भारत के एक खूंखार अपराधी को पाकिस्तान अपने यहां शरण देता है. अपराधी भी ऐसा जिसने भारत के खिलाफ खुलेआम बगावत का ऐलान कर दिया था. सुनकर आपको एक नाम याद आ रहा होगा. दाऊद इब्राहिम. दाऊद यकीनन भारत का सबसे बड़ा गुनाहगार है. लेकिन हम जिसकी बात कर रहे हैं, वो एक डाकू था. डाकू भूपत सिंह, जिसकी दहशत की ख़बरें अमेरिकी अखबारों में छपती थीं. आम लोगों में उसे रॉबिन हुड की उपाधि मिली थी. लेकिन असल में वो एक षड्यंत्र का हिस्सा था. षड्यंत्र भारत को लोकतंत्र बनने से रोकने का.
जब नेहरू ने पाकिस्तान से कहा, ये डाकू मुझे दे दो!
भारत का पहला कुख्यात अपराधी जिसे पाकिस्तान ने शरण दी. भारत का एक डाकू पाकिस्तान में दूधवाला बन गया. ये सब कैसे हुआ, कौन था वो डाकू और क्या थी भारत के पहले चुनाव को बाधित करने की साजिश?
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खेल से अपराध तक
साल 1941 की बात है. बड़ौदा रियासत के एक राजा हुआ करते थे. महाराजा प्रताप सिंह राव गायकवाड. एक रोज़ राजा ने खेलों की प्रतियोगिया रखवाई. तय तारीख को आसपास की रियासतों से खिलाड़ी पधारे. धूम रही एक लड़के की. लंबी कद-काठी और मजबूत मांशपेशियों वाला पट्ठा जवान. नाम था भूपत सिंह चौहान. भूपत ने 6 खेलों में पहला नंबर हासिल किया और 7 में वो दूसरे नंबर पर रहा.

वागनिया नाम की एक छोटी सी रियासत थी. जहां के राजा का नाम अमरावाला था. भूपत उनके महल में घोड़ों की देखभाल करता था. साथ ही गोली चलाने में माहिर था. और गाड़ियां भी चला लेता था. ये सारे हुनर आगे उसकी कहानी में बड़ा जरूरी रोल अदा करने वाले थे. भूपत की जिंदगी का अगला पड़ाव आया 1947 में. भारत आजाद हुआ. रियासतों की उल्टी गिनती शुरू हुई. राजा के दुश्मनों ने उन्हें एक साजिश में फंसाने की कोशिश की. उनके और भूपत के नाम पुलिस में केस दर्ज़ कर दिया गया. अमरावाला तो कुछ दिनों में चल बसे लेकिन भूपत फंस गया. पुलिस से बचने के लिए वो फरार हो गया. और अपने एक भरोसेमंद साथी राणा भगवान डांगर को भी साथ ले गया. यहां से भूपत के एक खिलाड़ी से डाकू बनने की कहानी शुरू होती है.
भूपत से डाकू भूपत सिंह
वागनिया से फरार होने के बाद भूपत ने राणा के साथ मिलकर एक गैंग बनाया. दोनों लूटमार और फिरौती उगाहने का काम करने लगे. धीरे-धीरे उनके गैंग में इजाफा हुआ. तीन सालों के अंदर इस गैंग ने 87 हत्याएं और लगभग 9 लाख रूपये की लूट को अंजाम दिया. 9 लाख रूपये आज से 70 साल पहले के हिसाब से.
भूपत के गैंग की एक खास बात थी कि वो कभी महिलाओं पर हमला नहीं करते थे. यहां तक कि भूपत गरीब लड़कियों की शादी करवाता था. और कई बार गरीबों को पैसा बाँट भी दिया करता था. किस्सा मशहूर है कि एक बार उसने एक सुनार को लूटा और लूट से मिले सोने और चांदी के सिक्के बाजार में उछाल दिए. ऐसी कहानियों के चलते जल्द ही उसकी छवि रॉबिन हुड की हो गई. लोग बड़ी दरियादिली के साथ उसे अपने घरों में छिपने के लिए पनाह देते थे.
