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खालिद मिशाल: हमास का टॉप लीडर जिसे बचाने के लिए नेतन्याहू ने दवाई भेजी थी, लेकिन क्यों?

नेतन्याहू जब पहली बार प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने हमास के ठिकानों की लिस्ट मांगी. उनकी खास नजर मिशाल पर थी. फिर क्या वजह थी कि उन्होंने उसे बचाया.

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खालिद मिशाल (फोटो सोर्स- सोशल मीडिया)

साल 1997. सितंबर महीने के आखिरी चंद दिन. हमास (Hamas) का एक टॉप लीडर, जॉर्डन के एक उम्दा अस्पताल के बिस्तर पर मर रहा है. उसकी रगों में जहर का असर गहरा होता जा रहा है. मशीनों के जरिए भी बमुश्किल सांस आ रही है. सिर्फ एक शख्स, उसकी जान बचा सकता है. उसी के पास जहर की काट यानी एंटीडोट है. वो शख्स है- इज़रायल का तत्कालीन और वर्तमान प्रधानमंत्री- बेंजामिन नेतन्याहू. उन्हीं ने हमास के इस नेता को मारने के लिए मोसाद के दो एजेंट्स भेजे थे. उन दोनों की जान भी खतरे में थी. नेतन्याहू की किरकिरी भी हुई थी. आखिरकार नेतन्याहू को झुकना पड़ा. और एंटीडोट जॉर्डन भेजना पड़ा. ताकि उनके दुश्मन की जान बच सके.

नेतन्याहू का ये दुश्मन था हमास का एक बड़ा नेता, ख़ालिद मिशाल. उनकी जान कैसे बची, उन्हें एंटीडोट देने के पीछे नेतन्याहू की क्या मजबूरी थी, पूरा किस्सा जानते हैं.

मोसाद का प्लान

खालिद मिशाल की पैदाइश 28 मई, 1956 की है. 1967 में अरब देशों और यहूदियों के बीच हुई ‘सिक्स डे वॉर’ से 11 साल पहले की. खालिद वेस्ट बैंक में पैदा हुए. 67 की जंग के दौरान, ख़ालिद का परिवार वेस्ट बैंक से चला गया था. इसके बाद ख़ालिद कभी इज़रायली कब्जे वाले इलाके में नहीं रहे. 15 साल की उम्र में मुस्लिम ब्रदरहुड ज्वाइन किया. ये एक मुस्लिम चरमपंथी संगठन है. गठन से लेकर अब तक इस पर आतंकवाद के आरोप लगते रहते हैं. ख़ालिद ने फिजिक्स की पढ़ाई की. कुछ दिन खुद भी पढ़ाया और उसके बाद जॉर्डन चले गए. और हमास की मिलिट्री विंग के लिए काम करने लगे.

1997 तक ख़ालिद हमास की मूवमेंट के सबसे बड़े लीडर्स में से एक बन चुके थे. नेतन्याहू जब पहली बार प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने हमास के ठिकानों की लिस्ट मांगी. इस वक़्त तक हमास, सुसाइड अटैक्स करने लगा था. नेतन्याहू की खास नजर मिशाल पर थी. जबकि खुफिया विभाग के लोगों की सलाह थी कि हमास में जो और बड़े ऑपरेटिव हैं, उन पर निशाना रखा जाए.

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मोसाद को स्नाइपर शॉट जैसे दूसरे तरीकों में महारत थी. लेकिन मिशाल के निपटारे के लिए अलग प्लान बना. 25 सितंबर 1997 का दिन. मिशाल का जॉर्डन के अम्मान में ऑफिस था. मोसाद के एक एजेंट को उनके पास जाकर सोडा की केन तोड़कर आवाज करनी थी. और इसी बीच दूसरे एजेंट को उनके गले में मशीन से जहर स्प्रे करना था. ये जहर था फेंटेनाइल. मोसाद का मानना था कि दिन भर काम की थकान के बाद जब मिशाल सोएंगे तो स्प्रे का जहर उन्हें नींद में ही मार देगा. इस दवा के बारे में इज़रायल का मानना था कि शरीर में जाने के बाद ये अपना असर तो करेगी, लेकिन पोस्टमॉर्टम में इसके ट्रेसेज नहीं आएंगे.

