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आर्यभट्ट: भारत की पहली सैटेलाइट बनने की कहानी

१९ अप्रैल १९७५ को भारत ने अपना पहला उपग्रह स्पेस में लांच किया. इस उपग्रह मिशन की शुरुआत 1968 में हुई जब विक्रम साराभाई ने U.R. राव से इस मिशन को लीड करने को कहा. राव अपनी टीम को लेकर मिशन की तैयारी में लगे. पहले अमेरिका इस उपग्रह को लांच करने में मदद करने वाला था. लेकिन फिर बाद में USSR से साथ एग्रीमेंट किया गया जो चीन के स्पेस मिशन को देखते हुए भारत की मदद करने को तैयार हुए. 1975 में इस उपग्रह को आर्यभट्ट का नाम दिया गया, इस नाम को चुना था प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने.

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आर्यभट्ट, भारत का पहला उपग्रह जिसका सपना विक्रम साराभाई ने देखा लेकिन उसके पूरा होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई (तस्वीर: Wikimedia)

साल 1971. जून महीने की बात है. मॉस्को में भारतीय राजदूत DP धर, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को एक खत भेजते हैं. इंदिरा तुरंत एक मीटिंग बुलाती हैं. इस मीटिंग में भारत की तरफ से विक्रम साराभाई और उनके शिष्य UR राव शामिल होते हैं. मॉस्को की तरफ से राजदूत निकोलाई पेगोव मीटिंग का हिस्सा बनते हैं. पहले बारी विक्रम साराभाई की थी. साराभाई एक शुरुआती ब्रीफिंग देकर कहते हैं, आगे का प्लान राव बताएंगे. राव एक सैटेलाइट का प्लान आगे रखते हैं. इसे भारत में बनाया जाना था. लेकिन जरुरत थी एक लांच व्हीकल की. 30 मिनट का प्रेजेंटेशन सुनने के बाद निकोलाई राव से एक सवाल पूछते हैं,

चीन ने जो सैटेलाइट लांच की है, उसका वजन कितना है?

सवाल अजीब था. राव को समझ नहीं आता कि निकोलाई चीन की सैटेलाइट की बात क्यों कर रहे हैं. फिर भी वो जवाब देते हैं, 190 किलो. इसके बाद निकोलाई एक ऐसी शर्त रखते हैं, जिसे सुनकर राव और साराभाई, दोनों चौंक जाते हैं.

आज 19 अप्रैल है और आज की तारीख का संबंध है भारत के पहले उपग्रह आर्यभट्ट से.

भारत के स्पेस मिशन की शुरुआत

यूरोप में जब एनलाइटनमेंट युग की शुरुआत हुई. भारत गुलामी के अंधेरे में था. 20 वीं सदी की शुरुआत में में जब पूरा यूरोप औद्योगीकरण के दौर से गुजर रहा था, भारत क्रांति की बाट जोह रहा था. उस दौर में भारत में CV रमन, मेघनाद साहा, रामानुजन, सुब्रमण्यम चंद्रशेखर जैसे वैज्ञानिक पैदा हुए. लेकिन इन सभी को काम करने के लिए विदेश जाना पड़ा.

UR राव आर्यभट्ट के मॉडल के साथ (फ़ाइल फोटो)

आजादी मिलते ही प्रधानमंत्री नेहरू ने विज्ञान और औद्योगीकरण के प्रचार प्रसार पर विशेष ध्यान दिया. तब टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में दो फ्रंटियर माने जाते थे. पहला परमाणु ऊर्जा और दूसरा, स्पेस प्रोग्राम. 1948 में इंडियन अटॉमिक एनर्जी कमिशन की शरुआत हुई. और भारत ने परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में काम करना शुरू कर दिया. लेकिन स्पेस रिसर्च से भारत दूर था. 60 के दशक में जब अमेरिका और सोवियत संघ में स्पेस प्रोग्राम की रेस शुरू हुई, भारत रॉकेट लांच की टेस्टिंग कर रहा था और सिर्फ 55 किलोमीटर की ऊंचाई तक रॉकेट भेजने में सफल हो पाया था.  फिर 1962 में The Indian National Committee for Space Research (INCOSPAR) की स्थापना हुई. 1968 में INCOSPAR बना ISRO. और इसी के साथ शुरू हुआ भारत का स्पेस अभियान. जिसका उद्देश्य था भारत का अपना उपग्रह लांच करना.

