क्या है जूना अखाड़ा?
जूना अखाड़ा के बारे में समझने के लिए पहले एक बार ये समझना पड़ेगा कि अखाड़े होते क्या हैं. अखाड़ा शब्द दो अर्थों में इस्तेमाल होता है. एक तो वो जगह, जहां पहलवान कुश्ती लड़ते हैं. दूसरा संन्यासियों का समूह. अधिकतर स्रोत ये बताते हैं कि आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने दशनामी संन्यासी संप्रदाय की शुरुआत की. इसमें चार मठ शुरू किए गए- देश के चार कोनों में. हर मठ के अध्यक्ष इनके शिष्यों में से ही चुने गए.ये चार मठ थे:

1.ओडिशा में गोवर्धन मठ. इसके मुखिया बने श्री पद्मपादाचार्य.
2.केरल में श्रृंगेरी शारदा मठ. इसके मुखिया बने श्री सुरेश्वराचार्य.
3.उत्तराखंड में ज्योतिर्मठ. इसके नेतृत्व का जिम्मा सौंपा गया श्री टोटकाचार्य को.
4.गुजरात में द्वारका मठ. इसके मुखिया बने श्री हस्तमालाकाचार्य.
इन्हीं चार शिष्यों से शुरू हुई परंपरा में आगे और धड़े बंटते चले गए. इन्हीं से निकले दस नाम- गिरि, भारती, तीर्थ, सागर, अरण्य, सरस्वती, पुरी, आश्रम, बाण/वान और पर्वत. इन दस नामों की वजह से ही इनके समूह को दशनामी संप्रदाय कहा गया.
जूना अखाड़े का 'पुराना' इतिहास.
हमने बात की डॉक्टर स्वामी आनंद गिरि से. ये अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि के उत्तराधिकारी शिष्य हैं. साथ ही निरंजनी अखाड़े के महंत हैं. इन्होंने 'दी लल्लनटॉप' से बातचीत में बताया,
मुख्य सात अखाड़े हैं. निरंजनी, जूना, आनंद, महानिर्वाणी, अटल, आह्वान, अग्नि. इन्हीं से आगे चलकर दूसरे अखाड़ों की शुरुआत हुई. इसमें जूना अखाड़े के नाम के पीछे एक कथा चलती है. आठवीं सदी में भैरव अखाड़े की शुरुआत हुई. इस अखाड़े के साधु शस्त्र धारण करते थे. इन्होंने कई मौकों पर युद्ध में लोगों की जान बचाने के लिए बलिदान भी दिया.

बात मुग़ल काल की है. जब जूनागढ़ के निजाम ने वहां की जनता पर अत्याचार किया हुआ था. तब भैरव अखाड़े के साधुओं ने एकजुट होकर उसकी सेना को पछाड़ दिया. जब निजाम ने देखा कि उसके कदम उखड़ गए हैं, तो उसने संधि की बात की. कहा, हम अपने पांव पीछे खींच रहे हैं. आप सभी से संधि करना चाहते हैं आप लोग रात्रि का भोजन हमारे साथ करें.
इस तरह उसने भैरव अखाड़े के सभी साधुओं को भोजन पर बुलाया और सभी को ज़हर दे दिया. लेकिन नियम के अनुसार, मुख्य पुजारी, कोठारी (जो खाता-बही का ध्यान रखने वाले लोग थे) और कुछ अन्य लोग सभी के खा लेने के बाद भोजन करते थे. इस तरह वे लोग ज़हर से बच गए. ये लोग वहां से जान बचाकर निकल गए और दूसरे अखाड़ों में शरण ली. उन लोगों ने पूछा, भैरव अखाड़ा तो ख़त्म हो गया. आप कौन से अखाड़े के हो. उन्होंने कहा, हम उसी पुराने अखाड़े के हैं. गुजराती में 'जूना' का मतलब पुराना होता है. इस तरह इस अखाड़े का नाम जूना अखाड़ा पड़ गया.

