बात 1940 की है. दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो चुका था. हिटलर की नाजी सेना (German Nazi Soldiers) ने यूरोप के कई देशों में कहर बरपाना शुरू कर दिया था. इसका पहला बड़ा शिकार था फ्रांस. जर्मनी ने फ्रांस पर 10 मई 1940 को हमला किया. लड़ाई करीब 6 हफ्ते चली और आखिरकार फ्रांस ने 14 जून, 1940 को एक भी गोली चलाए बिना हिटलर के आगे घुटने टेक दिए. फ़्रांस को एक नया राष्ट्रपति मिला - 84 साल का मार्शल पटेन. उसने 22 जून 1940 को हिटलर (Hitler)के साथ युद्ध विराम को लेकर एक समझौते पर साइन किए.
टीपू की वंशज जिसे हिटलर ने गोलियों से भून डाला!
नूर इनायत खान जो ब्रिटेन की सबसे भरोसेमंद जासूस बनीं

अब पेरिस जैसा एक हसीन शहर हिटलर के सैनिकों से भरा रहता. जर्मनी की दो खुफिया सुरक्षा एजेंसियां आब्वेहर और गेस्तापो लोगों की पहरेदारी करने लगीं. आम लोगों का घर से निकलना मुश्किल हो गया. पेरिस का एक मुस्लिम परिवार जो कुछ साल पहले ही लंदन से आकर यहां बसा था, इन सबसे अछूता नहीं था. सूफी विचारधारा पर चलने वाले इस परिवार में एक महिला और उसके 4 बच्चे थे. घर के मुखिया की मौत हो चुकी थी. पेरिस में नाजियों के अत्याचार को देखकर इस परिवार की सबसे बड़ी बेटी नूर इनायत खान (Noor Inayat Khan) को गहरा सदमा लगा. उसने कुछ ही रोज में ये फैसला ले लिया कि नतीजा चाहें कुछ भी हो, लेकिन वो हिटलर के फासीवाद के खिलाफ लड़ेगी.

ये लड़की काफी पहले ही अपने पिता की सूफी शिक्षा को आगे बढ़ाने के बारे में मन बना चुकी थी. लेकिन, टीपू सुलतान की वंशज थी, तो खुद को नाजियों के खिलाफ खड़े होने से रोक न सकी. किसी तरह परिवार को साथ लेकर ब्रिटेन के कार्निवाल शहर पहुंची. फिर यहां से वो लंदन गई.
जब उसने लंदन का हाल देखा तो उसका इरादा और भी ज्यादा मजबूत हो गया. लंदन अब वो लंदन नहीं था, जिसे कभी वो छोड़ के गई थी. लंदन का कोना-कोना जल रहा था, और देश टूटने की कगार पर था. 7 सितंबर 1940 से हर रात लंदन पर हिटलर के फाइटर प्लेन बमबारी कर रहे थे. लगातार 76 रातों तक ये बमबारी हुई. ऐसा लगता मानो अंडरग्राउंड रेलवे स्टेशन लंदन के लोगों का स्थायी घर बन गए हों.

नूर इनायत खान जब लंदन पहुंची, तो वहां ब्रिटिश आर्मी के बड़े-बड़े पोस्टर लगे थे. इन पर लिखा था कि आर्मी को लोगों की सख्त जरूरत है. नूर ने ब्रिटिश सेना में नौकरी के लिए अप्लाई कर दिया. लेकिन,आर्मी से जो जवाब आया, वो उन्हें बड़ा झटका देने वाला था.
नूर इनायत खान के पिता का नाम इनायत खान था, जो न केवल एक भारतीय थे, बल्कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने (Indian Freedom Movemnet) वाले टीपू सुलतान (Tipu Sultan) के परपोते थे. नूर भी मास्को में पैदा हुई थीं और फ्रेंच नागरिक थीं, कुछ रोज पहले ही फ्रांस से वापस आई थीं, ऐसे में ब्रिटिश आर्मी उनका सिलेक्शन करने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी. इसलिए पहली बार में ही उनकी एप्लीकेशन रद्द कर दी गई.