शुरुआत आसान नहीं थी. सैटेलाइट बने कैसे? ये तो सवाल था ही. साथ में सवाल ये भी था कि उपग्रह लांच कैसे होगा. क्योंकि भारत के पास अपना लांच व्हीकल नहीं था. डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा कहा करते थे जब अमेरिका ने परमाणु प्रोग्राम की शुरुआत की तो सिर्फ चंद टिन शेड थे. बड़ी बिल्डिंग और बाकी सुविधाएं बाद में मिली. अगर सारी सुविधाओं का इंतज़ार करोगे तो काम कभी शुरू ही नहीं हो पाएगा.

विक्रम साराभाई का विजन

आर्यभट्ट की कहानी शुरू हुई 1968 में. विक्रम साराभाई अपने एक स्टूडेंट UR राव से मुलाक़ात करते हैं. और उनसे कहते हैं कि वो भारत में सैटेलाइट टेक्नोलॉजी के विकास के लिए एक प्लान बनाएं. 60 के दशक में साराभाई सोवियत संघ और नासा का दौरा करके आए थे. सोवियत संघ में स्पेस प्रोग्राम को परदे के पीछे रखा जाता था. लेकिन अमेरिका से उन्हें भरोसा मिला कि सैटेलाइट लांच में मदद मिलेगी.

आर्यभट्ट उपग्रह (तस्वीर: ISRO)

कुछ दिन बाद राव प्लान लेकर साराभाई के सामने पेश होते हैं. रिपोर्ट देखकर साराभाई कमेंट करते हैं, सब सही है, सिवाए एक चीज के. तुमने ये तो लिखा ही नहीं कि इस प्रोग्राम को लीड कौन करेगा. राव जवाब देते हैं कि ये तो आपको डिसाइड करना है. साराभाई राव को इस काम के लिए चुनते हैं. लेकिन राव मना कर देते हैं. राव उस वक्त अमेरिका में बतौर लेक्चरर पढ़ा रहे थे. उन्हें लगा ये बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. लेकिन साराभाई ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. और अंतत राव को साराभाई की बात माननी पड़ी.

1969 में प्रोग्राम की लीडरशिप लेने के बाद राव ने 20 इंजीनीयर्स की एक टीम इकठ्ठा की. उनका पहला काम था सैटेलाइट का डिजाइन तैयार करना. राव की टीम ने निर्णय लिया कि एक 100 किलोग्राम की सैटेलाइट बनाएंगे. और उसे अमेरिकी रॉकेट स्काउट की मदद से लांच किया जाएगा. नासा तब स्काउट रॉकेट को भाड़े में देने के लिए राजी हो गया था. राव और उनकी टीम सैटेलाइट बनाने की तैयारी में लग गई. इस बीच प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पास मास्को में भारतीय राजदूत, DP धर से एक मैसेज पहुंचा. सोवियत संघ सैटेलाइट लांच में भारत की मदद करना चाहता था. विक्रम साराभाई को जब ये पता चला तो एकदम से राजी हो गए. इसके एक महीने बाद भारतीय वैज्ञानिकों और सोवियत संघ के राजदूत निकोलाई के बीच मीटिंग हुई.

USSR की शर्त

प्लान सुनाने के बाद निकोलाई सैटेलाइट लांच के लिए सोवियत व्हीकल के इस्तेमाल के लिए राजी हो गए. उन्होंने ये तक कहा कि सैटेलाइट बनाने में सोवियत वैज्ञानिक भारत की मदद करेंगे. लेकिन एक शर्त पर. राव ने पूछा कौन सी शर्त. तो निकोलाई ने जवाब दिया, भारत की सैटेलाइट चीन से भार में ज्यादा होनी चाहिए, बस!.

आर्यभट्ट मिशन के अलग-अलग चरण (तस्वीर: ISRO)

निकोलाई ने ये अजीब सी शर्त क्यों रखी. ये समझने के लिए तब के सोवियत-चीन रिश्तों को समझना होगा. दूसरे विश्व युद्ध के बाद माओ ने चीन पर कब्ज़ा कर कम्यूनिस्ट शासन की नींव रखी. सोवियत संघ इस मामले में पुरान खिलाड़ी था. और माओ और स्टालिन के काम करने का तरीका भी काफी सिमिलर था. लेकिन स्टालिन की म्रुत्यु के बाद USSR का रास्ता थोड़ा बदल गया. कोल्ड वॉर अब भी जारी थी. लेकिन सोवियत संघ स्टालिन के पर्सनॅलिटी कल्ट वाले रूल से अलग राह पर चल पड़ा था. वेस्ट के साथ एक पीसफुल को-एक्सिस्टेंस की बात होने लगी थी. माओ को ये हरगिज मंजूर नहीं था. उनके हिसाब से ये कम्यूनिस्ट विचारधारा के साथ धोखा था. और इसी के चलते 1960 में सोवियत संघ और चीन के रिश्तों में दरार पड़ गई. जिसे साइनो-सोवियत स्प्लिट के नाम से जाना जाता है.

