वेब सीरीज होमलैंड में पॉलीग्राफ टेस्ट का एक सीन. (फोटो- Cliqueclack)
करीब 2000 साल पहले अपने इंडिया में झूठ पकड़ने का एक फंडू तरीका चलता था. चावल खिलाकर टेस्ट किया जाता था कि कौन झूठ बोल रहा है. कैसे? जिसके ऊपर डाउट होता था, उससे पूछताछ करते थे. फिर उसको चावल के दाने खाकर थूकने को कहा जाता था. जो व्यक्ति आसानी से चावल थूक देता था, वो निर्दोष सिद्ध हो जाता था. और जिसको चावल थूकने में दिक्कत होती थी, वो झूठा कहलाता था. इस लाई डिटेक्शन टेस्ट के पीछे अजम्पशन ये था कि झूठ बोलने वाले का गला सूख जाता है. आपने टीवी सीरियल या फिल्मों में देखा होगा, आजकल झूठ पकड़ने वाली मशीन होती हैं. जिसे लोग लाई डिटेक्टर कहते हैं. दरअसल इसका असली नाम पॉलीग्राफ टेस्ट है. पॉलीग्राफ दिखने में ‘साइंटिफिक’ सा लग सकता है. लेकिन झूठ पकड़ने के लिए इसका इस्तेमाल काफी कॉन्ट्रोवर्शियल है. इस झूठ पकड़ने वाली मशीन का सच क्या है? ये जानने की कोशिश करेंगे इस एपिसोड में.
कहना गलत-गलत तो छुपाना सही-सही
पॉलीग्राफ के नाम और काम करने के तरीके से शुरुआत करते हैं.
पॉली का मतलब होता है अनेक (एक से ज़्यादा). पॉलीग्राफ में अनेक सिग्नल दर्ज किए जाते हैं. ये एक डिवाइस है, जो शरीर में आने वाले कई बदलावों को रिकॉर्ड करता है. किसी भी पॉलीग्राफ टेस्ट में बेसिकली तीन-चार सिग्नल्स को देखा जाता है.
1. हार्ट रेट/ब्लड प्रेशर
2. रेस्पिरेशन (सांस लेने और छोड़ने वाली प्रक्रिया)
3. पर्सपिरेशन (पसीना आना) इस टेस्ट के पीछे धारणा ये है कि अगर कोई व्यक्ति झूठ बोल रहा है, तो उसमें ये शारीरिक बदलाव देखने को मिलेंगे. ये टेस्ट डायरेक्टली झूठ को नहीं पकड़ता. झूठ बोलने से पैदा होने वाले डर, घबराहट या नर्वसनेस को पकड़ता है.

एक पॉलीग्राफ टेस्ट के सेटअप को ध्यान से देखिए. एक व्यक्ति के शरीर से कुछ सेंसर्स और तार जुड़े होते हैं. - कमर और छाती के पास लगे हुए दो रबर ट्यूब रेस्पिरेशन (स्वांस) रिकॉर्ड करने के लिए होते हैं. - बांह के ऊपरी हिस्से में लगी एक पट्टी ब्लड प्रेशर या हार्ट रेट के लिए होती है. ये आपने किसी डॉक्टर के पास देखी होगी. बीपी चेक करने के लिए डॉक्टर ऐसी ही पट्टी लगाते हैं. - पर्सपिरेशन यानी पसीना पकड़ने के लिए उंगलियों पर कुछ क्लिप्स लगा दी जाती हैं. किसी को ज़्यादा पसीना आता है, तो आंखों से दिखाई दे जाता है. लेकिन पॉलीग्राफ टेस्ट में ज़रा सा भी पसीना आए, तो पता चलना चाहिए. इसके लिए इलेक्ट्रोडर्मल एक्टिविटी देखी जाती है. किसी भी चीज़ के विद्युत करंट पास करने की क्षमता को कंडक्टिविटी कहते हैं. जब किसी को भी ज़रा सा पसीना आता है, तो ये कंडक्टिविटी चेंज हो जाती है. इस सिग्नल की मदद से पर्सपिरेशन यानी पसीने को रिकॉर्ड किया जाता है. इनके अलावा कुछ पॉलीग्राफ टेस्ट्स में कुर्सी के नीचे मूवमेंट सेंसर्स भी लगे होते हैं. अगर वो व्यक्ति ज़्यादा हिल-डुल रहा है, तो वो भी रिकॉर्ड हो जाता है. ऐसे कुछ सेंसर्स हर पॉलीग्राफ टेस्ट में लगे होते हैं. इन सबके रिज़ल्ट्स एक स्क्रीन पर दिख रहे होते हैं. इस स्क्रीन के सामने जो व्यक्ति बैठा होता है, उसे एग्ज़ामिनर कहते हैं. एग्ज़ामिनर सामने बैठे व्यक्ति से सवाल-जवाब करता है और स्क्रीन पर ऊपर-नीचे हो रहे ग्राफ्स को देखता है. थ्योरी के मुताबिक अगर सामने वाला झूठ बोलता है, तो इन ग्राफ्स में स्पष्ट बदलाव नज़र आ जाता है. जिसे देखकर एग्ज़ामिनर पता लगा लेते हैं कि झूठ बोला गया है. पॉलीग्राफ टेस्ट में जितना महत्व इस उपकरण और उसके सिग्नल्स का होता है, उतना ही महत्व सामने बैठे एग्ज़ामिनर का होता है. ये चीज़ बहुत मायने रखती है कि टेस्ट कौन ले रहा है और टेस्ट का प्रोसीजर क्या है. प्रोफेशनल सेटअप में एक ट्रेन्ड एक्सपर्ट ही ये टेस्ट कंडक्ट करता है.
