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वो कांग्रेसी हस्ती जो न होते तो इंदिरा पीएम न बनतीं, अब मोदी ने उन्हें अपने बराबर में जगह दी है

के. कामराज को कांग्रेस में नई जान डालने के लिए याद किया जाता रहा है.

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कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे के. कामराज (बाएं) और पीएम नरेंद्र मोदी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुरुवार 25 फरवरी को कोयंबटूर में थे. चुनावी रैली की. इस दौरान DMK और कांग्रेस पर खूब बरसे. लेकिन गौर करने वाली बात कुछ और थी. मोदी के साथ वो हस्ती भी खड़ी थी, जिसे कांग्रेस अपना आइकॉन मानती रही है. वो कुमारास्वामी कामराज, जो न होते तो इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्री बनना असंभव था. 60 के दशक में कामराज ने ही कांग्रेस को वो प्लान दिया था, जिस पर अमल करके पार्टी में नई जान आई थी. चौंकिए नहीं, कामराज सचमुच में मोदी के साथ नहीं खड़े थे. उनका लंबा चौड़ा कटआउट सभास्थल पर लगा था, मोदी के साथ. आइए कामराज के कुछ किस्सों से आपको रूबरू कराते हैं. घाघ नेताओं को नाथा कमांडर कामराज ने आजादी के बाद 1964 तक नेहरू ने बेधड़क देश पर शासन किया. मगर 60 के दशक की शुरुआत में भारतीय राजनीति पर एक बड़ा सवाल साये की तरह मंडराने लगा था. नेहरू के बाद कौन. विदेशियों को लगता था कि नेहरू की मौत के बाद भारत भी पाकिस्तान जैसा हो जाएगा. मिलिट्री कब्जा कर लेगी. वो ये मानने को तैयार ही नहीं थे कि इतना नया लोकतंत्र मैच्योर ढंग से शासन की बागडोर बदल किसी और को दे सकता है.
kamraj and nehru
के. कामराज और नेहरू.