1962 युद्ध के बाद भारत और चीन के रिश्ते भी दुश्मनी के हो गए थे. इसलिए सोवियत संघ को लगा एशिया में शक्ति का संतुलन बनाए रखने के लिए भारत एक स्वाभाविक साथी है. 24 अप्रैल 1970 को चीन ने अपना पहला उपग्रह लांच किया. और इसके साथ ही वो उपग्रह लांच करने वाला पांचवा देश बन गया. इससे पहले सोवियत संघ, अमेरिका, जापान और फ़्रांस अपने उपग्रह लांच कर चुके थे. चीन के लिए शान की बात ये थी कि सभी देशों में उनका उपग्रह सबसे भारी था, 173 किलो. ये सोवियत उपग्रह, स्पूतनिक से वजन में दोगुना था. इसलिए सोवियत संघ ने जब मदद के पेशकश की तो साथ में ये शर्त भी रख दी कि भारत की सैटेलाइट का वजन चीन से ज़्यादा होना चाहिए.

आत्मनिर्भर भारत

विक्रम साराभाई और राव के लिए ये एक नया सरदर्द था. अब तक वो मानकर चल रहे थे कि 100 किलो का उपग्रह बनाएंगे. और उसकी भी शुरुआत बिलकुल स्क्रैच से होनी थी. सोवियत संघ के हामी भरते ही राव और उनकी टीम काम में लग गए. उन्होंने 350 किलो के उपग्रह का एक डिज़ाइन बनाया, जो चीन के उपग्रह से भार में दोगुना था. इस उपग्रह के साथ में तीन पेलोड और जोड़े जाने थे. पेलोड यानी वो उपकरण को स्पेस में इक्स्पेरिमेंट करने के काम आते हैं.

आर्यभट्ट मिशन के अलग-अलग चरण (तस्वीर: ISRO)

एक बार सैटेलाइट का डिज़ाइन तैयार हुआ तो राव तीन वैज्ञानिकों की टीम लेकर अकैडमी ऑफ़ साइंस, मॉस्को में एक मीटिंग के लिए पहुंचे. यहां कहानी में पहला ट्विस्ट आया. राव अपनी किताब में लिखते हैं, सोवियत वैज्ञानिक को इस बात का पूरा भरोसा नहीं था कि भारत पहली बार में इतना महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पूरा कर लेगा. इसलिए उन्होंने एक प्रस्ताव रखा कि पहले भारत पेलोड बनाने पर काम करे. और उसे सोवियत सैटेलाइट के साथ लांच करे. जब इस काम में दक्षता हासिल हो जाए, तभी सैटेलाइट के बारे में सोचे.

लेकिन राव और साराभाई, दोनों इसके लिए तैयार नहीं थे. वो चाहते थे भारत जल्द से जल्द सैटेलाइट टेक्नॉलजी में दक्ष होकर आत्मनिर्भर हो जाए. तीन दिन तक चली बहस के बाद अंततः सोवियत वैज्ञानिक इस बात के लिए राजी हो गए. अगस्त 1971 में दोनों देशों के बीच बातचीत पूरी हुई लेकिन आखिरी सहमति से पहले सोवियत वैज्ञानिक भारत का दौरा करने चाहते थे. ताकि ये देख सकें कि भारत में फैसिलिटीज़ और इंफ्रास्ट्रक्चर कैसा है?

भारत के उपग्रह मिशन को झटका लगा

ये हो पाता इससे पहले ही मिशन को एक और झटका लगा. जिसके बाद लगने लगा था कि भारत का स्पेस मिशन खटाई में पड़ सकता है. दिसम्बर 1971 में विक्रम साराभाई की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गई. तब उनके साथी रहे वैज्ञानिक S. नाम्बी नारायण अपनी बायोग्राफ़ी में इस घटना का जिक्र करते हैं.

