देश की राजधानी दिल्ली का तीन मूर्ति चौराहा. वो जगह, जिससे ठीक सटा हुआ बना है तीन मूर्ति भवन, जो देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का घर था. उनके देहांत के बाद इस भवन को संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया. पर क्या आपको पता है कि इमारत के बाहर बने चौराहे का नाम तीन मूर्ति क्यों है? वो इसलिए, क्योंकि चौराहे के स्तंभ के चारों ओर मूर्तियां बनी हैं. असल में उनकी संख्या चार है, लेकिन एक तरफ से देखने पर तीन मूर्तियां ही दिखाई देती हैं, इसलिए इसका नाम तीन मूर्ति पड़ गया. पर रोचक बात तो ये है कि इनमें से एक भी मूर्ति पंडित नेहरू की नहीं है. न ही उनके राजनीतिक गुरु महात्मा गांधी या उनके कद के किसी और महापुरुष की. ये मूर्तियां हैं साल 1918 में इस्राइल में लड़ते हुए शहीद होने वाले भारतीय सैनिकों की, जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2017 के अपने इस्राइल दौरे पर श्रद्धांजलि दी.
दुनिया में फिर कभी वैसी जंग हुई ही नहीं, जैसी हाइफा में भारतीय सैनिकों ने लड़ी थी
दुश्मन मशीन गनों से गोलियां उगलते जा रहे थे और इधर घोड़ों पर सवार भारतीय तलवारों से उनका मुकाबला कर रहे थे.


तीन मूर्ति चौराहा
आज कहानी उन सैनिकों की, जो अपने हिस्से के किस्से जज्ब किए सालों से उस चौराहे पर खड़े हैं.
वो साल 1918 था. पहला विश्व युद्ध उसी साल नवंबर में खत्म हुआ था, लेकिन उससे पहले बारूद की गंध दुनिया के आखिरी इंसान तक पहुंच चुकी थी. तब तक यहूदियों का देश इस्राइल नहीं बना था. इस्राइल भारत के आजाद होने के कुछ ही महीनों बाद 1948 में बना था. तो 1918 के सितंबर महीने में ब्रिटिश झंडा थामे लड़ रहे सैनिक समंदर किनारे बसे शहर हाइफा में बहाई समुदाय के आध्यात्यमिक गुरु अब्दुल बहा को रिहा कराने की योजना बना रहे थे.

अब्दुल बहा
झंडा ब्रिटेन का था, लेकिन वो सैनिक भारतीय थे. भारत की तीन रियासतों- मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद के सैनिक, जिन्हें अंग्रेजों की तरफ से जर्मन और तुर्की सेना के खिलाफ लड़ने के लिए भेजा गया था. हाइफा पर जर्मन और तुर्की सेना का कब्जा था. अपने रेल नेटवर्क और बंदरगाह की वजह से हाइफा रणनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण जगह थी, जो युद्ध के लिए सामान भेजने के काम भी आती थी. भारतीय सैनिकों को हाइफा, नाजेरथ और दमश्कस को जर्मन-तुर्की सेना के कब्जे से आजाद कराना था, जो आज इस्राइल और सीरिया में हैं.

आज कुछ ऐसा दिखता है हाइफा
और फिर वो दिन आ गया
23 सितंबर 1918. हाइफा के अंदर मशीन गन और उस जमाने के सबसे आधुनिक हथियारों के साथ जर्मन और तुर्की सैनिक तैयार खड़े थे. उनके सामने थे जोधपुर और मैसूर के सैनिक, जिनके पास कोई ऑटोमेटिक हथियार नहीं थे. घोड़ों पर सवार वो सैनिक हाथ में भाले और तलवारें लिए खड़े थे. आज सोचें, तो उस दिन लड़ाई का कोई मतलब ही नहीं था. घोड़े कितने भी तेज होते, पर गोलियों से तेज तो नहीं. ऐसी किसी भी लड़ाई के अंत में घुड़सवार सेना को छलनी कर दिया जाना था, पर उस दिन नहीं. उस दिन इतिहास लिखा जाना था. उस दिन दुनिया को एक घुड़सवार सेना के वो पराक्रम देखना था, जो इतिहास में कभी दोहराया नहीं जा सका.