उधर कांग्रेस पार्टी में अपने ढंग की सिर फुटव्वल चल रही थी. सत्ता के कई दावेदार थे. मुंबई प्रोविंस (महाराष्ट्र-गुजरात का सम्मिलित स्वरूप) के सीएम रहे मोरार जी देसाई थे. यूपी के किसान नेता और नेहरू भक्त लाल बहादुर शास्त्री की भी दावेदारी थी. मगर खुद नेहरू किस पर नजर टिका रहे थे. जवाब है. उनकी अपनी बेटी. इंदिरा गांधी. जो 1959 में कुछ समय के लिए कांग्रेस की अध्यक्ष भी रही थीं. हालांकि तब भी कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं ने दबे-छिपे ढंग से पंडित जी की बेटी को संगठन की कमान सौंपने की निंदा की थी. मगर नेहरू के सामने कोई खुलकर नहीं आया. नेहरू जानते थे. उनके बाद इंदिरा के लिए स्थिति आसान नहीं रहेगी. और तब उन्होंने उत्तर भारत के तमाम घाघ नेताओं को नाथने के लिए भरोसा किया साउथ के एक कमांडर पर. के कामराज.
कामराज 1954 से तमिलनाडु के मुख्यमंत्री थे. दशकों खपाए थे संगठन में. एक-एक गांव तक पहुंच थी. और नेहरू के पहले बड़े राजनीतिक विरोधी, भारत के पहले भारतीय गवर्नर जनरल रहे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को कामराज ने ही अपने राज्य से नेस्तेनाबूद कर दिया था. उनके नेतृत्व में 1962 में तमिलनाडु में कांग्रेस सत्ता में लौटी. डीएमके की तगड़ी चुनौती के बावजूद. और इसके बाद नेहरू ने उन्हें अपना सीक्रेट काम सौंपा. इसकी शुरुआत हुई अगस्त के पहले हफ्ते में. साल था 1963 का. मुख्यमंत्री का पद छोड़ दिया कामराज ने हैदराबाद में कांग्रेस की एक मीटिंग में नेहरू से मुलाकात की. बोले - पंडित जी, मैं सीएम का पद छोड़कर राज्य में पार्टी का अध्यक्ष बनना चाहता हूं. नेहरू को ये बात अटपटी लगी. कैफियत पूछी तो कामराज बोले. कांग्रेस के सब बुजुर्ग नेताओं में सत्ता लोभ घर कर रहा है. उन्हें वापस संगठन में लौटना चाहिए. लोगों से जुड़ना चाहिए. नेहरू को इस बात में अपार संभावनाएं लगीं. उन्होंने कामराज से कहा, इस प्लान को विस्तार से लिखो. नेशनल लेवल का बनाओ. 6 कैबिनेट मंत्रियों, 6 मुख्यमंत्रियों का इस्तीफा कामराज ने प्लान पेश किया. अगस्त के ही आखिरी सप्ताह में कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने इसे पास कर दिया. नतीजतन, छह कैबिनेट मंत्रियों और छह मुख्यमंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा. कैबिनेट मंत्रियों में मोरार जी देसाई, लाल बहादुर शास्त्री, बाबू जगजीवन राम जैसे लोग शामिल थे. मुख्यमंत्रियों में थे यूपी के चंद्रभानु गुप्त. एमपी के मंडलोई. उड़ीसा के बीजू पटनायक. इस फेरबदल से इंदिरा गांधी के तमाम संभावित राजनीतिक विरोधियों की जमीन कमजोर पड़ गई. नेहरू ने इसके कुछ ही महीनों के बाद कामराज को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवा दिया. अब उनका प्लान फुल एक्शन में था. नेहरू के बाद इंदिरा, मगर अभी नहीं उन दिनों कामराज ने नेहरू से पूछा. आप उत्तराधिकार के बारे में क्या सोचते हैं. आपके बाद कौन. नेहरू ने कहा, इंदिरा, मगर कुछ साल बाद. मई 1964 में नेहरू का देहांत हो गया. कांग्रेस में दो दावेदारों के बीच संघर्ष शुरू हुआ. मोरार जी देसाई और लाल बहादुर शास्त्री. शास्त्री को नेहरू खेमे का माना जाता था. कामराज के नेतृत्व में बुजुर्ग कांग्रेसियों के जुट्ट सिंडीकेट ने भी उनका समर्थन किया. सर्वसम्मति की बात कर कामराज ने मोरार जी के तेवर ठंडे कर दिए. शास्त्री पीएम बन गए. और उनकी कैबिनेट में जगह मिली इंदिरा गांधी को. बतौर आईबी मिनिस्टर.
Kamaraj with Shastri Youtube video grab
कामराज और लाल बहादुर शास्त्री.
आखिरी सफल दांव, इंदिरा को बनवाया PM और फिर शास्त्री की जनवरी 1966 में मौत हो गई. इस बार मोरार जी देसाई सर्वसम्मति की बात नहीं माने. वोटिंग पर अड़ गए. कामराज ने इंदिरा गांधी के लिए लामबंदी की. और वह कांग्रेस संसदीय दल में 355 सांसदों का समर्थन पाकर पीएम बन गईं. ये कामराज का आखिरी सफल दांव था.

दांव उलटा पड़ गया 1967 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस कई राज्यों में बुरी तरह हारी. लोकसभा में भी उसे महज 285 सीटें मिलीं. खुद कामराज तमिलनाडु में अपनी गृह विधानसभा विरुधुनगर से चुनाव हार गए. इसके कुछ ही महीने बाद इंदिरा ने ये कहा कि हारे हुए नेताओं को पद छोड़ना चाहिए. कांग्रेस अध्यक्ष के पद से कामराज की रुखसती हो गई. उनकी जगह आए कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे निजलिंगप्पा. मगर अंदरखाने संगठन के फैसले अभी भी कामराज ही ले रहे थे. उन्होंने तय किया कि इंदिरा को काउंटर करने के लिए उनकी कैबिनेट में मोरार जी देसाई को जरूर होना चाहिए. इंदिरा को मन मारकर उस वक्त ये फैसला मानना पड़ा. इसलिए मार्च 1967 में जब उन्होंने पीएम की शपथ ली तो डिप्टी पीएम के रूप में मोरार जी भी बगलगीर थे. उन्हें वित्त मंत्री का पोर्टफोलियो मिला था. इंदिरा को आर्थिक मसलों की ज्यादा समझ नहीं थी. और इस बात पर मोरार जी उन्हें लगातार नीचा दिखाते थे. इंदिरा अपनी बारी का इंतजार कर रही थीं. उधर कामराज इंदिरा का विकल्प सोचने लगे थे.

इंदिरा गांधी को पीएम की कुर्सी तक पहुंचाने का श्रेय कामराज को दिया जाता है.

