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ग्वालियर किले के तहखाने में छुपे ख़ज़ाने का राज!

सिंधिया राजघराने के ग्वालियर के किले में कई तहख़ाने मौजूद थे और इन तहखानों में छिपा था हजारों करोड़ों का खज़ाना. इस ख़ज़ाने का कोड सिर्फ राजा और उसके खास लोगों के पास हुआ करता था. राजा मरने से पहले अपने उत्तराधिकारी को ये कोड देकर जाता था. कोड के बिना तहखाने को खोजना नामुमकिन था.

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ग्वालियर फोर्ट के गुप्त तहखानों में सिंधिया के महाराजा का करोड़ों का ख़ज़ाना छिपा हुआ था(तस्वीर-wikimedia commons)

अली बाबा और चालीस चोर नाम की एक कहानी आपने सुनी होगी. जिसमें अली बाबा नाम के एक गरीब लकड़हारे को चोरों का खज़ाना हासिल हो जाता है. कहानी में एक ख़ुफ़िया खज़ाना था, जिसके दरवाज़ों को खोलने के लिए एक पासवर्ड बोलना पड़ता था, ‘खुल जा सिमसिम’. कहानी के एक हिस्से में अली बाबा का एक दोस्त उसके ख़ज़ाने को चुराने की कोशिश करता है. लेकिन पासवर्ड पता न होने के कारण वो तहखाने के अंदर ही बंद रह जाता है, और चोर उसे मार डालते हैं. आज ऐसी ही एक और कहानी से आपको रूबरू करवाते हैं. जिसमें तहखाना भी है, तहखाने का कोड भी और मौत भी. सिर्फ इतना अंतर है कि ये कहानी असली है. और भारत में घटी थी.

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सिंधिया राजघराना

इस कहानी का रिश्ता है ग्वालियर के सिंधिया राजघराने से. जिनके पुरखों ने मध्यभारत में कई सदियों तक राज किया. और आजादी के बाद भी सिंधिया राजघराना भारत की राजनीति में बड़ा स्थान रखता आया है. सिंधिया राजघराने की राजधानी कभी ग्वालियर हुआ करती थी. ग्वालियर के इस किले में बनी थी तहखानों की एक भूलभुलैया, इन तहखानों में छिपा के रखा जाता था हजारों करोड़ों का खज़ाना, जिसकी ख़ास बात ये थी कि इस ख़ज़ाने का कोड, या जिसे बीजक कहते थे, वो सिर्फ राजा और उसके खास लोगों के पास हुआ करता था. राजा मरने से पहले अपने उत्तराधिकारी को ये कोड देकर जाता था. लेकिन सोचिये क्या हो अगर कोड ट्रांसफर करने से पहले ही एक राज्य की मृत्यु हो जाए?

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Maharaja of Gwalior (Jayajirao Scindia)
ग्वालियर के महराजा जयाजीराव सिंधिया(तस्वीर-wikimedia commons)

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के ऑफिसर जॉन मार्शल, सिंधिया घराने की शुरुआत के बारे में एक किस्सा बताते हैं. 18 वीं शताब्दी के शुरुआती सालों की बात है. मराठाओं के पेशवा बाजी राव का एक सेवक हुआ करता था. नाम था रानोजी सिंधिया. एक रोज़ पेशवा अपने तंबू से बाहर निकले तो उन्होंने देखा कि रानोजी उनकी चप्पलों के साथ सोए हुए हैं. रानोजी की स्वामिभक्ति से पेशवा इतने खुश हुए कि उन्होंने रानोजी को अपना बॉडीगार्ड बना लिया. धीरे-धीरे तरक्की करते हुए रानोजी मराठा साम्राज्य के एक ताकतवर जनरल बन गए. और 1731 में उन्होंने उज्जैन को अपनी राजधानी बना लिया. वक्त के साथ सिंधिया और भी ताकतवर होते गए और 1810 में दौलत राव सिंधिया के काल में उन्होंने अपनी राजधानी उज्जैन से ग्वालियर शिफ्ट कर दी. ग्वलियर का किला, सिंधिया राजघराने का केंद्र बन गया. इन सालों में युद्ध से कमाई बहुत सी दौलत इकठ्ठा हुई थी. इस ख़ज़ाने को गंगाजली कहा जाता था. और इसे ग्वालियर किले के नीचे बने तहखानों में छिपाया गया था. इन खुफिया तहखानों को खोलने के लिए एक कोड, या जिसे बीजक कहा जाता था, उसकी जरूरत होती थी, जो सिर्फ महाराजा और उनके कुछ खास लोगों के पास होता था.

