तम की चादर हर तरुवर पर,
केवल ताड़ अलग हो सबसे अपनी सत्ता बतलाता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!
दिखलाई देता कुछ-कुछ मग,
जिसपर शंकित हो चलते पग,
दूरी पर जो चीजें उनमें केवल दीप नजर आता है!
अंधकार बढ़ता जाता है!
'तुम्बाड' फिल्म का पहला सीन जब खुलता है, हरिवंशराय बच्चन की कविता स्क्रीन से निकल कर सामने बिखर जाती है. छनाके की इतनी जोर आवाज़ के साथ कि कुर्सी से नीचे झुक कर चुन लो. उस वक़्त वहां सिनेमा हॉल नहीं होता. वहां गद्देदार कुर्सी नहीं होती. उस क्षण से लेकर आने वाले एक घंटे चवालीस मिनट तक, वो दुनिया खुलती है जो इस दुनिया के बहुत पहले से मौजूद है. जो इस दुनिया के मिट जाने के बहुत बाद तक मौजूद रहेगी. जिसका इंसान के धरती पर होने या ना होने से फर्क नहीं पड़ता. वो उसके लिए एक बाहरी तत्त्व है.

'तुम्बाड' फिल्म, जो आंखों ने देखी
तीन पीढ़ियों में बंटी ये कहानी उस समय के भारत में आ रहे बदलावों की झलक देती चलती जाती है. महाराष्ट्र के तुम्बाड नाम के छोटे-से गांव में रहने वाली एक औरत अपने दो बच्चों और एक बूढ़ी लकड़दादी के साथ गुज़ारा कर रही है. उन्हीं में से एक बच्चा बड़ा होता है, और खोज निकालता है अपने परिवार का एक बहुत पुराना रहस्य, जो उसकी ज़िन्दगी बदल देता है. राज़ है- उसके परिवार का एक ऐसे देवता को पूजना जिसे सभी देवगणों ने नकार दिया था. वो देवता जो लालची है. वो देवता जो अनाज को तरसता है. वो देवता जिसका कहीं कोई ज़िक्र नहीं मिलता, क्योंकि ये उसकी सज़ा थी. वो देवता, जिसका नाम लेना गुनाह है. हस्तर.

हस्तर के पास सोने के सिक्के हैं. उसे लेने के लिए विनायक बार-बार उसके पास जाता है. हर बारफ़ एक सिक्का लेकर लौटता है. अपनी जिंदगी गुज़र-बसर करता है. उसकी शादी होती है. उम्र ढलती है. उसका बच्चा बड़ा होता है. अब विनायक का बेटा तैयार है सोने के सिक्के लेने जाने के लिए. इसके बाद क्या होता है, वो सदियों से कहानियों में लिखा गया है. मंत्रों में उचारा गया है. दीवारों पर उकेरा गया है. लेकिन जब वो इस तरह जीवित होकर सामने आ जाता है, तो सच की तरफ देखने की हिम्मत नहीं होती. अपने भीतर की शर्म आड़े आकर छुपा लेती है.
'तुम्बाड' के पीछे की कथा, जो 25 सालों तक राही के मन में पली
मराठी लेखक नारायण धारप की लिखी हुई कहानी 1993 में राही अनिल बर्वे को उनके दोस्त ने सुनाई थी. राही ने एक इंटरव्यू में कहा कि काफी समय बाद जब उन्होंने वो कहानी पढ़ी, तो उन्हें उसमें कुछ ख़ास नहीं लगा. लेकिन उस दिन उनके दोस्त की सुनाई हुई कहानी उनके दिलो-दिमाग पर एक साया बनकर छा गई थी. कहानी थी हस्तर की.
प्रजनन और धन-धान्य की देवी ने जब दुनिया बनाई, तो हस्तर उसका पहला बच्चा हुआ. उसके बाद 16 करोड़ देवी-देवता और हुए, लेकिन हस्तर उसका सबसे प्यारा रहा. इस लाड़-प्यार ने उसे बिगाड़ कर रख दिया. देवी के दिए हुए धन पर कब्ज़ा कर लिया हस्तर ने. लेकिन उसके भीतर का लालच इतना बढ़ गया था कि उसने अपने भाई-बहनों के हिस्से का खाना भी छीनने की कोशिश की. इस पर नाराज़ होकर उसके भाई-बहनों ने उस पर हमला बोल दिया. हार जाने पर वो अपनी मां की शरण में गया. देवी ने उसकी जान बख्श देने की गुज़ारिश की. हस्तर की जानबख्शी हुई, लेकिन एक शर्त पर. वो ये कि उसे कहीं भी पूजा नहीं जाएगा. उसका नाम नहीं लिया जाएगा. कोई उसके बारे में बात नहीं करेगा. बेटे की इस हरकत से लाचार मां ने उसकी जान बचाए रखने के लिए उसे वापिस अपनी कोख में रख लिया. दुनिया हस्तर को भूल गई.