उनके अनुसार साराभाई पूरी तरह स्वस्थ्य थे. और सिर्फ 52 साल की उम्र में हार्ट अटैक से मृत्यु किसी के गले से उतर नहीं रही थी. साराभाई एटॉमिक एनर्जी कमीशन के चेयरमैन थे. और कुछ साल पहले डॉक्टर भाभा की मृत्यु भी रहस्यमई परिस्थितियों में हुई थी. डॉक्टर साराभाई का परिवार पोस्टमॉर्टम को राजी नहीं हुआ. इसलिए कयास, कयास बनकर ही रह गए. साराभाई की मृत्यु के बाद MGK मेनन को इसरो का अंतरिम चीफ़ बनया गया. और अंततः 1972 में सतीश धवन ने इसरो की जिम्मेदारी संभाली.

मिशन की सारी थियोरिटिकल तैयारी के बाद सवाल उठा बजट का. सोवियत संघ मुफ्त में लांच करने को तैयार था. लेकिन फिर भी सैटेलाइट बनाने का जिम्मा भारत का था. और इस मिशन का बजट 3 करोड़ रूपये आ रहा था. भारत तब एक गरीब देश था, लेकिन इंदिरा एटॉमिक और स्पेस मिशन में बिलकुल कोताही नहीं बरतना चाहती थीं. इसलिए उन्होंने तत्काल सदन से 3 करोड़ का बजट स्वीकृत करवाया.

इसके बाद रूस और भारत के बीच एक एग्रीमेंट साइन हुआ और 2 साल बाद यानी 1974 में लांच की डेट रखी गई. रॉकेट लांच टेस्टिंग आदि का काम तब तक केरल में थुंबा से हुआ करता था. लेकिन धवन ने इसरो की जिम्मेदारी संभाली तो उन्होंने साथ में शर्त रखी कि सैटेलाइट बनाने का काम बंगलुरु से किया जाएगा.

लोकल एल्युमीनियम लगा दो

इस बात की खबर फ़ैली तो केरल में हंगामा मच गया. वहां नेताओं को लग रहा था कि सारी नौकरियां बंगलुरु चली जाएंगी. इसलिए उन्होंने इस प्रस्ताव का भरपूर विरोध किया. अंत में जब सदन ने आश्वासन दिया कि एक बार सैटेलाइट का काम पूरा होने के बाद टीम थुम्बा लौट जाएगी. तब जाकर केरल की सरकार इसके लिए राजी हुई. 

विक्रम साराभाई के साथ इंदिरा गांधी और उडुपी रामचंद्र राव (तस्वीर: ISRO)

केरल में विरोध इतना तगड़ा था कि बहुत सारे उपकरण भी बंगलुरु नहीं ले जाने दिए गए. अंत में सतीश धवन की मदद से विदेश से उपकरण खरीद कर लाए गए. धवन बंगलुरु में काम शुरू करना चाहते थे, क्योंकि वहां इंडस्ट्री थी. वहां वेल्डिंग आदि के लिए टेक्नीशियन और सामान मिलना आसान था. पीनया इंडस्ट्रियल एरिया में चार शेड्स को साइट के तौर पर चुना गया. एक शेड का क्षेत्रफल 5 हजार स्क्वायर फ़ीट था.

बंगलुरु में भारी बारिश के बीच काम करना पड़ता था. कोई परमानेंट फैसिलिटी नहीं थी. डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा कहा करते थे, बिल्डिंग के इंतज़ार में जितना टाइम लगाओगे, टेक्नोलॉजी तैयार करने में उतना वक्त बर्बाद होगा. टीम इसी मन्त्र पे काम कर रही थी. जैसे-तैसे जुगाड़ से सारी व्यवस्था की गई थी. टीम में कोई पिलानी से था तो कोई IIT से. इनमें से किसी ने भी सैटेलाइट बनाना तो छोड़ो, कभी किसी सैटेलाइट को देखा तक नहीं था.

एक घटना का जिक्र आता है जब सैटेलाइट बनाने के लिए कोई लोकल दुकान से एल्युमीनियम खरीद के ले आया. अब ये तो पता ही नहीं था कि स्पेस में एल्युमीनियम ठहर पाएगा या नहीं. तब टीम के लोग दौड़े-दौड़े IISC की लाइब्रेरी पहुंचे. और एक किताब में देखा कि वैक्यूम में एल्युमीनियम डीग्रेड होता है लेकिन सिर्फ कुछ माइक्रोन तक. यानी लोकल एल्युमीनियम से काम चल जाने वाला था.