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ख़ुफ़िया तहख़ाने में था हजारों करोड़ों का खज़ाना

साल 1843 में जब जयाजीराव सिंधिया ग्वालियर की सत्ता पर काबिज़ हुए, खजाने का कोड उन्हें मिला. कोड के बिना तहखाने को खोजना लगभग नामुमकिन था. इसलिए जब 1857 की क्रांति में रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर पर कब्ज़ा किया, वो भी ख़ज़ाने का कुछ पता नहीं लगा पाईं. इस दौरान जयाजीराव को ग्वालियर छोड़ना पड़ा था. जब क्रांति का खात्मा हुआ तो अंग्रेज़ों ने ग्वालियर किले को अपने कब्ज़े में ले लिया. 1895 में जेम्स फ़ोर्ब्स मिचल नाम के एक ब्रिटिश आर्मी अफसर ने “हिडन ट्रेजर इन इंडिया ” नाम का एक आर्टिकल लिखा था. इसमें मिचल लिखता है कि 1857 से 1886 तक ग्वालियर किला अंग्रेज़ों के कब्ज़े में रहा. इस दौरान जयाजीराव किले में जाने के लिए बड़े बेचैन रहते थे. बड़ी कोशिशों के बाद 1886 में किला वापिस उन्हें मिल पाया था.और इन सालों में उन्हें पैसों को लेकर काफी दिक्कत उठानी पड़ी थी.

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Gwalior Fort
ग्वालियर का किला(तस्वीर-wikimedia commons)

इसके अलावा मिचल एक और किस्सा बताता है, जो उसे लाला मथुरा प्रसाद ने सुनाया था. लाला मथुरा प्रसाद तब उत्तरी भारत के सबसे धनी खजांची थे. किस्सा कुछ यूं है कि जब 1886 में जयाजीराव को किले की चाबी वापिस मिली. उन्होंने बनारस से कुछ मिस्त्री बुलवाए. काम एकदम ख़ुफ़िया तरीके से किया जाना था, इसलिए बनारस से निकलते वक्त मिस्त्रियों को भगवान् की कसम खिलाई गई. जब वे लोग ग्वालियर पहुंचे, उनकी आंखों में पट्टी बांधकर, उन्हें बैलगाड़ी में बिठाकर एक खुफिया तहखाने तक ले जाया गया. तहखाने में रहकर उन्होंने कुछ दिन खुदाई की और खजाने के दरवाजे का पता लगाया. आखिर में जब जयाजीराव को विश्वास हो गया कि खज़ाना सही सलामत है, मिस्त्रियों को आंख में पट्टी बांधकर, उसी तरह वापिस भेज दिया गया, जैसे लाया गया था. 

खज़ाना हासिल तो हो गया लेकिन उसे देखने के लिए जयाजीराव ज्यादा दिन जिन्दा न रहे. उनकी मृत्यु के बाद माधो राव सिंधिया गद्दी पर बैठे. इस दौरान एक बड़ी गलती ये हुई कि महाराजा जयाजीराव, माधोराव को खजाने का बीजक या कोड देना भूल गए या किसी कारणवश दे नहीं पाए. ट्रिविया के लिए जान लीजिए माधोराव सिंधिया, राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के दादा थे.

कैसे हासिल किया खोया हुआ ख़ज़ाना?

बहरहाल आगे क्या हुआ, इसका जिक्र ब्रिटिश लेखिका MM काये ने अपनी आत्मकथा में किया है. काये बताती हैं कि ये कहानी उन्होंने अपने पिता से सुनी थी, जो तब ग्वालियर में पोस्टेड थे. माधोराव सिंधिया ख़ज़ाने के खो जाने से परेशान थे. तब उन्हें एक ज्योतिषी ने बताया कि वो उन्हें ख़ज़ाने का रास्ता बता सकता है. लेकिन इसके लिए एक शर्त थी. क्या शर्त?
शर्त ये कि महाराजा को ख़ज़ाने तक अकेले जाना होगा और वो भी आंख में पट्टी बांधकर. माधोराव तैयार हो गए. लेकिन तहखाने में घुसते ही अचानक एक जोर की आवाज़ ने उन्हें चौकन्ना कर दिया. उन्हें लगा कि ये उनकी हत्या की साजिश हो सकती है. उन्होंने अपने हाथ में पकड़ी छड़ी को जोर से घुमाया, जो सीधे ज्योतिषी को लगी और वो वहीं ढेर हो गया. उन्होंने बाहर निकलने के लिए आसपास की दीवारों को टटोलने के कोशिश की. इस बीच उनका हाथ एक खम्बे पर पड़ा. हाथ लगते ही खम्बा अपनी जगह से हिल गया. और उसके पीछे मौजूद खजाने का दरवाज़ा सामने आ गया. इस तरह महाराजा ने अपना खोया खज़ाना वापिस हासिल कर लिया.