लेकिन एक दिन एक परिवार ने उसे याद किया. कालचक्र के पहिये से एक सींक टूट गई. हस्तर का मंदिर बना, और उसका शाप, एक परिवार के लिए वरदान बनकर सामने आया. इस वरदान की उपज काटने के लिए बने हथियार बड़े होते गए. पीढ़ी दर पीढ़ी दर पीढ़ी. लालच हलाहल की तरह उतरा कंठ से और नसों में फ़ैल गया. विडंबना ये थी, कि देवी की कोख से उपजे उसके पहले बच्चे का छू जाना ही अमरत्व दे जाता था. ये अमरत्व विष को नहीं काटता, लेकिन शिराओं का कम्पन बनाए रखने की कूवत उसमें विद्यमान है. जिसे हस्तर ने छू लिया, वो मर नहीं सकता. मौत के साथ गलबहियां करता हुआ खुद यमराज के पैरों पर भी लोट जाए, तो भी नहीं. लकड़दादी का बताया ये सच, फिल्म के अंत में जाकर इस तरह खुलता है, कि थमी हुई सांस कब धौंकनी की तरह चलनी शुरू हो जाती है, पता नहीं चलता.
'तुम्बाड' कहानी, जो नसों में उतर गई
एक फिल्म आई थी कुछ समय पहले. 'एपोस्टल'. डैन स्टीवंस उसमें लीड किरदार में थे. जिसका नाम था थॉमस रिचर्डसन. (द एपोस्टल नाम से भी एक फिल्म आई थी, लेकिन वो दो दशक पुरानी थी, और उसकी कहानी दूसरी थी. ये अलग फिल्म है) कहानी है एक ऐसे टापू की जहां थॉमस की बहन जेनिफर को कैद कर लिया गया है, फिरौती की खातिर. वो उसे छुड़ाने उस द्वीप पर जाता है. वहां जाकर उसे पता चलता है कि उस टापू पर एक देवी रहती है. वो जीवन दे सकती है. सूख चुके पेड़-पौधों में जान फूंक सकती है. उसकी इस ताकत का फायदा उठाने के लिए वहां के मुखिया ने उसे बांध कर कैद कर लिया. उसके भोजन के लिए लोगों को कैद कर उन्हें पीस दिया जाता. फिर ज़बरदस्ती उसके गले के भीतर खून, मांस और मज्जा उतार देते, ताकि द्वीप पर पेड़-पौधे फल-फूल सकें. फसल हो सके.

थॉमस की बहन भी उसके खाने के लिए अब तैयार कर दी गई है. थॉमस उसे बचाने जाता है. वहां एक पेड़ से लपेट कर बांध दी गई देवी गुहार लगाती है थॉमस से, कि वो उसे आज़ाद कर दे. उसकी कोख थक चुकी है. वो अब और जीवन नहीं दे सकती. थॉमस उसे आग लगाकर आज़ाद कर देता है. लेकिन खुद घायल हो जाता है. फिल्म के अंत में एक बेहद खूबसूरत सीन है, जहां अधिक खून बह जाने के कारण थॉमस ज़मीन पर गिर जाता है. उसकी बहन और द्वीप के बाक़ी लोग नाव लेकर जा चुके हैं. वो नहीं जा सकता, वो थक चुका है. उसके शरीर से खून बहकर मिट्टी में मिल गया है. वहां से कोपलें फूट रही हैं. वो कोपलें धीरे-धीरे थॉमस के आस-पास लिपटती हैं. उसके भीतर घुस जाती हैं. उसके भीतर की बची हुई जान धरती सोख लेती है. जहां से जो आया था, वो वहां वापस चला जाता है.
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूंदे मोहि
एक दिन ऐसा आएगा मैं रून्दूंगी तोहि
तुम्बाड फिल्म के सबसे मुग्ध कर देने वाले दृश्यों में से एक वो है जब विनायक सोने की मुद्रा लेने के लिए देवी की कोख में उतरता है. उसकी दीवारें थरथरा रही हैं. एक जीवित कोख, जिसने पूरी दुनिया को जीवन दिया है, अपने पहलौठी के लाल को आश्रय दिए जस की तस बनी हुई है. उस में उतर कर हस्तर से सोना छीन लाना विनायक के लिए एक रूटीन बन गया है. इतना, कि उसका अपना बच्चा समझ गया है कि किस तरह की तैयारी करनी पड़ेगी उसे हस्तर से सोना छीनने के लिए. विनायक की मां एक मुद्रा में खुश थी. विनायक को कई मुद्राएं चाहिए थीं. विनायक के बेटे को पूरा खजाना चाहिए.