लेकिन फिर नूर इनायत खान ने कैसे ब्रिटिश आर्मी ज्वाइन की. और वो भी एक सबसे भरोसेमंद जासूस के तौर पर. कैसे नाजियों को चने चबाने के बाद किसी अपने के धोखे के चलते वे पकड़ी गईं. साथ ही आज के एपिसोड में ये भी जानेंगे कि बतौर जासूस नूर इनायत खान ने ऐसा क्या किया था कि ब्रिटेन उन्हें आज भी बेहद सम्मान के साथ याद करता है?
इंटरव्यू में गांधी को लेकर पूछा गया सवाल!ब्रिटिश आर्मी से रिजेक्शन के बाद भी नूर इनायत खान ने हिम्मत नहीं हारी. उन्होंने आर्मी को पत्र लिखा और कहा कि उनकी मां एक ब्रिटिश नागरिक हैं. और वे खुद ब्रिटेन में 'ब्रिटिश प्रोटेक्टिव पासपोर्ट' लेकर रह रहीं हैं, इसलिए वे भी एक ब्रिटिश हुईं. इसके बाद आर्मी अफसरों के तेवर कुछ नरम हुए, उन्होंने नूर को इंटरव्यू के लिए बुलाया. इंटरव्यू में उनसे सबसे पहला सवाल पूछा गया कि वे महात्मा गांधी के बारे में क्या सोचती हैं? उन्होंने सीधे कहा कि महात्मा गांधी भारत में जो कर रहे हैं, उससे वे बेहद प्रभावित हैं. इतना बोलने के बाद ब्रिटिश अफसरों का दूसरा सवाल क्या होगा, ये नूर अच्छे से जानती थीं.
'द स्पाई प्रिंसेस: द लाइफ़ ऑफ़ नूर इनायत ख़ान' की राइटर श्राबणी बसु बताती हैं,
आर्मी अफसरों ने उनसे सवाल किया कि क्या वे भारत के उन नेताओं का सपोर्ट करेंगी, जो वहां ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं? नूर इनायत खान ने फट से जवाब दिया कि इस समय फासीवाद के खिलाफ युद्ध चल रहा है, और मेरा कर्तव्य है ब्रिटेन को सपोर्ट करना. लेकिन, ये युद्ध खत्म होने के बाद मैं भारत में आजादी की जंग को अपना समर्थन दूंगी.
ब्रिटिश अफसर उनकी हाजिर जवाबी से बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने उनके नाम पर मोहर लगा दी. नवंबर 1940 में उन्हें ब्रिटिश एयर फ़ोर्स में सेकेंड क्लास अफसर के तौर पर नियुक्त किया गया. जहां उन्हें "वायरलेस ऑपरेटर" यानी रेडियो ऑपरेटर की ट्रेनिंग दी गई. आर्मी में नूर को नया नाम मिला 'नूरा बेकर'.
Noor Inayat Khan के जब जासूस बनने की बारी आईइसके करीब डेढ़ साल बाद उन्हें आर्मी ने एसओई यानी 'स्पेशल ऑपरेशन एग्जीक्यूटिव' के इंटरव्यू के लिए बुलाया. एसओई ब्रिटिश आर्मी की एक बेहद ख़ास और ख़ुफ़िया ब्रांच थी, जिसे जुलाई 1940 में बनाया गया था. इसका मकसद ये था कि जब अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश जर्मनी के अधीन आए देशों में अपनी आर्मी भेजें, तो वहां पहले से मौजूद एसओई के खुफिया एजेंट उनका काम आसान करें. यानी एसओई में जिनका सिलेक्शन होता, उन्हें सीधे जर्मनी के द्वारा कब्जाए गए देशों में भेज दिया जाता.

एसओई के अंडर कवर एजेंट्स को हर तरह की ट्रेनिंग दी जाती थी. उनसे साफ़ कहा जाता था कि अगर दुश्मन ने उन्हें पकड़ लिया तो ये भूल जाओ कि आप कौन हो, कहां से आए हो. यानी दुश्मन के हाथ आने के बाद बद-से-बदत्तर हालत होनी तय थी.
नूर इनायत खान डेढ़ साल से ब्रिटिश आर्मी में जो काम कर रही थीं, वो उन्हें बेहद उबाऊ लग रहा था. टीपू सुल्तान की ये वंशज जिस काम के लिए आर्मी में भर्ती हुई थी, वैसा कुछ भी अब तक करने को उसे नहीं मिला था. ऐसे में जब एसओई में जाने का मौका मिला तो उन्होंने तुरंत हां कर दी.