नेशनल पोस्ट, मोसाद के एजेंट रहे बेन डेविड के हवाले से लिखता है कि उस दिन ख़ालिद अपनी कार से निकले और ऑफिस की सीढ़ियों की तरफ जा रहे थे. दोनों एजेंट्स उनके पास आए. लेकिन ऐन मौके पर मिशाल की छोटी बेटी ने उन्हें आवाज दे दी. मिशाल मुड़े और स्प्रे गले की बजाय उनके कान में चला गया. मिशाल ने एजेंट्स को देखा. मदद के लिए आवाज लगाई. फ़ौरन उनके साथ चल रहे दो बॉडीगार्ड्स ने दोनों एजेंट्स को पकड़ लिया. 

मिशाल को फ़ौरन जॉर्डन के एक अस्पताल ले जाया गया. लेकिन इलाज में तमाम दवाइयां बेअसर हो रही थीं. लाइफ सपोर्ट सिस्टम के बावजूद भी उनके पास बस कुछ दिन और थे.

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उधर जॉर्डन के किंग हुसैन, इज़रायल के इस कदम पर आग बबूला थे. दो ही साल पहले तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की मध्यस्थता में उन्होंने इज़रायल के साथ शांति समझौते पर दस्तखत किए थे. हुसैन ने एक अल्टीमेटम जारी किया-

“इज़रायल को जहर का एंटीडोट देना होगा. वरना मोसाद के एजेंट्स पर मुकदमा चलेगा.”

इस मुक़दमे का परिणाम होता सजा-ए-मौत.

ख़ालिद (फोटो सोर्स- AP)
ख़ालिद कैसे बचे?

टाइम की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जॉर्डन के लिए ये अहंकार का वक़्त था. इज़रायल को झुकाने का वक्त था. उसके दो एजेंट्स जॉर्डन के कैदी थे. अब जो सौदा/समझौता होता, उसमें उसकी शर्तें मानी जानी थीं. ये इज़रायल के लिए अपमानजनक था.

जॉर्डन ने दोबारा, बिल क्लिंटन को मध्यस्थता के लिए बुलाया. और दो मांगें रखीं- एक, ख़ालिद के लिए एंटीडोट और दूसरी, इज़रायल की जेलों में बंद कई फिलिस्तीनी कैदियों की रिहाई. इनमें सबसे खास नाम था-  शेख अहमद यासीन. हमास के फाउंडर और फ़िलिस्तीन के उस वक़्त के सबसे बड़े धार्मिक नेता.

व्हाइट हाउस से तीन लोग भेजे गए- सैंडी बर्जर , डेनिस रॉस और ब्रूस रीडेल. लेकिन इन लोगों ने नेतन्याहू का पक्ष नहीं रखा. उनको कह दिया गया कि उनका चेहरा बचाने का काम नहीं किया जाएगा. माने, इस बात को नहीं छिपाया जाएगा कि ख़ालिद पर ये हमला इज़रायल का ही किया है. और उन्हें हुसैन की दोनों मांगों को भी मानना होगा.

बेन डेविड कहते हैं कि वो पास ही एक होटल में थे. और उन्हें एंटीडोट अस्पताल पहुंचाने के लिए कहा गया. ख़ालिद की बेटी और इज़रायल की मजबूरी ने ख़ालिद की जान बचा ली. यासीन मलिक को भी रिहा कर दिया गया. ख़ालिद के बारे में कहा गया, “the man who wouldn’t die.”