कुछ महीने तो नेहरू की बिटिया अपने इस राजनीतिक गार्जियन के कहे में चलीं. मगर फिर उन्हें समझ आने लगा. कि लड़ाई आर-पार की करनी होगी. इसमें उनके मददगार साबित हुए नेहरू के कुछ गैरराजनीतिक वफादार. एक किचेन कैबिनेट डिवेलप हो गई. जिसमें दिनेश सिंह, इंद्र कुमार गुजराल जैसे लोग थे. इसके अलावा नौकरशाह पीएन हकसर की पीएमओ में आमद हो चुकी थी. उनकी सलाह पर इंदिरा ने समाजवादी फैसले लेने शुरू किए. बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. पार्टी संगठन के नेता मसलन कामराज, अतुल्य घोष, निजलिंगप्पा अपनी अनदेखी से नाखुश थे. जब तब वह इंदिरा को किनारे करने की कोशिश करते रहते थे. और जल्द एक मोर्चे पर दोनों गुट खुलकर आमने-सामने आ गए. ये मौका था जाकिर हुसैन की मौत के चलते होने वाले राष्ट्रपति चुनाव का. इंदिरा का दांव संगठन ने आंध्र प्रदेश के नेता नीलम संजीव रेड्डी को प्रत्याशी घोषित किया. इंदिरा ने उपराष्ट्रपति वीवी गिरी को पर्चा दाखिल करने को बोला. और फिर चुनाव के एक दिन पहले कांग्रेसजनों से अंतरआत्मा की आवाज पर वोट डालने की अपील कर डाली. कांग्रेस कैंडिडेट रेड्डी चुनाव हार गए. वीवी गिरी राष्ट्रपति बन गए. संगठन के बुजुर्ग नेताओं को काटो तो खून नहीं. उन्होंने नवंबर 1969 में एक मीटिंग बुलाई. और इंदिरा गांधी को पार्टी से निकाल दिया और कांग्रेस संसदीय दल को नया नेता चुन लेने का हुक्म दिया.
मगर इंदिरा इसके लिए तैयार थीं. संसदीय दल की मीटिंग में उन्हें 285 में 229 सांसदों का समर्थन मिला. बचे वोट उन्होंने तमिलनाडु में कामराज की धुर विरोधी डीएमके पार्टी से जुटा लिए. लेफ्ट पार्टियां भी उनके साथ आ गईं.
जिस कांग्रेस को नेहरू के बाद के दौर में कामराज और मजबूत करना चाहते थे, वह उनके सामने कमजोर हो गई. दो कांग्रेस बन गईं. असल कांग्रेस हो गई कांग्रेस ओ (ऑर्गनाइजेशन) और दूसरी कांग्रेस (रूलिंग) जो इंदिरा संभाल रही थीं. विरोधी के मरने के बाद भारत रत्न इसके बाद कामराज तमिलनाडु में ही कमजोर पड़ते गए. 1971 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ वही जीत सके. बाकी पार्टी के सब कैंडिडेट जमींदोज हो गए. अब तक कामराज की सेहत खराब रहने लगी थी. दिल्ली में उनकी सक्रियता कम होती गई. वह तमिलनाडु की राजनीति पर फोकस करने लगे. यहां पर उनके और इंदिरा के बीच कुछ रणनीतिक समझौते हुए. लगा कि दोनों साथ आ जाएंगे. मगर ज्यादा कुछ नतीजा नहीं निकला. और 2 अक्टूबर 1975 को कामराज की हार्ट अटैक के चलते मौत हो गई. अगले साल इंदिरा सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया.
कामराज को राजनीतिक हलकों में कामराज प्लान के लिए जाना जाता है. इस प्लान का जिक्र यूपीए 2 के दौरान हुआ था. कहा गया कि तमाम कांग्रेसी मंत्री इस्तीफा देकर संगठन का काम देखेंगे. ये योजना राहुल गांधी की थी. कामराज को स्कूलों में फ्री एजुकेशन, यूनिफॉर्म और मिड डे मील के लिए भी याद किया जाता है. PM बनने के दावे पर कामराज का जवाब कामराज एक ऐसे नेता थे, जो पॉलिटिकल मैनेजमेंट खूब समझते थे. महात्वाकांक्षी थे, मगर अपनी हदें भी जानते थे. इसीलिए शास्त्री की मौत के बाद जब पश्चिम बंगाल के कांग्रेसी नेता अतुल्य घोष ने उनसे कहा, कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर पीएम के पद पर आपका सीधा दावा है, तो उनका जवाब था कि जिसे ठीक से हिंदी और अंग्रेजी न आती हो, उसे इस देश का पीएम नहीं बनना चाहिए.

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