देवी की कोख पालने भर तक की है, बच्चा पेट से बड़ा नहीं हो सकता, जीवन का यही नियम है. जो उसके नियम नहीं मानता, उसका त्याग कर दिया जाता है. जन्म के साथ पैदा हुए और पले-बढ़े अंडाणु जीवन का केंद्र बिंदु बनकर प्रस्फुटित होते हैं. अगर उन्होंने अपने होने का काम सिद्ध नहीं किया, तो गर्भ उन्हें भी निकाल बाहर करता है. अगर भ्रूण में विकार हो, तो गर्भ उसे भी स्वीकार नहीं करता. क्योंकि तब वो एक बोझ बन जाता है. ज़रूरत से ज्यादा रक्त मांस मज्जा खींचता एक पिंड. उसके सृजन से कोख को कोई फायदा नहीं. भले ही गर्भ में आना नियति रही हो उसकी, लेकिन जैसा इस फिल्म के ट्रेलर में भी सुनाई देता है,
‘विरासत में मिली हर चीज़ पर दावा नहीं करना चाहिए’.
विनायक का बढ़ा लालच उस गर्भ में उतरा विकार है. वो निकाल दिए जाने लायक है. अपशिष्ट की तरह. इसका निर्णय और कोई नहीं ले सकता, सिर्फ वो कोख लेगी जिसने सब कुछ बनाया. उसे पाला-पोसा. उसके भीतर ऊभ-चुभ होती नसें महसूस कर लेती हैं कि विकार बढ़ गया है. इस विकार की एक मात्र काट उसे वहीं रोक देना है, वरना रक्तबीज की तरह वो बढ़ता चला जाएगा. हर बार की तरह, इस बार भी बलि देवी को लेनी होगी. रक्तपान करना पड़ेगा. सृजन के लिए संहार ज़रूरी है.
फिल्म की विजुअल भाषा उसकी कहानी जितनी ही सम्मोहक है.

सिर्फ मानसून के मौसम में शूट हुई ये फिल्म उस समय की दुनिया सामने ले आती है. उस समय के कोंकणस्थ ब्राह्मणों का रहन-सहन, पहनावा, सब कुछ शीशे में उतार लिया गया है. जिन जगहों पर शूटिंग हुई है, वो नैचुरल लाइट में की गई है. जो जगहें हैं, उनमें से कई ऐसी हैं जहां कई सालों से किसी ने कदम नहीं रखा. इससे भी बढ़कर है इस फिल्म की प्रतीकात्मकता. देवी की जो छवि इस्तेमाल की गई है, वो पूरी दुनिया में कई जगह पर ‘सेक्रेड फेमिनिन’ यानी पवित्र देवी के रूप में दिखाई गई है. जो पेगन धर्म है, वो भी प्रकृति से जुड़े प्रतीकों की पूजा करता है. धरती अक्सर सेक्रेड फेमिनिन के रूप में पूजी जाती है.
डेनमार्क, स्वीडन और नॉर्वे के आस-पास के इलाके से उपजी नॉर्स माइथोलॉजी में फ्रेया (Freyja) को पूर्ति, उत्पत्ति, और युद्ध की देवी माना गया है. ये वही माइथोलॉजी है जिसके किरदार मार्वल स्टूडियोज की फिल्म्स में थॉर और लोकी के रूप में देखे जा सकते हैं.' रैग्नारोक' फिल्म में हेला नाम की देवी मौत की देवी थी, वो भी नॉर्स माइथोलॉजी का ही हिस्सा है. प्रकृति को पूजने वाले समूहों में गर्भ और उससे जुडी हर चीज़ पवित्र बताई जाती है. 'तुम्बाड' में देवी की कोख का एक सेन्ट्रल कैरेक्टर के रूप में उभरना अपने आप में एक क्रान्ति है सिनेमाई भाषा और लहजे में. इसके बारे में सोच कर वैसा का वैसा परदे पर उतार लाना एक उपलब्धि है जिसके लिए डिरेक्टर को बधाई दी जानी चाहिए.
हॉरर की बदलती परिभाषा
एक समय था जब हॉरर फिल्मों का नाम लेते ही रामसे ब्रदर्स का नाम आंखों के आगे आ जाता था. 'अंधेरा', 'डाक बंगला' और 'वीराना' जैसी फिल्में उनकी ही बनाई हुई थीं जिन्होंने भारत में काफी समय तक हॉरर फिल्मों का बाज़ार चलता रखा. इन सभी में सेक्स और डरावने भूतों की भरमार होती थी. काफी समय तक ये ट्रेंड चला, उसके बाद हॉलीवुड से पोजेशन या ‘ऊपरी हवा का लगना’ जैसी चीज़ें धीरे-धीरे फिल्मों में आईं. इनमें भी अधिकतर फोकस भूतों और उनके डरावनेपन पर रहा. पिछले कुछ सालों तक बॉलीवुड में हॉरर के नाम पर इसी तरह की फिल्मों का चलन बना रहा. अंधेरे कमरे, उनमें खड़े भूत, कब्रिस्तान में भटकती आत्माएं. इन सभी में हॉरर एक एक्सटर्नल फैक्टर की तरह रहा. फिल्ममेकिंग के पूरे प्रोसेस में एलिमेंट या तो हमेशा रोमांस का आगे रखा गया, या फैमिली का. हॉरर उसे चलाए या जोड़े रखने का एक बहाना भर था. पर हाल के समय में हॉलीवुड हो चाहे बॉलीवुड, डर की परिभाषा को रीडिफाइन किया जा रहा है. सीमा रेखाएं दुबारा खींची और मिटाई जा रही हैं.