भूपत सिंह पर 'एक हतो भूपत' नाम से गुजराती में किताब लिख चुके जीतूभाई ढाढल बताते हैं-
"भूपत हालात के चलते बागी बना था. उसके चरित्र पर कभी दाग नहीं लगा. वो गरीबों के पक्ष में खड़ा होता. जब जूनागढ़ के विलय के समय सांप्रदायिक दंगे भड़के, भूपत ने बहुत से लोगों की जान बचाई. दोनों धर्मों की औरतों की आबरू की रक्षा की. इस काम ने भूपत को जनता के बीच काफी लोकप्रियता दिलाई."
भूपत के चर्चे अब पूरे सौराष्ट्र में फ़ैल रहे थे. उसके किस्से मशहूर होने लगे थे. मसलन एक किस्सा यूं था कि एक बार भूपत को फिल्म देखने का शौक चढ़ा. राजकोट के एक सिनेमा हॉल में ‘चंद्रलेखा’ फिल्म लगी हुई थी. राणा और उसने मिलकर तय किया कि दोनों लोग फिल्म देखने जाएंगे. दोनों ने बदन पर खद्दर चढ़ाया. गांधी टोपी लगाई और सड़क पर चले गए. यहां उन्हें एक ट्रकवाले ने लिफ्ट दी. कुछ समय बाद दोनों लोग राजकोट के सिनेमाहॉल में ‘चंद्रलेखा’ देख रहे थे. पुलिस चौकी से महज कुछ क़दमों की दूरी पर.
लोकतंत्र के खिलाफ साजिश
ऐसे किस्सों के चलते भूपत एक मिथकीय किरदार में तब्दील हो गया था. पुलिस भी उसका कुछ बिगाड़ने में नाकाम थी. हालांकि उसके दुस्साहस का एक कारण ये भी बताया जाता है कि उसे रजवाड़ों का आश्रय प्राप्त था. भूपत के जरिए वो एक बड़े षड्यंत्र को अंजाम देना चाहते थे. क्या था ये षड्यंत्र?

साल 1952 में अमेरिकी मैगज़ीन न्यू यॉर्कर में एक लेख छपा. पत्रकार और लेखक संथा रामा राव ने लिखा,
“आजाद भारत के पहले चुनावों से ठीक पहले भूपत का आतंक बहुत बढ़ गया था. उसके गैंग के साथी बॉम्बे प्रेसिडेंसी में लूटपाट और हत्याएं कर रहे थे”.
आगे संथा लिखती हैं,
“सरकार के अनुसार ये रजवाड़ों की साजिश थी. वो क़ानून व्यवस्था ख़राब कर ये दिखाना चाह रहे थे कि लोकतंत्र में क़ानून का हाल ऐसा ही होता है. और अगर कांग्रेस सत्ता में आ गई तो चीजें और भी ख़राब होंगी”.
सरकार के खिलाफ षड्यंत्र के आरोप में तब कई रजवाड़ों को गिरफ्तार कर जेल भी भेजा गया. हालांकि भूपत सिंह पुलिस की पकड़ में नहीं आया. अंत में सरकार ने इस काम के लिए एक खास शख्स को जिम्मेदारी सौंपी. यहां से डाकू की इस कहानी में एंट्री होती है एक पुलिसवाले की.
डाकू और पुलिस
इनका नाम था विष्णु गोपाल कानिटकर. कानिटकर को आईजी बनाकर सौराष्ट्र भेजा गया. कानिटकर ने इस काम के लिए एक स्पेशल टीम का गठन किया. इसमें पागी भर्ती किए गए. पागी यानी कच्छ के रेगिस्तानी इलाके के वे लोग जो रेत पर छपे पांव के निशान पढ़ने में माहिर थे. ऐसे दो पागी कानिटकर के लश्कर का हिस्सा थे. कानिटकर ने सबसे पहले भूपत के समर्थकों को गिरफ्तार करना शुरू किया. इससे भूपत के छिपने के कई ठिकाने बंद हो गए. लेकिन भूपत अभी भी उनकी पकड़ से दूर था.
पुलिस को सीधी चुनौती देते हुए वो लूट की वारदात करने से पहले एक चिट्ठी पुलिस के पास भेजता था. इसमें लूट की जगह और समय लिखा होता. भूपत अपनी चिट्ठी में कानिटकर के लिए 'डीकरा' शब्द का इस्तेमाल करता. इसका मतलब होता है 'बेटा'. हालांकि, उम्र के लिहाज से देखा जाए तो कानिटकर भूपत से 10 साल बड़े थे.

