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मुझे लगा था दलित बर्तन को छूते हैं तो करंट आता होगा

जैसलमेर में अपने गांव में रहते हुए ये मेरा अनुभव था. वहां और देश के हजारों गावों में आज भी अगड़ों का व्यवहार दलितों से ऐसा है जैसे वे उनके गुलाम हो. आदेश न मानें तो मार पीट देते हैं.

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Photo- Sumer Singh Rathore
भारत में दलितों की स्थिति, आरक्षण, उसे हटाने, न हटाने या रिव्यू करने को लेकर बहुत सारी बहसें चलती हैं. ब्राह्मणवाद, दलित उत्पीड़न, चिंतन, ये, वो. लेकिन ज्यादातर दिल्ली में. मुंबई में. थोड़ा-बहुत राज्यों की राजधानियों में. लेकिन देश के गांवों में आएं तो स्थिति विकट है. वहां गैर-बराबरी वैसे ही बनी हुई है. जैसे मैंने जैसलमेर में या अपने गांव लौद्रवा में रहते हुए आसपास जो चीज़ें देखीं. हमारे यहां घर बनाने का काम ज्यादातर मेघवाल करते हैं और कुछ घरेलू काम भीलों द्वारा किए जाते हैं. ये दोनों जातियां एससी और एसटी में आती है. उनको गांव की ऊंची जातियों के कहे जाने वाले लोग अपने बर्तन छूने नहीं देते हैं, बराबर नहीं बैठने देते हैं. आजकल अगर कोई शादी में घोड़ी पर बैठता है उनको धमकियां दी जाती हैं. उनको पानी पिलाते हैं तो बिना बर्तन छुआए ऊपर से. मैं छोटा था तो कई बार मुझे भी पानी पिलाने के लिए बोला जाता था.
मैं पानी पिलाते हुए बर्तन उनके हाथों से छू देता था. यह देखने के लिए कि कुछ होता है क्या? मुझे लगता था कि उनके छू लेने से करंट वरंट टाइप का कुछ होता होगा. पर होता तो कुछ नहीं था. मैं हर बार छुआ देता था. वो डर जाते और कहते कि अपने बर्तन मत छुआओ. आपको और मुझे दोनों को डांट पड़ेगी. और गांवों में ये सब अब भी चलता है. कई बार अगर गलती से भील/मेघवाल या पिछड़ी जाति के लोग सवर्ण जातियों का कोई बर्तन छू लेते हैं तो वह उसको वापस नहीं लेते. और उस बर्तन को हमेशा के लिए दलितों को दे दिया जाता है या उनके लिए अलग रख दिया जाता है.
एक और चीज जो मुझे अजीब लगी वो ये कि कथित ऊंची जातियों के लोग ऊपर बैठते हैं और जिन्हें नीची जातियां कहते हैं वो नीचे बैठते हैं. अगर बैठने के लिए कुछ बिछाया गया है तो दलितों को कोने में जहां दरी खत्म होगी वहां जमीन पर बैठाया जाता है. हाल के दिनों में हालात कुछ जगहों पर थोड़े से बदले हैं. मेरे गांव में दलित नॉर्मली सवर्णों के बराबर बैठ जाते हैं. कई बार जब किसी और गांव से रिश्तेदार आए होते हैं तो उनको आश्चर्य होता है. और पूछते हैं 'ऐ ढे* थांरे बराबर ऊंचा बेसेय. सफाय माथे चाड़े राख्या हो. थे तो ब्हिस्ट हुआ पा.' (यार, ये दलित तुम्हारे बराबर कैसे बैठते हैं. तुमने तो इनको सिर पर ही चढा रखा है.) गांव में कोई भी कार्यक्रम हो तो उनको अलग, बाहर बैठाया जाता है. ये मैं किसी पुराने जमाने की बात नहीं बता रहा. 