1918 में ऐसा दिखता था हाइफा
जर्मन और तुर्की सैनिकों के कुछ समझने से पहले ही 15वीं (इम्पीरियल सर्विस) घुड़सवार ब्रिगेड ने दोपहर 2 बजे हाइफा पर धावा बोल दिया. जोधपुर के सैनिक माउंट कार्मेल की ढलानों से हमला कर रहे थे. वहीं मैसूर के सैनिकों ने पर्वत के उत्तरी तरफ से हमला किया. सेना के एक कमांडर कर्नल ठाकुर दलपत सिंह लड़ाई की शुरुआत में ही मारे गए, जिसके बाद उनके डिप्टी बहादुर अमन सिंह जोधा आगे आए. मैसूर रेजिमेंट ने दो मशीन-गनों पर कब्जा करके अपनी पोजीशन सुरक्षित कर ली और हाइफा में घुसने का रास्ता साफ कर दिया.

मैसूर रेजिमेंट का एक सैनिक
एक ही दिन में आजाद करा दिया शहर
इसके बाद शुरू हुई सीधी लड़ाई. एक तरफ घोड़े और दूसरी तरफ गोलियां. यही वो दृश्य था, जिसकी कल्पना करके ब्रिटिश जनरल एडमंड एलेनबी भारतीय सैनिकों को युद्ध सी पीछे हटाना चाहते थे, लेकिन सैनिक ठहरे सैनिक. पहलवानों सी फितरत. हार पता होने के बावजूद मैदान में आकर लौट जाने का तो सवाल ही नहीं उठता. दिनभर के युद्ध के बाद भारतीय सैनिकों ने हाइफा को 400 साल पुराने ऑटोमन साम्राज्य से आजादी दिला दी. ऑफीशियल हिस्ट्री ऑफ दि ग्रेट वॉर में लिखा गया,
'पूरे कैंपेन (वर्ल्ड वॉर) में इस स्तर का युद्ध किसी घुड़सवार सेना ने नहीं लड़ा. मशीन गन से लगातार निकल रहीं गोलियों ने घोड़ों को घायल जरूर किया, तो वो उन्हें रोक नहीं पाईं.'
हाइफा को कब्जे में लेकर भारतीय सैनिकों ने 1350 जर्मन और तुर्की सैनिकों को बंदी बनाया था, जिनमें से दो जर्मन अफसर और 35 तुर्की अफसर थे. वहां 17 आर्टिलरी गन और 11 मशीन गन कैप्चर की गईं. इस युद्ध में आठ भारतीय सैनिक मारे गए थे और 34 घायल हुए थे. वहीं 60 घोड़े मारे गए थे और 83 घायल हुए थे. हाइफा में भारतीयों के लिए कब्रिस्तान बनाया गया, जो 1920 तक इस्तेमाल किया जाता रहा. भारत में इन सैनिकों की वीरता की याद में 1922 में तीन मूर्ति स्मारक बनाया गया.
फिर बहाई समुदाय का क्या हुआ
तुर्क साम्राज्य में अब्दुल बहा के समर्थक तेजी से बढ़ रहे थे और इसी वजह से उनकी जान पर खतरा बन आया था. अब्दुल को छुड़ाए जाने के बाद अल्पसंख्यक बहाई समुदाय के कई लोगों ने भारत में शरण ली थी और फिर यहीं बस गए. आज भी भारत में बहाई समुदाय के करीब 20 लाख लोग रहते हैं. इस लिहाज से भारत दुनियाभर में बहाइयों का सबसे बड़ा घर है. ये धर्म बहाउल्लाह (1817-1892) ने स्थापित किया था और भारत 1844 से इससे जुड़ा है. कुछ दस्तावेज ये भी बताते हैं कि बहाउल्लाह के पूर्वज भारत से थे.

1927 में हिंदुस्तान के कराची में एक बहाई परिवार
आज हाइफा इस्राइल का तीसरा सबसे बड़ा शहर है और यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स में से एक है.
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