चिट्ठी भेजने के अलावा भूपत एक और काम करता था. अगर उसे पता चलता कि कोई उसकी मुखबिरी कर रहा है, वो उसके नाक-कान काट लेता था. साथ ही चेतावनी देता था कि अगर बदनामी के डर से उसने आत्महत्या की, तो उसके पूरे परिवार को खत्म कर दिया जाएगा.
सरहद पार
IG कानिटकर की तमाम कोशिशों के बावजूद भूपत उनके हाथ न आया. बार-बार वो हाथ से निकल जाता था. एक बार कानिटकर को राजकोट से एक लूट की खबर मिली. पहुंचे तो एक पर्ची उनके हाथ लगी. पर्ची से पता चला कि वारदात में एक भूतपूर्व राजकुमार की कार इस्तेमाल हुई थी. कानिटकर ने राजकुमार पर दबाव डाला तो पता चला कि भूपत का एक आदमी उनके यहां छिपा है.
पुलिस ने दबिश दी. भूपत का साथी गोलीबारी में मारा गया. कुछ रोज़ बाद पुलिस ने राणा को भी एनकाउंटर में मार गिराया. राणा की मौत से भूपत को समझ आ गया कि वो अब ज्यादा दिन तक पुलिस की पहुंच से दूर नहीं रह पाएगा. बचने का सिर्फ एक तरीका था. सरहद लांघना.
6 जून, 1952 की रात. भूपत अपने तीन साथियों सहित पाकिस्तान की सरहद में दाखिल हुआ. किस्मत ऐसी थी कि यहां वो पुलिस के हत्थे चढ़ गया. हालांकि यहां उसकी जान को खतरा नहीं था. उसे जेल हुई और 1 साल बाद रिहाई भी मिल गई.
डाकू बन गया दूधवाला
भूपत ने सोचा था कुछ साल बाद भारत लौट आएगा. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. भारत की पुलिस उसकी जान की दुश्मन बनी हुई थी. इसलिए उसने पाकिस्तान में ही रहना बेहतर समझा. बल्कि इस्लाम धर्म अपनाया और शादी भी कर ली. भारत का कुख्यात डकैत अब कराची के बाजार में दूध बेचने लगा था.

इधर भारत किसी भी तरह भूपत को वापस चाहता था. इस मामले में जुलाई 1956 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के PM मोहम्मद अली बोगरा के बीच बातचीत भी हुई. बोगरा पहले तो भूपत को भारत को सौंपने के लिए तैयार हो गए. लेकिन फिर अपनी बात से पलट गए. भूपत खुद किसी हाल में भारत आने से बचना चाहता था. पाकिस्तान में समर्थन जुटाने के लिए उसने दलीलें देना शुरू किया. ब्लिट्ज़ अखबार में छपी रिपोर्ट के अनुसार वो खुद को पाकिस्तान समर्थक बताने लगा था. रिपोर्ट में उसका बयान कुछ यूं छपा था.
“मेरी रियासत का पाकिस्तान में विलय हुआ. लेकिन भारत की सेना ने हमपर हमला कर दिया. हमने जवाब देने की कोशिश की. लेकिन हम जीत नहीं पाए. अंत में मुझे पाकिस्तान में शरण लेनी पड़ी. पाकिस्तान ने मेरी जान बचाई और उसके लिए मैं अपने खून की आख़िरी बूंद तक दे सकता हूं.”
यहां जिस रियासत की बात हो रही है, वो जूनागढ़ था. भूपत सिर्फ यहीं तक सीमित न रहा. उसने एक रैली कर अपने समर्थन में 1500 रुपये जुटाए और घोषणा कर दी कि एक फिल्म बनाएगा. जिसमें जूनागढ़ की आजादी के संघर्ष की कहानी दिखाई जाएगी. यहां आजादी की बात पाकिस्तान के एंगल से हो रही थी. यानी जूनागढ़ की भारत से आजादी. भूपत को इन कलाबाजियों का फायदा मिला. उसे पाकिस्तान में रहने की इजाजत मिल गई. और साल 2006 में उसकी मृत्यु के बाद वहीं उसे एक कब्र में दफनाया गया. भूपत भारत का वो पहला दुर्दांत अपराधी था, जिसे पाकिस्तान ने अपने यहां शरण दी. आगे यही परंपरा दाऊद के वक्त में दोहराई गई.
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