौज में भर्तियां हुईं, सैनिक प्रशिक्षण और रणनीति में बड़े बदलाव किए गए. भारत ने तय किया कि चीन से बातचीत चलती रहेगी. लेकिन अगर दोबारा हमला हो जाए, तो हमारी तैयारी पूरी रहे. इसी तैयारी का हिस्सा थे सेना के माउंटेन डिविज़न्स. सेना की वो टुकड़ियां, जो वैसे पहाड़ी इलाकों में लड़ने में माहिर हों, जैसे चीन की सीमा पर पड़ते हैं.
Indo China War 2 62 की जंग. भारत को हार मिली थी.

'द हिंदू' की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस तरह की टुकड़ियों में भर्ती के लिए उस वक्त के इंटेलिजेंस ब्यूरो चीफ बीएन मलिक ने एक प्लान तैयार किया. तिब्बती लड़ाकों को ट्रेनिंग देने का. इनमें से तमाम लड़ाके पहले कभी चुशी का हिस्सा हुआ करते थे, लेकिन जैसा कि हम बता चुके हैं कि चीन ने जब उनका विद्रोह कुचल दिया, तो चुपाही मारकर बैठे थे.
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से प्लान डिस्कस किया गया. मेजर जनरल सुजान सिंह उबन को जिम्मा दिया गया, जो द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 22 माउंटेन रेजिमेंट को कमांड कर चुके थे. 1962 में तिब्बती लड़ाकों को बाकायदा एक पुराने गोरखा ट्रेनिंग सेंटर में ट्रेनिंग दी गई. इस यूनिट को नाम दिया गया- Establishment 22. 1967 में नाम बदला. नया नाम- स्पेशल फ्रंटियर फोर्स. छोटा नाम- एसएफएफ.

भारत की सीक्रेट फोर्सेज़ का गठन

एसएफएफ का गठन भारत के लिए कितना अहम रहा, इस बात को 'इंडिया टुडे' के डिफेंस जर्नलिस्ट संदीप उन्नीथन ने अपनी एक स्टोरी के ज़रिये विस्तार से समझाया है. पहले ये ग्राफिक देखिए.
Secret Force Graphic भारत की सीक्रेट सर्विसेज़ का ढांचा. (सोर्स - इंडिया टुडे)

उन्होंने बताया है कि जब भी हम भारत की सीक्रेट फोर्स का ज़िक्र करते हैं, तो इसके दो हाथ हैं-
पहला – डायरेक्टोरेट जनरल सिक्योरिटी (डीजीएस), जिसका 1963 में गठन हुआ.
दूसरा – रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ), जिसका 1968 में गठन हुआ.
रॉ पर हम फिर कभी बात करेंगे. लेकिन डीजीएस के फिर दो भाग होते हैं-
पहला – एविएशन रिसर्च सेंटर. नाम से ही स्पष्ट है कि ये एयरबॉर्न इंटेलिजेंस की बात करता है. एक किस्म की मिनी एयरफोर्स, जो स्पाई प्लेन्स वगैरह का काम संभालती है.
दूसरा – जिसकी हम आज बात कर रहे हैं – एसएफएफ.
इससे आप समझ सकते हैं कि भारत की सीक्रेट फोर्सेज़ का जो ढांचा है, उसका बहुत अहम हिस्सा है एसएफएफ.

एसएफएफ काम कैसे करती है?

एसएफएफ पूरी तरह एक खुफिया यूनिट है. इसे भारतीय आर्मी का हिस्सा तो नहीं माना जाता है, लेकिन ये आर्मी के कंट्रोल में काम करती है. यानी आर्मी से अलग एक खुफिया आर्मी यूनिट. इनकी भर्ती प्रोसेस अलग होती है. ट्रेनिंग अलग होती है. महिलाएं भी एसएफएफ का हिस्सा होती हैं. एसएफएफ में रैंक्स भी भारतीय आर्मी के समकक्ष होती हैं. इसे लीड करते हैं इंस्पेक्टर जनरल (एसएफएफ), जो कि मेजर जनरल रैंक के ऑफ़िसर होते हैं. एसएफएफ मिलकर बनता है कुल 6 विकास बटालियन से. हर बटालियन में करीब 800 जवान. यानी करीब पांच हजार एसएफएफ जवान.
Afp Gettyimages 53052840 594x594 एसएफएफ. (फोटो- AFP-Getty)

एसएफएफ की ख़ासियत क्या होती है? ये पहाड़ियों पर, ऊंचे स्थानों पर लड़ाई में माहिर होते हैं. दुश्मन के इलाके में जाकर लड़ने में माहिर. ये जेनेटिक रूप से काफी एथलेटिक होते हैं. मजबूत कद-काठी. यही वजहें हैं कि 50 के दशक से लेकर आज तक पीएलए (चाइनीज़ आर्मी) इससे उलझने से दूरी ही बनाए रखना प्रेफर करती है.