हर अखाड़े के अपने इष्टदेव होते हैं. जूना अखाड़े के इष्टदेव भगवान दत्तात्रेय माने जाते हैं. इस वक़्त चार लाख से भी ज्यादा नागा साधुओं के साथ जूना अखाड़ा देश के सबसे बड़े अखाड़ों में से एक है.
किस तरह काम करते हैं अखाड़े?
अखाड़े उसी तरह काम करते हैं, जैसे हमारे देश की राज्यसभा और लोकसभा. जिस तरह देश का नेता राष्ट्रपति और सरकार का नेता प्रधानमंत्री होता है, उसी तरह अखाड़ों में भी आध्यात्मिक और कार्यकारी मुखिया होते हैं. आध्यात्मिक मुखिया होते हैं आचार्य महामंडलेश्वर. इनके बाद आते हैं महामंडलेश्वर और मंडलेश्वर. रोजमर्रा की गतिविधियां इत्यादि मैनेज करने के लिए होते हैं श्रीमहंत, महंत और सचिव. डॉक्टर स्वामी आनंद गिरि ने बताया कि अखाड़ों को चलाने के लिए पांच लोगों का चुनाव हर छह साल में होने वाले कुंभ में किया जाता है. इन्हें श्री पंच कहते हैं. डॉक्टर गिरि ने बताया कि पंचायत का जो कांसेप्ट है, वो अखाड़ों से ही लिया गया है.
कैसे बनते हैं अखाड़े के सदस्य?
स्वामी आनंद गिरि ने बताया कि अगर कोई व्यक्ति अखाड़े का सदस्य बनना चाहता है, तो पहले उसे 12 वर्षों का संकल्प पूरा करना पड़ता है. इन 12 सालों में रहकर वो अखाड़े के नियम सीखता है. परंपराओं को कैसे निभाना है, इसका ज्ञान लेता है. इन 12 सालों में उसे वस्त्रधारी ब्रह्मचारी कहा जाता है. जब इन 12 सालों का संकल्प पूरा हो जाता है, तभी वो व्यक्ति नागा साधु बन पाता है. कुंभ के मेले में फिर उसकी नागा साधु के रूप में दीक्षा होती है.

महिलाओं को भी अखाड़े का हिस्सा बनाया जाता है. लेकिन वो नागा संन्यासियों से अलग माईवाड़ा में रहती हैं. माई यानी मां, वाड़ा यानी घर. वो हमेशा वस्त्रधारी ही रहती हैं. लेकिन महंत, मंडलेश्वर, या महामंडलेश्वर पद के लिए योग्यता रखती हैं. जो भी संन्यासी बनने के लिए आता है, उसके लिए दो महत्वपूर्ण शर्तें होती हैं- न परिवार, न व्यापार. शुरू के 12 सालों में अगर कोई वापस जाना चाहे, तो वो घर भी जा सकता है. उस पर कोई पाबंदी नहीं होती.

आज़ादी के बाद अब कुंभ मेलों में ‘पेशवाई’ के समय ही अखाड़े अपने पारंपरिक अस्त्र-शस्त्र दिखाने के लिए उतरते हैं. कुंभ की ‘पेशवाई’ में सभी अखाड़ों के साधु अपने पूरे समुदाय के साथ निकलते हैं. इसमें हाथी, घोड़े, पालकियां, और उनके हथियार होते हैं.
अखाड़े और उनसे जुड़े विवाद
साधुओं का राजनीति में आना, या उससे जुड़े मुद्दों में भाग लेना कोई नई बात नहीं है. लेकिन ‘ना परिवार, ना व्यापार’ की उनकी कड़ी जीवनशैली के बीच राजनीति ने कैसे घर बना लिया? धीरेन्द्र के झा अपनी किताब 'एसेटिक गेम्स' (Ascetic Games: Sadhus, Akharas and the making of the Hindu Vote) में लिखते हैं,
पिछले कुछ समय में साधुओं का एक समूह 'हिंदुत्व' के राजनीतिक प्रोजेक्ट को प्रमोट करने में लगा हुआ है. इसके पीछे एक वजह ये भी है कि अखाड़ों से जुड़े साधु खुद अपने इतिहास को बेहद अलग तरीके से याद करते हैं. इनको ये लगता है कि एक सुनहरा समय हुआ करता था, जब उनका युद्ध कौशल देश की राजनीति को कंट्रोल किया करता था. काफी समय से ये बात उन्हें खटकती थी कि आज के समय में उनके इस योगदान की कोई पहचान नहीं है. इस नजरिए की वजह से साधुओं ने राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू किया.