KGB का डर

ऐसे ही अन्य कई और डाउट थे, स्पेस में भार का कितना असर पड़ेगा, किस चीज पर अंतरिक्ष के वातावरण का कितना असर पड़ेगा, ये सवाल सबके दिमाग में थे. सोवियत वैज्ञानिक हर 6 महीने में सिर्फ एक रिव्यु मीटिंग करते थे. मतलब वहां से भी कोई ख़ास मदद नहीं मिल पा रही थी. सब कुछ खुद ही करना था. एग्रीमेंट के हिसाब से भारत को सिर्फ कुछ बेसिक टेक्नोलॉजी और फ्री लांच की सुविधाएं मिलनी थीं. लेकिन एक और कारण था कि भारत की टीम सोवियत वैज्ञानिकों से थोड़ा दूरी बनाकर रहती थी. ये कारण था KGB.

श्रीहरिकोटा के आसमान में आर्यभट्ट की टेस्ट फ्लाइट (तस्वीर: ISRO)

कोल्ड वॉर का दौर था और हर किसी को लगता था कि कोई ऐसी-वैसी जानकारी साझा हो गई तो KGB के कान में बात पहुंचेगी ही. और फिर उस शख्स की खैर नहीं. ऊपर एक तस्वीर देखिए. ऐसा लग रहा है हेलीकाप्टर एक छोटी से टंकी ले जा रहा है. आंध्र प्रदेश में श्री हरिकोटा के आसमान में ये भारत के पहले उपग्रह की टेस्ट फ्लाइट थी.ये देखने के लिए कि कम्यूनिकेशन और बाकी उपकरण ठीक से काम कर रहे हैं कि नहीं.

1974 में उपग्रह लांच की तारीख को आगे बढ़ाकर अप्रैल 1975 तक मुल्तवी कर दिया गया. मार्च 1975 में सैटेलाइट बनकर तैयार हो चुकी थी. तब टीम को अहसास हुआ कि उसका नाम तो रखा ही नहीं. चूंकि आख़िरी सहमति प्रधानमंत्री इंदिरा को देनी थी, इसलिए ऑप्शन के लिए तीन नाम सुझाए गए. मैत्री (भारत और सोवियत संघ की दोस्ती), आर्यभट्ट (भारतीय इतिहास के महान गणितज्ञ) और जवाहर, भारत के पहले प्रधानमंत्री के नाम पर, जिन्होंने INCOSPAR को शुरू किया था. सबको लगा था इंदिरा जवाहर नाम चुनेंगी, स्वाभाविक कारणों से. लेकिन उन्होंने आर्यभट्ट नाम चुना.

पयाकलि

लांच की तारीख रखी गई आज ही के दिन यानी 19 अप्रैल 1975. वोल्गोग्रैड रशिया के नजदीक कपुस्तिन यार कॉस्मोड्रोम से आर्यभट्ट उपग्रह को लांच किया जाना था. UR राव और सतीश धवन सहित भारत के तीस वैज्ञानिक लांच के लिए रशिया पहुंचे थे. बंगलुरु के ग्राउंड स्टेशन पर भी इसरो के वैज्ञानिकों का जमावड़ा लगा था. दोपहर 12 बजे काउंटडाउन 10 से शुरू होकर 1 तक पहुंचा. और फिर आवाज आई “पयाकलि”.

आर्यभट्ट उपग्रह लांच के मौके पर जारी किया गया सोवियत डाक टिकट (तस्वीर: ISRO)

USSR में हर लांच से पहले इस फ्रेज़ का इस्तेमाल किया जाता था. इसका अर्थ होता है, ‘लेट अस गो’. अंतरिक्ष तक यात्रा करने वाले पहले शख्स यूरी गागरिन ने अपने स्पेश मिशन की शुरुआत में इसी फ्रेज़ का इस्तेमाल किया था. और तब से ये एक चलन बन चुका था.

लांच के 12 मिनट बाद रॉकेट अपनी यात्रा की लास्ट स्टेज शुरू करता है. और कुछ देर में धरती से 600 किलोमीटर ऊपर कक्षा में आर्यभट्ट को स्थापित कर देता है. जैसे ही आर्यभट्ट से पहला सिग्नल मिलता है, राव की आंखों में आंसू आ जाते हैं. वो अपनी टीम के सभी लोगों को गले मिलकर बधाई देते हैं. भारत स्पेस में पहला कदम रख चुका था. हालांकि आर्यभट्ट केवल चार दिन तक सिग्नल भेज पाया. और उसके बाद उसने काम करना बंद कर दिया. लेकिन ये फेलियर नहीं था. एक लम्बी सक्सेस की शुरुआत थी. जिसे अंजाम दिया था उन हजारों वैज्ञानिकों ने, जिनका नाम शायद हम न जानते हों. लेकिन उनकी मेहनत का फायदा जरूर उठा रहे हैं. 


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