बात है लगभग 8 साल पहले की. ट्रेन में कानपुर से दिल्ली आ रहे थे एडमिशन के लिए. ऐसी-वैसी जगह नहीं, DU. मतलब ऑलमोस्ट नॉर्थ कैंपस. अंग्रेजी में ऑनर्स करने. लाइफ बदलने वाली थी. गर्ल्स कॉन्वेंट ख़त्म हो रहा था. अब बाल भी खोल सकते थे, झुमके भी पहन सकते थे, और जिन्हें इंटरेस्ट था वो लड़कियां नेल पॉलिश भी लगा सकती थीं. मुझे तो नेलपॉलिश लगाकर अपने हाथ को देखना वैसा लगता है जैसे मोर को अपने पांव देखकर लगता है. मगर बात वो नहीं थी. बात ये थी कि अब कुछ भी, ऑलमोस्ट कुछ भी करने की छूट मिलने वाली थी. साथ में एक पक्की वाली दोस्त भी थी. एसी 2 टियर. गली के इस तरफ 4 सीटें. पिताजी, मैं, सहेली. दाईं तरफ की अपर पर एक लड़का. अब तो शादी कर के बाप भी बन चुका होगा. प्रॉबेबली. हमने उसके फ्यूचर के बारे में बात नहीं की थी. खैर. तो 18 की उम्र में एक लड़का मिलता है (नेवर माइंड हिज लुक्स) जो उसी यूनिवर्सिटी से पढ़कर निकला है जहां मैं एडमिशन लेने जा रही हूं. बातें शुरू होती हैं और लड़का अपने अनुभव बताना शुरू करता है. बताता है कि वो जो भी है, उसे उसकी यूनिवर्सिटी ने बनाया है. हम सब ध्यान से सुनते हैं क्योंकि हमें अपना रंगीन भविष्य दिखाई दे रहा है. 6 घंटे का सफ़र ख़तम होता है और पिताजी कहते हैं: "बेटा और कुछ पूछना हो तो भइया से पूछ लो." मैं और मेरी दोस्त एक दूसरे को देखते हैं. डेली सोप की तरह कानों में क्वेश्चन मार्क की तरह बजता है:
"भइया?" "भइया?" "भइया?" लड़का सफ़ेद पड़ गया था. मैं और मेरी सहेली पर्याप्त शर्मिंदा हो चुके थे. परिवार और पड़ोस के बाहर पहला लड़का मिला था और वो भी -
भइया? एक ही फ़्लैश में आंखों के आगे पूरा बचपन घूम गया. और याद आया कि अपने बचपन से आजतक जिनको भी भइया कहा है, उनमें से सिर्फ एक ही था जो असल में भाई था. बाकी सब तो बनाए गए थे. तब समझ में आया कि हम सब एक बड़ी भयानक बीमारी से ग्रसित हैं.
द भाई-बहन सिंड्रोम. 
असल में बीमारी महज सांस्कृतिक नहीं, राष्ट्रीय है. वो स्कूल वाली 'प्लेज' तो याद होगी न, 'ऑल इंडियन्स आर माय ब्रदर्स एंड सिस्टर्स'. भाई साब, इस लॉजिक से तो विदेशी से ब्याह करना पड़ेगा. और देखो, पिछले वाक्य में संबोधन में भी 'भाई साब' निकला. खून में जो बस गया है. जब हम 'कन्या' हुआ करते थे, नवरात्रों में न्योते आते थे. तब तिवारी जी का लड़का सुबह 6 बजे घर के बाहर साइकिल लिए तैनात रहता था. सबसे पहले कन्याएं हमारे घर आएंगी. तब मम्मी उठाकर कहतीं, भइया बाहर खड़े हैं. जल्दी नहाकर तैयार हो जाओ. और 20 मिनट में मैं भइया की साइकिल के डंडे पर सवार उनके घर की ओर कूच कर रही होती थी. फिर पीरियड आ गए, और कन्यापन भंग हो गया. 14 की उम्र रही होगी जब वही भइया अपनी स्कूटी पर हॉर्न देते हुए, छेड़ते हुए निकले. घर आकर मां को बताया, रास्ते में भइया ने छेड़ दिया. भइया का जो पिलौसंड़ हुआ वो तो हुआ, लेकिन उसके पहले भाषा, सेक्स, और संबंधों के साथ जो हिंसा हुई, यानी जब भइया ने छेड़ा, वो जीवन भर याद रह गया. भइया ने भी शायद अपने दोस्तों को बताया हो, आज अपनी बहन छेड़कर आया हूं.
