प्रथम विश्व युद्ध में भारत के कई जवान, ब्रिटेन के पक्ष में युद्ध में शामिल हुए. हजारों वीरगति को प्राप्त हुए और इनमें से बहुत से ऐसे थे, जिन्हें कभी घर लौटना भी नसीब नहीं हुआ. उत्तराखंड के टिहरी जिले में एक क़स्बा है, चम्बा. मसूरी से कुछ 50 किलोमीटर दूर इस कस्बे में हर साल 21 अप्रैल को एक मेला लगता है. वक्त ने इस मेले को महज औपचारिकता में तब्दील कर दिया है. लेकिन पहले इस मेले की बड़ी धूम हुआ करती थी. गढ़वाल राइफल्स के अफसर एक मार्च निकालते थे. और आसपास के गांवों के लड़कों को सेना में भर्ती भी किया जाता था. मेला जिस शख्स की याद में लगता है, उसका नाम है गबर सिंह नेगी. गढ़वाल राइफल्स का एक जवान जो प्रथम विश्व युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ. और जिसे विक्टोरिया क्रॉस से नवाजा गया.
बमों की बारिश से जीतने वाला गढ़वाल राइफल्स का जांबाज!
गबर सिंह नेगी का जन्म उत्तराखंड में टिहरी जिले के चम्बा कस्बे में 21 अप्रैल, 1895 को हुआ था. गढ़वाल राइफल्स में भर्ती होने के बाद उन्होंने ब्रिटेन की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में भाग लिया और 1915 में न्यू चेपल की लड़ाई में ट्रेंच वॉर में जर्मन सैनिकों के साथ युद्ध लड़ा. अपने अदम्य साहस के चलते गबर सिंह नेगी को विक्टोरिया क्रॉस से नवाजा गया.


आज ही के दिन यानी 21 अप्रैल, 1895 को गबर सिंह नेगी का जन्म हुआ था. चम्बा के नजदीक मंजौर नाम के एक गांव में. तब ये इलाका टिहरी गढ़वाल रियासत के अधीन था. बचपन में पिता की मृत्यु के बाद दो भाइयों की जिम्मेदारी गबर सिंह के ऊपर आ गई थी. जिसके चलते उन्होंने पढ़ाई छोड़कर छोटी-मोटी नौकरी करना शुरू किया. कुछ वक्त उन्होंने टिहरी के राजा प्रताप शाह के महल में भी काम किया. 1913 में उनकी शादी सतूरी देवी से हुई. इसी दौरान गबर सिंह ने गढ़वाल राइफल्स को जॉइन किया. लैंसडौन में हुई भर्ती में हिस्सा लेकर वो 2/39 रेजिमेंट में बतौर राइफलमैन जुड़ गए. ब्रिटेन प्रथम विश्व युद्ध में कूदा तो 39 गढ़वाल राइफल्स उन चुनिंदा रेजिमेंट्स में थी जिन्हें इंडियन फ़ोर्स A के लिए चुना गया. इस फ़ोर्स को वेस्टर्न फ्रंट पर तैनात किया गया था. और इसी फ्रंट पर 10 मार्च 1915 को फ़्रांस में न्यू चेपल की लड़ाई लड़ी गई. पहले थोड़ा शॉर्ट में समझते हैं कि लड़ाई यहां तक पहुंची कैसे?
28 जून 1914 को बॉस्निया की राजधानी सराहेवो में ऑस्ट्रिया-हंगरी के आर्चड्यूक फ्रांज़ फर्डिनेंड की हत्या कर दी गई. ऑस्ट्रिया-हंगरी और सर्बिया के बीच पहले से तनाव था. और इस घटना ने इस तनाव में ट्रिगर का काम किया. ऑस्ट्रिया-हंगरी ने सर्बिया को इस हत्या का जिम्मेदार ठहराया और उनके साथ जंग की घोषणा कर दी.