2016 तक का अपडेट है. एक बार एक सवर्ण लड़के की शादी थी. उसके स्कूल के दोस्त थे कुछ दलित जातियों से. वो भी आए थे. वो बाकी सब मेहमानों के बीच में आकर बैठ गए. जब उन ऊंचे, हवा में रहने वाले सवर्णों को पता चला तो सब वहां से उठकर दूसरी जगह जाकर बैठ गए. अजीब स्थिति हो गई थी. बाद में हिदायत दी गई कि अपने दलित दोस्तों को सवर्ण मेहमानों के बीच नहीं बैठाया जाए. उनके लिए अलग व्यवस्था हो. स्कूलों में हालात और खराब होते हैं. दलितों को बहुत परेशान किया जाता है. छात्रों को तो किया ही जाता है. अध्यापकों के भी हालात खराब है. गुट बने होते हैं. अध्यापकों पर कमेंट किए जाते हैं. 'आरक्षण से बन गए मास्टर आता कुछ भी है नहीं'. अगर कोई सवर्ण लड़का किसी परीक्षा में थोड़े नम्बरों से रह जाता है तो वो दलितों से दुश्मनी पाल लेता है. कई बार नौबत मारापीटी तक आ जाती है.
पहले उनसे घरेलू काम करा के शारीरिक प्रताड़ना दी जाती थी. अब मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है. हर जाति को नीचा दिखाने के लिए कुछ नाम रखे जाते हैं. ऑफिसों में सवर्ण उन्हें इन नामों से बुलाकर उनको कमतर साबित करने की कोशिश करते हैं. अगर कोई दलित ऊपर का अफसर है तो सवर्ण कर्मचारी उन्हें पीठ पीछे गालियां देते हैं. और जातिसुचक शब्द बोलते हुए कहते हैं कि 'आरक्षण की कृपा से अफसर बन गए नहीं तो हमारे खेतों में या घर के काम कर रहे होते.'
गांव के लोग बताते हैं कि पहले सवर्ण और दलितों के बीच कटुता नहीं थी. दलित खेतों और घरों में काम करते थे. सवर्ण उन्हें काम के बदले खाने-पीने का सामान, पशु या धन देते थे. किसी ने एक किस्सा सुनाया था कि एक गांव के राजपूत थे. उनके पास बहुत अच्छा ऊंट था. उनके किसी रिश्तेदार ने ऊंट मांगा तो उन्होंने नहीं दिया. लेकिन जब एक वहीं उनके खेत में काम करने वाले ने मांगा तो उसे दे दिया था. हालांकि मुझे नहीं लगता कि सब जगह हालात ऐसे रहे होंगे. यह किसी एक जगह की कहानी होगी. या कुछ जगहों की. आज की पीढ़ी के लोग उनसे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे उनका दलितों पर अधिकार हो. अगर कोई दलित काम करने से मना कर दे तो उसके साथ मारपीट कर दी जाती है. गांवों में मैंने देखा है कुछ निठल्ले सवर्ण होते हैं, जिनको कोई काम-धंधा नहीं होता, वो दलितों को तंग करते है. कोई आकर उनकी सेवा कर दे. उनको सामान लाकर दे. उनके खेत की फसल काट दे. या उनके लिए पत्थर तोड़ दे. कुछ वक्त पहले तक दलित महिलाओं के हालात भी अच्छे नहीं थे. उनके साथ आए दिन छेड़छाड़ की घटनाएं होती थीं. लेकिन इस तरह की घटनाएं हाल के दिनों में कम हो गई हैं.
एससी एसटी एक्ट और आरक्षण ने दलितों की स्थिति सुधारने में बहुत बड़ा योगदान दिया है. लेकिन इसका फायदा भी केवल वही लोग उठा पाए हैं जिन तक शिक्षा पहुंची या जो शहरों के नज़दीक रहते हैं. बाकि दूर-दराज के क्षेत्रों में आज भी हालात बदतर है. उनके साथ वैसे ही जानवरों की तरह व्यवहार किया जाता है. भेदभाव और छूआछूत जारी है.

SHAME पर एक निबंध

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