दो तरह के लोग होते हैं – ऐसा कई तरह के लोग, अपनी सुविधानुसार ऐसा कह देते हैं. पहले वो, जिन्हें पानी का स्वाद मालूम है. दूसरे, जिन्हें नहीं मालूम. हालांकि, दोनों तरह के लोग पानी पीते हैं. पानी उनके जीवन की मूलभूत ज़रूरत है. पहले वो, जिन्हें आग की तपिश महसूस होती है. दूसरे, जो बस जल जाते हैं... पहले वालों की तरह ही. वैसे ही, कुछ को मालूम है कि लगभग अजनबियों की तरफ़ से दिए गए लड्डू भले ही खा लिए जाएं, मगर खीर को लेकर संशय बना रहना चाहिए.
जिन्होंने 'सूर्यवंशम' नहीं देखी, उन बदनसीबों के नाम एक खुला ख़त
ये केवल फ़िल्म नहीं है, पेजर से AI तक 'सब कुछ' देखने वाली पीढ़ी का एक संदर्भ बिंदु है. लोकतंत्र तो आधुनिकता के क्रम में आया. वैसे तो भारत राजे-महाराजे और राजवंशों का देश रहा है. मौर्य वंश, गुप्त वंश, नंद वंश, ग़ुलाम वंश, मुग़ल वंश. मगर सूर्यवंशम का कोई मुक़ाबला नहीं.

इस आधारहीन क्लासिफ़िकेशन का आधार है आगाही. कित्ता जनते हो? जैसे अगर आपने 'सूर्यवंशम' देखी हो, तो खीर के ख़तरों से वाकिफ़ होंगे. 25 बरस पहले आई इस फ़िल्म ने वैसे तो सिनेमा की हर विधा को ही चुनौती दी, ऊपर से खीर के माने बदल दिए. कहां बताने वाले बताते हैं कि खीर का आविष्कार दो हज़ार बरस पहले हुआ था, ओडीशा के मंदिरों में चढ़ाई जाती थी, संस्कृत शब्द 'क्षीर' (दूध) में चावल और मेवा मिलाकर बनती है. कहां तब प्रसाद में चढ़ती थी, और अब स्वाद, हास्य और कुछ संशय की भेंट चढ़ जाती है.
‘सूर्यवंशम’ ने खीर के साथ ऐसा ही किया. ये केवल फ़िल्म नहीं है, पेजर से AI तक 'सब कुछ' देखने वाली पीढ़ी का एक संदर्भ बिंदु है. लोकतंत्र तो आधुनिकता के क्रम में आया. वैसे तो भारत राजे-महाराजे और राजवंशों का देश रहा है. मौर्य वंश, गुप्त वंश, नंद वंश, ग़ुलाम वंश, मुग़ल वंश. मगर सूर्यवंशम का कोई मुक़ाबला नहीं.
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मई के महीने में लू से बचा जा सकता है. चुनाव के महीनों में घाती या आत्मघाती चर्चा-परिचर्चा से, ‘HW कॉपी चीता खा गया’ कहकर माट् साब की पिटाई से भी बचा सकता है. या सभ्य आदमी बनने के लिए अच्छी आदतों से भी परहेज़ किया जा सकता है. मगर सूर्यवंशम से नहीं. कुछ-कुछ नरेंद्र मोदी सी है. आप उन्हें पसंद कर सकते हैं, नापसंद कर सकते हैं, मगर इग्नोर नहीं कर सकते. और ज्यों आप सूर्यवंशम नामक आग से अछूते रह गए हैं, तो आप पर अंग्रेज़ी की एक कहावत माकूल बैठती है - यू आर लिविंग अंडर द रॉक.
दुनिया में 26 साल बिताने के बाद शायद ही कोई ही मिला हो, जिसने ‘सूर्यवंशम’ न देखी. अगर एक-मुश्त नहीं, तो तीस-चालीस हिस्सों में सही. ड्रॉइंग रूम से गुज़रते हुए ही निपटा दी होगी.
और नहीं देखी… तो थे कहां तुम? क्या तुमने अपने हाथों में कभी रिमोट नहीं पकड़ा? क्या कभी किसी बुधवार की दोपहर को बोरियत में चैनल नहीं बदले? बदलने के क्रम में सेट मैक्स नहीं टकराया? टकराया, तो कभी भी भी भी… हीरा नहीं मिला?
जिनसे रह गई, उनके लिएजिस बरस 'हम दिल दे चुके सनम' में सलमान ने प्रेम के लिए अपने प्रेम का त्याग किया, शाहरुख ने 'बादशाह' बताकर चोरी बेची, संजय दत्त ने फ़्रेंच दार्शनिक वोलटायर के कथन 'हर समाज अपना अपराधी पैदा करता है' को 'वास्तव' में उतारा, आतंकवाद को रोकने के लिए आमिर 'सरफ़रोश' में एक पुलिस अफ़सर बने, 'शूल' में ईमानदार अफ़सर बने मनोज बाजपई का पाला बच्चू यादव से पड़ा, “खिलाड़ी” में एक क़िश्त जोड़कर अपने घर की किश्तें भरने वाले अक्षय ने 'इंटरनैशनल खिलाड़ी' में (नकली) अंडरटेकर को हराया, उसी बरस - सदी के आख़िरी बरस - 57 साल के महानायक ने 'कंगाली' में डबल रोल किया. जिस रोल को 13 और ऐक्टरों ने हवा नहीं दी, उस फ़िल्म में बच्चन अमिताभ पिता भी बने और अपने ही पुत्र भी. चाइल्ड इज़ द फ़ादर ऑफ़ मैन.
और कौन सा रोल किया? हीरा ठाकुर का. हीरा कौन? आधे किलोमीटर दूर से लोरी नहीं, प्रेमगीत गा कर बच्चे सुला देने वाला हीरा. 'डैडी इशूज़' का पहिला अम्बैस्डर हीरा. ताउम्र घिस्सू-दब्बू से एक गीत भर में बस सम्राज्य का मालिक बन जाने वाला हीरा. हीरा है हीरा. मगर पापा को हीरा नहीं लगता.
पापा यानी ठाकुर भानू प्रताप सिंह. भरतपुर गांव के सरपंच और पितृसत्ता की मूरत. पूरे परिवार के पालनहार और ‘टेरर’ के पर्याय. फिर भी परिवार से उन्हें अपार प्रेम मिलता है. सब बाबूजी की इज़्ज़त करते हैं. वो अपने गांव के अलावा भी आसपास के अठारह गांवों के लोगों के लिए 'ठाकुर साहब' हैं. अपनी पत्नी शारदा और अपने तीन बेटों - करण, वरुण और हीरा - के साथ रहते हैं. हीरा अनपढ़ है. इसीलिए पिता की आंखों में नकारा है. उनके बकौल, उनके ख़ून का सबसे बदनाम क़तरा, उनकी हवेली का सबसे बेकार हिस्सा. भाई-भाभी की नज़र में भी ऐसा ही कुछ. परिवार में उसका कोई मत नहीं है. केवल छोटी-मोटी चीज़ें करता है. उपेक्षा और नकार के बावजूद अपने पिता से बेइंतेहां मुहब्बत करता है. (ये 'ऐनिमल' से 24 साल पहले की बात है.) हीरा को प्रेम करने वाली केवल उसकी मां है और घर का एक सहायक, धर्मेंद्र. कहानी इसी पिता-पुत्र संबंध के इर्द-गिर्द है. हैपी एंडिंग उनती ही प्रत्याशित है, जितनी इस प्लॉट को पढ़ कर लग रही है.