28 जुलाई 1914 को ऑस्ट्रिया-हंगरी ने सर्बिया के ऊपर हमला किया. और यूरोप दो खेमों में बंट गया. ऑस्ट्रिया-हंगरी और जर्मनी के बीच पुरानी दोस्ती थी इसलिए दोनों देशों के बीच एक अलायन्स बना. बाद में इस अलायन्स के साथ ओटोमन साम्राज्य भी जुड़ा और इस अलायन्स को नाम दिया गया, सेंट्रल पावर्स. दूसरी तरफ सर्बिया की मदद के लिए रूस आगे आया. और फ़्रांस के साथ मिलकर उन्होंने अलाइड पावर्स नाम का अलायन्स बनाया. ब्रिटेन भी इस अलायन्स का हिस्सा था. लेकिन वो शुरुआती दौर में युद्ध नहीं उतरा.
युद्ध की शरुआत हुई तो जर्मनी ने एक प्लान बनाया. इस प्लान के तहत जर्मनी पहले फ़्रांस पर हमला करने वाला था. जो उसने किया भी. रूस की वॉर मशीनरी बहुत बड़ी लेकिन जटिल थी. इसलिए जर्मनी ने सोचा कि जब तक वो युद्ध के लिए तैयार होंगे, तब तक जर्मनी फ़्रांस को जीत लेगा. और बाद में यही फ़ोर्स जाकर ईस्टर्न फ्रंट यानी जर्मनी और रूस के बॉर्डर पर लड़ेगी. लेकिन फ्रांस ने अपने बॉर्डर पर भारी डिफेंसिव तैयारी कर रखी थी. जिसके चलते जर्मन सेना ने जितना अनुमान लगाया था, वो उतनी तेज़ी से आगे नहीं बढ़ पाई.
ये देखते हुए जर्मन सेना ने उत्तर की तरफ मूव किया. यानी बेल्जियम की तरफ. उनका इरादा था कि बेल्जियम पर कब्ज़ा कर उस रास्ते से फ़्रांस में दाखिल हुआ जाए. बेल्जियन एक न्यूट्रल देश था. और जर्मनी ने बिना कारण उस पर हमला किया था. ये देखते हुए ब्रिटेन भी युद्ध में कूद गया. जर्मनी अपने इनीशिएटिव का फायदा उठाते हुए फ्रांस के काफी अंदर तक घुस चुका था. पेरिस उनकी नजर में था. और ऐसा लगने लगा था कि जर्मनी अपने प्लान में कामयाब हो जाएगा. लेकिन तब फ़्रेंच कमांडर ने अपनी सेना को रिट्रीट करने से रोका और अपनी सेना से ग्राउंड होल्ड करने को कहा.
ब्रिटिश फ़ोर्स अब तक इस युद्ध का हिस्सा बन चुकी थी. फ्रेंच सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश फोर्सेस ने जर्मन सेना को पीछे हटने पर मजबूर किया. लेकिन जर्मन सेना ने पीछे हटने के बजाय ट्रेंच (एक लम्बी गहरी खाई, चौड़ी नाली समान) खोद कर वहीं डेरा जमा लिया. जवाब में फ्रेंच और ब्रिटिश फोर्सेस ने भी ऐसा ही किया. इसके बाद दोनों सेना एकदूसरे को आउटफ्लैंक (सैनिक पंक्ति के पीछे पहुंचना) करने के चक्कर में साइड वेज ट्रेंच खोदती चली गई. और मार्च 1995 तक बेल्जियम कोस्ट (समुन्द्र तट) से लेकर स्विट्ज़रलैंड तक एक ट्रेंच सिस्टम तैयार हो गया. जिसे वेस्टर्न फ्रंट का नाम मिला. यहां से WW1 में ट्रेंच वॉर फेयर की शुरुआत हुई.