तमाम मोर्चों पर एसएफएफ की भूमिका

एसएफएफ की पहली बड़ी भूमिका 1971 की लड़ाई में रही. तब एसएफएफ ने उस वक्त के ईस्ट पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के चटगांव हिल्स के करीब भारतीय सेना की बड़ी मदद की थी. माना जाता है कि एक खुफिया ऑपरेशन के तहत करीब तीन हजार एसएफएफ जवानों को मैदान में उतारा गया था. इन्होंने पाकिस्तानी आर्मी के भागने के सभी रास्ते ब्लॉक कर दिए थे.
इसके अलावा ऑपरेशन ब्लू स्टार, करगिल युद्ध में भी एसएफएफ की भूमिका रही. करगिल में भी करीब 14 हजार फुट की ऊंचाई पर, ज़ीरो से भी कम तापमान में एसएफएफ ने मोर्चा संभाला था.

एसएफएफ की हालिया भूमिका

एसएफएफ ने अब तक जितने भी मोर्चों पर भारतीय सेना की मदद की है, उसे अक्सर छिपाकर ही रखा गया. क्योंकि ऑब्विसली ये एक खुफिया यूनिट है. सारी जानकारियां अलग-अलग सूत्रों से जुटाई हुईं या रिटायर्ड सैन्य अफसरों, रिटायर्ड एसएफएफ अफसरों से ही छनकर बाहर आती रहीं. लेकिन अब चीन के साथ पैंगोंग में 29 से 31 अगस्त तक हुए घटनाक्रम के बाद ये पहला मौका है, जब एसएफएफ की स्पष्ट मौजूदगी घटनाक्रम के साथ ही बाहर आ रही है.
इसकी वजह है कंपनी कमांडर नाइमा तेनजिंग की मौत. कथित तौर पर वे 31 अगस्त को ईस्ट लद्दाख के पास ही एक लैंडमाइन ब्लास्ट में मारे गए. इसके बाद ये ख़बर बाहर आने लगी कि एसएफएफ भी इस पूरे ऑपरेशन में शामिल थी! संदीप उन्नीथन ने भी अपनी रिपोर्ट में नाइमा तेनजिंग की मौत का ज़िक्र किया है. वे सातवीं विकास बटालियन का हिस्सा था. सोशल मीडिया पर भी नाइमा को याद किया जा रहा है. बीजेपी के महासचिव राम माधव ने भी नाइमा को याद करते हुए ट्वीट किया. हालांकि बाद में डिलीट कर दिया. ज़ाहिर है कि ट्वीट डिलीट करने के पीछे एसएफएफ की भूमिका को खुफिया बनाए रखने की बात हो सकती है.
Untitled Design (30) राम माधव के ट्वीट का स्क्रीनशॉट

संदीप बताते हैं -
"एसएफएफ की ज़रूरत को पहचानते हुए भारतीय सेना ने मई के बाद से ही उनकी लद्दाख में तैनाती धीरे-धीरे शुरू कर दी थी. ये मूव काम कर गया और अब भारतीय सेना ने एसएफएफ की मदद से चीन पर एक बड़ी रणनीतिक बढ़त हासिल की है. चीन भी हमेशा से जानता रहा है कि एसएफएफ से निपटना उसके लिए मुश्किल साबित होता रहा है. इसीलिए अब वो इस बात से काफी अपसेट है कि भारत ने उसके सामने एसएफएफ को खड़ा किया, इस्तेमाल किया."

एक धरोहर भी है स्पेशल फ्रंटियर फोर्स

'इंडिया टुडे' इंग्लिश में छपी अपनी रिपोर्ट में संदीप उन्नीथन लिखते हैं –
“एसएफएफ की विशेष तिब्बती पहचान को सहेजने का ध्यान डीजीएस रखते हैं. एसएफएफ जब किसी फ्रंट पर भी होते हैं, तो इन्हें आर्मी से अलग ही रखा जाता है. ज़्यादा घुलना-मिलना नहीं होता. बटालियन का अपना अलग झंडा है, अलग काम करने का तरीका है, अलग पहचान है. वे सिपाही की तरह या नॉन कमीशन्ड ऑफ़िसर (NCOs) की तरह काम करते हैं.”
जब कोई युवा तिब्बती एसएफएफ जॉइन करता है, तो उसका एक ही लक्ष्य होता है- आज़ाद तिब्बत. मौजूदा हालातों में ये लक्ष्य काफी दूर दिखता है. लेकिन 31 अगस्त से एसएफएफ ने जो ‘ऊंचाई’ फतह की है, शायद वहां से उन्हें तिब्बत भी नज़र आ रहा हो.


पैंगोंग झील पर चीन को सबक सीखाने वाली SFF कैसे काम करती है?

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