M. M. Kaye
ब्रिटिश लेखिका MM काये ने अपनी आत्मकथा में ख़ज़ाने का ज़िक्र किया है(तस्वीर-Amazon/Wikimedia commons)

इसके कुछ साल बाद एक ब्रिटिश अधिकारी, कर्नल बैनरमैन ने कुछ और तहखानों की खोज की. जिसका जिक्र माधोराव सिंधिया की बहू, विजयराजे सिंधिया ने अपनी आत्मकथा में भी किया है. 1889 में लन्दन के अखबार द स्पेक्टेटर की एक रिपोर्ट बताती है,

“ग्वालियर में एक विशाल ख़ज़ाने की खोज हुई है, ऐसे ख़ज़ाने की अब तक हमने सिर्फ कहानियां ही सुनी हैं ”

अब सवाल ये कि ख़ज़ाने में था क्या? लाइव इंडिया हिस्ट्री नाम की के वेबसाइट के को फाउंडर और रिसर्च हेड, अक्षय चव्हाण ने नेशनल आर्काइव्स ऑफ़ इंडिया के कुछ पुराने दस्तावेज़ों को खंगालकर इस ख़ज़ाने का पता लगाया है. अक्षय, कर्नल बैनरमैन के लिखे कुछ खतों के जरिए इस ख़ज़ाने का हिसाब बताते हैं. इन खतों के अनुसार, ग्वालियर के ख़ज़ाने में 40 लाख की मुद्राएं, जिनकी तब कीमत 5 करोड़ 64 लाख रही होगी, शामिल थीं. इसके अलावा 14720 हीरे, 37667 मोती, 11 हजार माणिक और कई हजार जवाहरात भी इस ख़ज़ाने का हिस्सा थे, जिनकी कीमत करोड़ों में आंकी गई थी. 21 वीं सदी के हिसाब से कुल ख़ज़ाना हजारों करोड़ से कम का नहीं था. इन खतों से ये भी पता चलता है कि ख़ज़ाना सिर्फ ग्वलियर किले के नीचे नहीं था. ख़ज़ाने का एक हिस्सा मोतीमहल के नीचे बनी एक खुफिया जगह पर रखा गया था. और एक हिस्सा महल के बगीचे के नीचे दफनाया गया था. 

आगे इस ख़ज़ाने का क्या हुआ?

कहा जाता है कि इस पूरी कवायद से महाराजा माधोराव इतने फ्रस्ट्रेट हुए कि उन्होंने सारा खज़ाना कैश में बदलवा दिया. और इस पैसे को कई सारी कंपनियों में लगा दिया. इन कंपनियों में से एक का नाम था TISCO जिसे हम टाटा स्टील के नाम से जानते हैं.

Madho Rao Scindia
महाराजा माधोराव सिंधिया ने ख़ज़ाने का पैसा टाटा स्टील में लगा दिया(तस्वीर-wikimedia commons)

1924 के आसपास टाटा वित्तीय मुसीबतों का सामना कर रहे थे. तब महाराजा माधो राव के आर्थिक सलाहकार FE डिनशॉ ने टाटा में निवेश कर उनकी मदद की थी. इसके बदले सिंधिया घराने का टाटा स्टील में हिस्सा मिला. और 1960 तक सिंधिया टाटा स्टील के सबसे बड़े शरहोल्डर्स में से एक थे.लेकिन उसके बाद सिंधिया घराने में जायदाद को लेकर एक नई लड़ाई शुरू हुई. जिसमें माना जाता है कि हजारों करोड़ की जमीन जायदाद स्टेक्स पर हैं. लेकिन इस लड़ाई का किस्सा किसी और दिन.

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