ख़ालिद: ‘नया नायक’

ख़ालिद की साख बहुत बढ़ चुकी थी. साल 2004 में इज़रायल के हाथों, शेख यासीन मारा गया. और उसके एक महीने बाद उसके तख़्त पर काबिज हुआ अब्दुल रंतीसी. हमास की कमान अब ख़ालिद के हाथों में थी. जबकि वो कभी भी उस इलाके में नहीं रहे जिस पर कब्जे की लड़ाई थी. ख़ालिद, हमास की पॉलिटिकल और मिलिट्री विंग, दोनों के कमांडर बने.

इंटरव्यूज में ख़ालिद को मोसाद के एक एक्स चीफ ने “एक असली नेशनलिस्ट हीरो” कहा. वहीं बिल क्लिंटन के एक करीबी सहयोगी ने कहा,

“मिडिल-ईस्ट के संकट में ख़ालिद की जरूरी भूमिका रहेगी.”

कई साल बाद इज़रायल के एक सीनियर ऑफिसर ने कहा,

“वो फ़िलिस्तीन के इतिहास में जायनिस्ट्स की तरह ही दर्ज होना चाहते हैं. मिशाल, सभी फ़िलिस्तीनियों को अपने ऐतिहासिक घर में इकठ्ठा करना चाहते हैं.”

आयरिश ऑस्ट्रेलियन पत्रकार पॉल मैक्गो अपनी किताब, 'Kill Khalid: The Failed Mossad Assassination of Khalid Mishal and the Rise of Hamas' में लिखते हैं कि इस वाकये के दो ही साल बाद बेंजामिन नेतन्याहू और ख़ालिद का आमना-सामना हुआ. 1999 में जॉर्डन के किंग हुसैन के जनाज़े में. फिर से जगह अम्मान ही थी. लेकिन इस बार जॉर्डन का जनरल इंटेलिजेंस डिपार्टमेंट, ख़ालिद और उनके संभावित हत्यारे की मुलाकात को लेकर पहले से बहुत चौकन्ना था.

ख़ालिद, खुद पर हुए हमले के बाद कुछ दिन के लिए सीरिया रहे. फिर क़तर. दिसंबर 2012 की ख़ालिद की एक तस्वीर बहुत चर्चा में रही है. गाज़ा में भीड़ नारे लगा रही थी. शहर के बीचोंबीच, एक M75 रॉकेट के डमी के साथ मिशाल खड़े हैं. कह रहे हैं,

"हम इज़रायल के कब्जे को कभी नहीं मानेंगे. हम जेरुसलेम को इंच-इंच, पत्थर-पत्थर आजाद करेंगे. चाहें इसमें जितना भी वक़्त लग जाए."

कहा जाता है कि इसी तस्वीर में ख़ालिद भी है (फोटो सोर्स- AFP)

वैनिटी फेयर में साल 2014 में छपे, पॉल मैक्गो के एक आर्टिकल के मुताबिक, 99 की मुलाकात के बाद नेतन्याहू और ख़ालिद, कभी आमने-सामने भले न आए हों, लेकिन फिर भी आपस में बात करते हैं. मध्यस्थों के जरिए युद्ध-विराम पर भी दोनों के बीच बात होती है. लेकिन अब फिर से ख़ालिद का रुख खुर्राट हो चला है.

सऊदी अरब के अल-अरेबिया न्यूज़ नेटवर्क को बीती 20 अक्टूबर को दिए एक इंटरव्यू में ख़ालिद कहते हैं,

"हमास, आम लोगों को निशाना नहीं बनाता. आज़ादी आसानी से नहीं मिलती. इज़रायल से आजादी के लिए कुर्बानी करनी होगी. जंग में आम लोग भी प्रभावित होते हैं. हम उनके लिए जिम्मेदार नहीं हैं."

ख़ालिद ये भी कहते हैं कि इज़रायल कमजोर हो चुका है. उसकी आर्मी ने सर्व करने से इनकार कर दिया है. ये भी दावा करते हैं कि इजरायली आर्मी वैसी नहीं रही, जैसी कभी थी. वो हार चुके हैं, उनकी स्ट्रैटेजी नाकाम रही है. हमारे लोग जानते हैं कि सब्र कैसे रखा जाता है.

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