जाने कितनी बहनें भइयाओं के साथ भागीं, उनसे ब्याह किया, बच्चे किए. शुरुआत लेकिन बहनापे से ही हुई. क्योंकि कोई और शब्द ही नहीं था, खुद से बड़े लड़के को संबोधित करने के लिए. अरे हमारे समय में तो रक्षाबंधन के पहले को-एड स्कूलों की लड़कियां रक्षाबंधन के पहले बाकायदा राखी लेकर स्कूल जाती थीं. और स्कूलों को इससे कोई समस्या नहीं थी. लेकिन जो वैलेंटाइन्स या फ्रेंडशिप डे (तब कुछ कुछ होता है रिलीज हुई थी और लोकल चैनल पर हर हफ्ते आती थी) के दिन डेस्क के अंदर से गुलाब या फ्रेंडशिप बैंड निकल आया, तो तुम्हारी खैर नहीं. मगर राखी अच्छी चीज थी. पावन धागा था. ये बात अलग थी कि फ्रेंडशिप बैंड और राखी के धागे में डेकोरेशन भर का फर्क था.

असल में भाई-बहन सिंड्रोम सेफ्टी जैसा है. ये सेफ्टी का पहला कदम है. दूसरा कॉन्डम है. पहला आपको सेक्स (या प्रेम) से रोकता है. दूसरा सेक्स (प्रेम) में बर्बाद होने से. जब शरीर पहली प्रिकॉशन नहीं लेता, तो दूसरी लेनी पड़ती है. मां-बाप को लगता है कि अगर बचपन से ही बच्चों से अपोजिट सेक्स के लोगों को भइया/बहन बुलवाएंगे, तो बच्चे सेफ रहेंगे. एक मॉरल प्रेशर रहेगा, प्रेम न करने का. और उसके बाद भले ही पीरियड में नैपकिन बदलती और उधर स्वप्नदोष से जूझते युवावस्था में घुसते बच्चों को एक दूसरे के प्रति मॉरल प्रेशर महसूस हो रहा हो या न हो रहा हो, मां बाप को एक अनकहा संतोष रहता है. कि चलो हमने तो बच्चों को ठीक संस्कार दिए हैं. हमारी लड़की या हमारा लड़का बस किसी तरह शादी तक ये सेक्शुअल टेंशन को हैंडल कर ले, फिर तो हर पराया मर्द या औरत भाई या बहन ही लगेंगे.

आशुतोष चचा की बिटिया भी उनके घर में घुसते ही मुझे बुआ पुकारती है. उसको पता है संबंधों का लोचा कैसे मैनेज किया जाता है. उसकी मां के अलावा पिता की हर हमउम्र औरत बुआ है. दैट्स द रूल.
आजकल बच्चे प्री-स्कूल में जाते हैं तो पड़ोसी की आंटी पूछती हैं, 'सच सच बताओ गुड़िया, तुम्हारा बॉयफ्रेंड कौन है?' तीन साल की बच्ची किसी रैंडम, बेमतलब से संस्कृत टाइप के नाम वाले लड़के का नाम लेकर हंस पड़ती है और आंटी कहती है हाहाहा सो क्यूट. यही बच्ची अगर यही बात 12 की उम्र में करे, तो आंटी पूरे मोहल्ले में मैक्सी के ऊपर दुपट्टा डाले ढिंढोरा पीट आएंगी. कि फलाने की बेटी तो हाथ से गई. काजल, लिप ग्लॉसादि भी लगाने लगी है. हॉ.
इधर बच्चे केजी से फर्स्ट में गए, और नैचुरली एक दूसरे के लिए भाई और बहन जोंड हो जाते हैं. इट्स लाइक अ रूल. जैसे मुंडन और कनछेदन. हर बार की तरह ज्ञान देना अच्छा तो नहीं लगता. लेकिन बच्चों को ज़रा मुक्त रखें और राखी के साथ-साथ उन्हें उनकी भावनाओं और युवावस्था का भी सदुपयोग सिखाएं तो बेहतर होगा. एंड बाय सदुपयोग आई मीन उनकी नैतिकता के पहले उनकी सेक्स एजुकेशन पर काम करें. ताकि कोई 16 साल की लड़की अपने किसी 'भाई' से प्रेगनेंट न हो.
ये भी पढ़ें:
इस नई फिल्म के पोस्टर में शिवजी चप्पल पहनकर बाइक पर बैठे हैं