एसओई की ट्रेनिंग में उन्हें सबसे पहले coded मैसेज भेजना और रिसीव करना सिखाया गया. एजेंट्स का सबसे बड़ा काम यही होता था, उन्हें दूसरे मुल्क से एक ख़ास तरह के रेडियो सिस्टम के जरिए अपनी सेना को मैसेज भेजना होता था. हर कोड को डिकोड करने के लिए एक key और पासवर्ड होता था. जो एजेंट्स को ही पता रहता था.
जब अफसरों ने कहा Noor Inayat Khan जासूस नहीं बन सकतींइसके बाद एसओई की ट्रेनिंग में हथियार चलाना और पैरामिलिट्री की ट्रेनिंग दी गई. किसी भी हाल में दुश्मन के सामने मुंह न खोलने के लिए भी एजेंट्स को तैयार किया जाता था, यानी नकली इंटेरोगेशन. नूर को इस सबमें काफी परेशानी आई, क्योंकि उनके पिता एक सूफी संत थे, किसी पर गोली चलाना तो दूर उन्होंने अपने बच्चों को कभी झूठ न बोलने की शिक्षा दी थी. ट्रेनिंग के दौरान ब्रिटिश अफसरों ने कहा कि नूर अंडर कवर एजेंट बनने के लायक नहीं हैं, वो गोली नहीं चला पाएंगी और अगर कभी जर्मन एजेंसी गेस्तापो के अधिकरियों ने उन्हें पकड़ लिया तो ये लड़की सब कुछ उगल देगी.

लेकिन, इस सबके बाद भी नूर इनायत खान को एसओई के अंडर कवर एजेंट के तौर पर सिलेक्ट किया गया. इसकी वजह थी उनका बढ़िया फ्रेंच बोलना, पेरिस के चप्पे-चप्पे से वाकिफ होना. साथ ही उनके बेहद खूबसूरत चेहरे की मासूमियत भी थी, जिसके चलते कोई उन्हें ख़ुफ़िया एजेंट नहीं कह सकता था. पेरिस भेजने के लिए उनका चयन किया गया, जहां गेस्तापो के अधिकारियों ने अपना खौफ बना रखा था.
नूर को अब ख़ुफ़िया नाम मेडेलीन दिया गया. उन्हें जून 1943 में पेरिस में एक नर्स बनाकर भेजा गया. जहां उन्हें दो भाई-बहन गैरी और रेनी के घर में रहना था. ये दोनों भाई-बहन फ़्रांस में जर्मनी के खिलाफ शुरू हुए किए आम लोगों के आंदोलन का हिस्सा थे.आंदोलन के लोग ब्रिटिश ख़ुफ़िया एजेंट्स की मदद किया करते थे. ठीक वैसे ही जैसे गैरी और रेनी कर रहे थे.
पेरिस से मैसेज भेजने वाली अकेली ब्रिटिश जासूसपेरिस में ब्रिटेन के जासूसों के कई ग्रुप थे. नूर इनायत खान पेरिस पहुंची ही थीं कि नूर को वायरलेस पर लंदन से मैसेज आया कि वो तुरंत वापस आ जायें, क्योंकि वायरलेस तकनीक के जरिए ख़ुफ़िया मैसेज भेजने वाले सभी ब्रिटिश एजेंट्स पेरिस में पकड़ लिए गए हैं. और गेस्तापो को खबर लग गई है कि मेडेलीन नाम की एक एजेंट भी पेरिस भेजी गई है. हालांकि, नूर ने वापस जाने से इंकार कर दिया क्योंकि अब वही पेरिस में एक ऐसी एजेंट बचीं थीं, जो मैसेज भेजने और रिसीव करने में सक्षम थीं.
इसके बाद उन्होंने अपना भेष बदला, बाल कलर करवाए. और जून से लेकर अक्टूबर 1943 तक पेरिस से लगातार लंदन ख़ुफ़िया जानकारी भेजती रहीं. ये बेहद खतरनाक काम था. वायरलेस सेट पर अगर मैसेज भेजते समय 15 मिनट से ज्यादा का समय हो जाता तो जर्मन पुलिस नूर को पकड़ सकती थी. इसके अलावा मैसेज भेजने के बाद वायरलेस सेट कुछ देर के लिए उस जगह से कहीं दूर ले जाना होता था. ये सब इसलिए करना पड़ता था क्योंकि पेरिस की सड़कों पर उस समय वायरलेस सेट डिटेक्ट करने वाली जर्मन बैन्स घूमा करती थीं.