इसी किताब में झा लिखते हैं,
साधुओं की एक ऐसी जमात खड़ी हो चुकी है, जो पहले स्वयंसेवक या कार्यकर्ता रह चुके थे RSS में. उनके साधु बन जाने के बाद भी संघ की उनके जीवन में बहुत बड़ी भूमिका बनी रहती है. बाहर के लोगों को भले ही साधुओं के बीच का ये अंतर पता न चले, लेकिन अखाड़ों के भीतर ये फर्क साफ़ पता चलता है. अपने अतीत के कारण ये लोग राजनीतिक समूहों के साथ जुड़े रहते हैं, और कभी-कभी तो अपने साथ पूरे समुदाय को इस पॉलिटिकल एजेंडा में खींच लेते हैं.
साधुओं की ‘विरक्त’ या ‘वैरागी’ वाली इमेज को भुनाने में VHP या RSS जैसे धड़े पीछे नहीं रहे हैं. स्वामी चिन्मयानंद, जो VHP के संस्थापक अध्यक्ष थे, वो RSS सदस्यों को बताते थे कि एक स्वयंसेवक और संन्यासी के बीच कोई फर्क नहीं है. एक भगवा में है, तो एक सफ़ेद में.

हरि, हरिद्वार, और हिस्ट्री
1982 में RSS के साप्ताहिक ऑर्गनाइजर में रिपोर्ट छपी. इसका शीर्षक था हरिद्वार मेक्स हिस्ट्री (Haridwar Makes History). इस रिपोर्ट में ये कहा गया कि VHP ने अपने 100 पुरुष सदस्यों को संन्यासी बनाया. सात अखाड़ों की मदद से. इस पूरी प्रक्रिया को नाम दिया गया संस्कृति रक्षा योजना. इसके बाद एक बड़ा बदलाव हुआ. पहले लोग संतों-संन्यासियों के पास जाया करते थे. लेकिन अब ये संन्यासी लोगों के घर जा-जा कर धर्मोपदेश देने लगे. इन्हें देश के अलग-अलग कोनों में भेजा गया. वहां के धार्मिक लीडरों और राजनेताओं के साथ काम करने के लिए. लेकिन VHP ने आज तक इस बाबत कभी कोई स्वीकारोक्ति या बयान नहीं दिया है.
झा लिखते हैं, कि ये पूरी कवायद इसलिए थी, क्योंकि RSS ने ये समझ लिया था कि धार्मिक मुद्दों के लिए एक बड़ा बाज़ार तैयार होने वाला था. जब 1984 में VHP ने राम जन्मभूमि आंदोलन को दोबारा शुरू किया, तब धर्म, और आध्यात्म से जुड़े मुद्दे एक बार फिर लाइमलाईट में आ गए. इसमें संन्यासियों की अहम भूमिका रही.

ये तो बात हुई राजनीति की. लेकिन आपस में भी इन अखाड़ों के बीच कई विवाद पनपते रहे हैं. जिनकी वजह से ये ख़बरों का हिस्सा बनते हैं.
स्क्रॉल में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़, 2013 के इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के कुंभ में भी जूना और महानिर्वाणी अखाड़े पर आरोप लगे थे. कि उन्होंने पैसे लेकर राधे मां और स्वामी नित्यानंद को महामंडलेश्वर बनाया. 2015 में नासिक के कुंभ मेले में अग्नि अखाड़े के महामंडलेश्वर को लेकर बवाल हुआ. आरोप लगे कि बियर बार चलाने वाले सचिन दत्ता को सच्चिदानंद गिरि का नाम देकर महामंडलेश्वर बनाया गया. उनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हो रखे थे. इस बात को लेकर विवाद इतना बढ़ा कि अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद को मामले में बीच-बचाव करना पड़ा. यही नहीं, मई 2016 के सिंहस्थ कुंभ में आवाहन अखाड़े के दो नागा साधुओं के समूह के बीच झगड़ा हुआ. इसमें तकरीबन 12 नागा साधुओं के घायल होने की खबर आई. मुद्दा था कि श्री महंत का पद किसे दिया जाएगा. उम्मीदवारों के नाम को लेकर बहस हुई और गोली भी चल गई.
आम तौर पर कुंभ मेले के समय ख़बरों में आने वाले ये अखाड़े अध्यात्म ही नहीं, राजनीति का भी हिस्सा बनते दिखाई देते हैं. कई खबरें सामने नहीं आतीं. लेकिन जो आती हैं, वो साधुओं, संतों, और उनकी धर्म की दुनिया का एक अलग खाका खींचती दिखाई देती हैं.
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