ट्रेंच वॉर फेयर का तरीका कुछ यूं था-
आमने-सामने दो ट्रेंच होते. जिनमें सैनिक छुपे रहते. इसके बीच में कई सौ मीटर चौड़ा एक इलाका होता. जिसे ‘नो मैन लैंड’ का नाम दिया गया. दोनों खेमें अपने-अपने ट्रेंच के आगे तार-बाड़ और माइन लगाते, ताकि दुश्मन आसानी से ट्रेंच पर हमला ना कर पाए. ट्रेंच में मशीन गन और आर्टिलरी तैनात की जाती। ताकि दुश्मन का कोई सैनिक नो मैंस लैंड में दिखे तो उसे वहीं गिरा दिया जाए.
दोनों खेमें एक दूसरे के ट्रेंच पर दिन रात गोलाबारी करते. और जैसे ही मौका मिलता, एक खेमा नो मैन लैंड को पार कर दूसरे खेमे के ट्रेंच तक पहुंच कर उस पर कब्ज़ा करने की कोशिश करता. ये काम बहुत कठिन था. चूंकि दूसरे ट्रेंच तक पहुंचने के लिए आपको खुली कीचड़ भरी जमीन से होकर गुजरना पड़ता. और आप सीधे दुश्मन की मशीन गन का निशाना होते.
ट्रेंच पर कब्ज़ा करने के लिए एक के बाद एक वेव में टुकड़ियां भेजी जाती. और इस चक्कर में हर दिन हजारों लोग मारे जाते. ये लड़ाई तब तक चलती रहती जब तक एक खेमा दूसरे खेमे के ट्रेंच पर कब्ज़ा न कर लेता. ऐसा करने पर भी आप सिर्फ कुछ किलोमीटर ही आगे बढ़ पाते. क्योंकि सेनाएं एक ट्रेंच के पीछे दूसरा, फिर तीसरा ऐसे लगातार ट्रेंच खोदती जाती.
न्यू चेपल की लड़ाई में गबर सिंह नेगी1915 के जनवरी महीने तक ट्रेंच वॉर फ़ेयर से दोनों सेनाओं के जनरल परेशान थे. क्योंकि इन ट्रेंच में रहने वाले सैनिकों का मनोबल बनाए रखना आसान काम नहीं था. महीनों तक ट्रूप्स को इन ट्रेंच में रहना पड़ता. बारिश होती तो ज़मीन कीचड़ से भर जाती. ठंड के महीनों में इन खाइयों में रहना तो और भी दूभर काम था. आसपास मरे हुए शवों से बीमारी फैल रही थी. गड्ढों में भरा पानी ज़हरीला हो चला था. और दिन रात हो रही गोलबारी से सैनिक शेल शॉक्ड होते, वो अलग.

मार्च 1915 में फ़्रेंच और ब्रिटिश कमांडर्स ने प्लान बनाया कि कैसे भी करके ट्रेंच से बाहर निकलना होगा. ब्रिटिश फ़ोर्स का एक बड़ा हिस्सा भारतीय ट्रूप्स भी थे. जिन्हें फ़्रांस में स्थित न्यू चेपल ट्रेंच में तैनात किया गया था. 10 मार्च के रोज़ न्यू चेपल में ब्रिटिश फ़ौज ने आक्रमण शुरू किया. प्लान था कि आगे लिले रेल लिंक पर कब्जा जमा लेंगे. इस रेल लिंक का इस्तेमाल जर्मन सेना ट्रांसपोर्ट के लिए करती थी. और यहीं से जर्मन सैनिक स्विस बॉर्डर से लेकर बेल्जियम कोस्ट तक भेजे जाते. जहां लागातार ट्रेंच खोदे जा रहे थे. 10 मार्च की सुबह 5 बजे अटैक शुरू हुआ. शुरुआत में अर्टिलरी अटैक से जर्मन ट्रेंच को कोई नुकसान नहीं हुआ. तो बम पार्टी को आगे भेजा गया. ताकि ट्रेंच से जर्मन ट्रूप्स का सफाया किया जा सके. गबर सिंह नेगी ऐसी ही एक पार्टी का हिस्सा थे.