ये बैन्स इतनी तेजी से एजेंट्स के वायरलेस सेट पकड़ती थीं कि एक ब्रिटिश वायरलेस ऑपरेटर एजेंट ज्यादा से ज्यादा 2 महीने ही काम कर पाता था. क्योंकि इतने समय के अंदर-ंअंदर उसे जर्मन बैन्स खोज ही लेती थीं. इसीलिए वायरलेस से मैसेज भेजने के काम पर ब्रिटिश पुरुष एजेंट्स ज्यादा रखे जाते थे. जिससे पकडे जाने पर वो अपना मुंह न खोलें.
लेकिन, यहां यही काम एक भारतीय मूल की महिला नूर इनायत खान बेहतर ढंग से पूरा कर रही थी. जर्मन को उन्होंने अपना कोई सुराग नहीं लगने दिया.
क्यों अपने ही एक साथी ने Noor Inayat Khan को धोखा दिया?नूर को पेरिस में करीब 5 महीने हो चुके थे. इस दौरान वो उस फैमिली का भी लगभग एक हिस्सा बन चुकी थीं, जहां वो रहती थीं. गैरी और उसकी बहन रेनी से उनकी काफी अच्छी पटरी खाने लगी थी. मिलनसार थीं, तो जो भी ब्रिटिश एजेंट्स पेरिस में थे, उनसे भी उनकी अच्छी दोस्ती हो गई थी. बताते हैं कि इस दौरान एक ब्रिटिश एजेंट फ्रेंस एनटेम के नूर काफी करीब आ गईं, जासूसी के बाद बचा समय दोनों एक साथ ही बिताते.
फ्रेंस एनटेम जब पेरिस आया था, तब उसने काफी समय गैरी और रेनी के साथ भी बिताया था. और इस दौरान रेनी को उससे प्रेम हो गया था. इसलिए अब उसे नूर इनायत खान और फ्रेंस एनटेम की दोस्ती बेहद अखरती थी.
नूर से ईर्ष्या के चलते रेनी ने अक्टूबर, 1943 में एक दिन उनकी खबर जर्मन अधिकारियों को दे दी. नूर को घर से पकड़ लिया गया. लेकिन, उन्होंने आसानी से सरेंडर नहीं किया. वह लड़ीं और छह हट्टे-कट्टे पुलिस अधिकारियों ने मिलकर उन्हें काबू में किया. भागने की भी कोशिश की, लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाईं.

श्राबणी बसु ने लिखा है कि जर्मन एजेंटों ने ब्रितानी ऑपरेशन के बारे में जानकारी निकलवाने के लिए नूर को बहुत प्रताड़ित किया. लेकिन वे नूर का असली नाम तक नहीं पता कर पाए. उन्हें ये कभी पता नहीं लगा कि वे भारतीय मूल की थीं. कैदी के रूप में एक साल गुजारने के बाद उन्हें दक्षिणी जर्मनी के एक यातना शिविर में भेज दिया गया. वहां उन्हें नए सिरे से प्रताड़ित किया गया. नाज़ियों ने उन्हें आज ही के दिन यानी 13 सितंबर 1944 को तीन अन्य महिला जासूसों के साथ गोली मार दी थी.
बताते हैं कि जब उन्हे गोली मारी गई, तो उस समय उनके मुंह से निकला "लिबरेते". लिबरेते एक फ्रेंच वर्ड है, जिसका हिन्दी में अर्थ होता है 'आजादी'
वीडियो देखें : भारतीय राजकुमारी जो ब्रिटेन की सबसे बड़ी जासूस बनी!