हालांकि, प्लॉट को लेकर एक कनफ़्यूज़न है, कि किरदारों को कितना कनफ़्यूज़न है. 25 साल तक हीरा को ये नहीं पता था कि गौरी उससे प्यार नहीं करती. राधा को ये नहीं पता चला कि हीरा भानू प्रताप का बेटा है. भानू प्रताप को ये नहीं पता कि उनका पोता कैसा दिखता है. हीरा को ये नहीं पता कि उसकी बहन की शादी है. गौरी को ख़ुद नहीं पता कि उसकी शादी है.
ये कहानी 1997 की एक तमिल फ़िल्म 'सूर्यवमसम' का रीमेक है. तब उत्तर-दक्षिण की बहस इतनी हिंसक नहीं थी.
इस फ़िल्म को कल्ट बनाने के कई कारक हैं. मगर जितना साथ इस फ़िल्म का सेट मैक्स ने दिया, उतना प्लॉट ने नहीं. बॉक्स-ऑफ़िस पर ये फ़िल्म कोई बहुत कामयाब नहीं हुई थी, मगर सेट मैक्स ने इसे हर-हर घर-घर पहुंचाया.
फिर अमिताभ बच्चन का किरदार है. इसमें 'मिथूनियत' भी है, और कुछ-कुछ 'जीतेंद्रियत' भी. माने इंडिविजुअल की जीत भी है और अच्छे फ़ैमिली मैन वाले गुण भी. जनता इस तरह के दब्बू, मगर अच्छे दिल के आदमी के साथ मुतास्सर होती है. उसकी सक्सेस में अपनी सक्सेस खोजती है, बिना किसी सवाल-तर्क के.
जेन-ज़ी ने सूर्यवंशम को मीम्स से जाना. चाहे भानू प्रताप के सवा सौ ग्राम ख़ून थूकने वाला मीम हो या हीरा की तीव्र तरक्की का मीम.
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बहस इस बात पर है ही नहीं कि फ़िल्म अच्छी है या ख़राब. वो तो अलग-अलग मत हैं. फ़िल्म हमारी सामूहिक स्मृति का हिस्सा है. हमारे साझे इतिहास का हिस्सा. बस इन स्मृतियों में एक सवाल कौंध रहा है, सालों से: राधा को IAS बनकर अपने गृह ज़िले में पोस्टिंग कैसे मिल गई?

ख़ैर, ये सवाल तो रह गया. ‘सूर्यवंशम’ एक महाकाव्य है... मगर इसमें कोई कविता नहीं. गोया एक छौने कवि की कविता, जो प्रौढ़ लगना तो चाहता है मगर इतना माहिर नहीं कि छिपा पाए.
(विनम्र निवेदन: आप में से भी जिस किसी ने सूर्यवंशम देखी है. और समझते हैं कि हमारे पॉप और रोस्ट कल्चर में इसकी क्या महत्ता है, और ये हमारे अनगढ़ दिनों का कितना अद्भुत चिप्पू नॉस्टेलिया है, वे भी कमेंट में शेयर करें - अपने मन की बात, अपनी करुण कथा, अपनी याद, अपना टेक और अगंभीरता. आइए, उन बदनसीबों को हीरा ठाकुर की इस गाथा तक ले चलें, जो अब तक इससे वंचित हैं.)
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