कीचड़ भरी जमीन पर आगे बढ़ने के लिए पलटन हाथ पैरों के बल रेंग कर आगे बढ़ रही थी. साथ में राइफ़ल और बम थे. और नेगी की टुकड़ी का काम था जर्मन ट्रेंच तक पहुंचकर हथगोले फेंकना. ताकि जर्मन फ़्रंट पर एक गैप बने. और इसका फ़ायदा उठाकर कैवल्री आगे बढ़ जाए. लेकिन अटैक की शुरुआत में ही नेगी की पार्टी के कमांडर की गोली लगने से मौत हो गयी. तब गबर सिंह नेगी ने पार्टी को लीड करते हुए जर्मन ट्रेंच तक का सफर पूरा किया. और इस दौरान लगातार मशीन गन का हमला झेलते रहे. जर्मन ट्रेंच तक पहुंचकर उन्होंने उस पूरे हिस्से से जर्मन सेना को पीछे हटने पर मजबूर किया. जिसके चलते 1700 जर्मन सैनिकों को आत्म समर्पण करना पड़ा.
बमों की बारिश के बीचट्रेंच तक पहुंचकर उसे कब्ज़े में लेने का काम सुनने में बड़ा सिंपल लगता है. लेकिन ट्रेंच की बनावट के बारे में जानेंगे तो समझ आएगा कि ये काम कितना जटिल था. ट्रेंच का निर्माण सिर्फ एक गड्ढे के तौर पर नहीं किया जाता था.
ट्रेंच में नीचे की तरफ एक डग आउट बनाया जाता था. ताकि अगर दुश्मन ट्रेंच में दाखिल हो जाए तो सैनिक इस डग आउट में छुप जाएं. इस डग आउट के बिना, कोई भी अगर ट्रेंच में घुस जाए तो उसे सिर्फ इतना करना होता कि एक सीध में गोली चलानी होती. और संकरे गड्ढे में सभी आसानी से निशाना बन जाते. लेकिन डग आउट होने के चलते, दुश्मन को हर पोस्ट पर जाना पड़ता और एक एक-एक सैनिक को मारना पड़ता या गिरफ्तार करना पड़ता.

गबर सिंह नेगी ने लगभग अकेले इस काम को अंजाम दिया. और लगभग 100 पोस्ट पर जाकर अकेले ही ट्रेंच के एक बड़े हिस्से को जर्मन सैनिकों से खाली करा लिया. इसके अलावा उन्होंने एक जर्मन मशीन गन को भी अपने कब्ज़े में किया। जिससे कई भारतीय जवानों की जान बच गयी. लेकिन इस चक्कर गबर सिंह नेगी को भी गोली लगी और वो वीरगति को प्राप्त हो गए. उनके अदम्य साहस को देखते हुए मरणोपरांत उन्हें विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया. इस सम्मान को विश्व युद्ध की समाप्ति पर भारत के तत्कालीन वायसराय ने दिल्ली में संपन्न भव्य विजय समारोह में गब्बर सिंह की पत्नी को प्रदान किया.
गबर सिंह की कहीं कोई समाधि नहीं है. सिर्फ उनका नाम फ़्रांस में स्थित न्यू चेपल मेमोरियल में दर्ज़ है. चूंकि सेना में परंपरा का बड़ा सम्मान किया जाता है. इसलिए गबर सिंह की स्मृति में सन 1925 में चम्बा में एक भव्य स्मारक बनाया गया. जिस पर हर 21 अप्रैल को एक मेले का आयोजन किया जाता रहा. गढ़वाल राइफल्स के जवान इस दिन यहां एक मार्च में सम्मिलित होते. और फौज में नए जुड़ने वाले साथियों को ये कसमें दिलाई जाती कि वो भी गढ़वाल राइफल्स का नाम ऐसी ही ऊंचा करें, जैसे गबर सिंह नेगी ने किया था.
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