माइक फ्लैनगन की फिल्म 'ऑक्यूलस' (Oculus) हो, या फिर साउथ कोरिया के किम जी वून की 'अ टेल ऑफ टू सिस्टर्स' (A Tale Of Two Sisters). रिचर्ड बेट्स की 'एक्सिज़न' (Excision) हो या फिर एम नाइट श्यामलन की 'स्प्लिट' (Split), इन सभी फिल्मों ने दर्शक को डर के नए पहलू से रूबरू करवाया. इन सभी फिल्मों में डर किसी बाहरी एलियन चीज़ से नहीं था. अपने भीतर से धीरे-धीरे बाहर निकलता एक अनुभव था. हॉरर की इस परिभाषा में कई चीज़ें जुड़ीं. इंसानी स्वभाव के अलग-अलग हिस्सों का अपना रिएक्शन होता है डर को लेकर. उनसे उपजा भय भी कई रूप लेता है. 'एक्सिजन' में एना लिन मैकोर्ड का किरदार अपनी मेंटल हेल्थ को लेकर किन गहराइयों में पहुंच चुका है, ये उसके आस-पास के लोग देख भी नहीं पाते. फिल्म के कुछ दृश्यों में एना का किरदार पॉलीन जिस तरह की चीज़ें सोचता है, वो रोंगटे खड़े कर देने वाला है.

अपने भीतर का डर पहचान कर उसका सामना कर पाना सबसे डरावनी चीज़ों में से एक है. उसे परदे पर देखना या उतारना तो दूर की कौड़ी है. शायद इसीलिए सब ये कर नहीं पाते. इससे भी ज्यादा ज़रूरी ये है कि भारत में बन रही हॉरर फिल्में अब भूतों को सिर्फ डराने के काम तक सीमित नहीं रख रहीं. जहां एक ओर ओरिजिनल लोक कथाओं और मिथकों पर फिल्में बनाने का रिस्क लिया जा रहा है ('परी', 'स्त्री') वहीं डर के मूल स्त्रोत को उसके सिंगल डाइमेंशन से निकाल कर मल्टी डाइमेंशन में लाया जा रहा है. डर अपने आप में सिर्फ एक भूत प्रेत या जिन्न के रूप में फलीभूत नहीं हो रहा, एक फैक्टर तक सीमित नहीं रह रहा. खुद में एक किरदार बन रहा है. ये एक अच्छी निशानी है.
'तुम्बाड' फिल्म को बनने में छह साल से ऊपर लगे हैं. इस मेहनत का फल मीठा है. आने वाली कई पीढ़ियों को सींच सकता है. इसे बनाए रखने की ज़रुरत है.
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