प्रोसेस समझिए
ऐसा नहीं होता है कि कमरे में घुसते से ही संदिग्ध के इर्द-गिर्द पट्टे और वायर से लपेटकर मशीन चालू कर देते हैं. ये प्रोसेस बहुत आराम से टाइम लेकर की जाती है. पॉलीग्राफ अटैच करने से पहले एक प्री-टेस्ट होता है. इसमें एग्ज़ामिनर आराम से उस व्यक्ति को पूरी टेक्निक समझाते हैं और पहले ही उसको टेस्ट के सारे सवाल बता देते हैं. ये चौंकाने वाली बात है कि टेस्ट होने से पहले ही सारे सवाल बता दिए जाते हैं. फिर टेस्ट का मतलब ही क्या निकला? ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि कोई सरप्राइज़ एलिमेंट न रहे. क्या है अचानक से कोई सवाल पूछने पर सामने वाला घबरा सकता है और इससे पॉलीग्राफ की रीडिंग गड़बड़ा सकती है. तो एलिमेंट ऑफ सरप्राइज़ पॉलीग्राफ की रीडिंग पर प्रभाव न डाले, इसलिए सवाल पहले से ही बता दिए जाते हैं. आमतौर पर एग्ज़ामिनर टेस्ट से पहले पॉलीग्राफ मशीन का एक डेमो भी देते हैं. जिसमें ये दिखाया जाता है कि पॉलीग्राफ मशीन कितने अच्छे से झूठ पकड़ लेती है और टेस्ट ले रहे व्यक्ति को समझाया जाता है कि झूठ बोलोगे तो पकड़े जाओगे. इन औपचारिकताओं के साथ प्रीटेस्ट इंटरव्यू खत्म होता है और मेन प्रोसेस शुरु होती है. अब अलग-अलग सेंसर्स को व्यक्ति के शरीर से जोड़ा जाता है. और सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू होता है. इस टेस्ट में सिर्फ ऑब्जेक्टिव क्वेस्चन ही पूछे जाते हैं. ऐसे सवाल जिनका जवाब सिर्फ हां या ना में दिया जा सकता है. पॉलीग्राफ टेस्ट में सिर्फ क्राइम या घटना से जुड़े सवाल नहीं होते. इनमें कुछ इधर-उधर के सवाल भी पूछे जाते हैं. ये दरअसल एक टेक्नीक होती है. पॉलीग्राफ टेस्ट में कई टेक्नीक यूज़ होती हैं. सबसे कॉमन टेक्नीक का नाम है - कंट्रोल क्वेस्चन टेस्ट(CQT).
कंट्रोल उदय, कंट्रोल!

कंट्रोल क्वेस्चन टेस्ट में दो तरह के सवाल पूछे जाते हैं. रेलेवेंट क्वेस्चन और कंट्रोल क्वेस्चन. (प्रतीकात्मक फोटो) रेलेवेंट क्वेस्चन यानी ज़रूरी सवाल. जिनका केस से सीधा संबंध होता है. जैसे कि, क्या तुमने अपने पति की हत्या की है? कंट्रोल क्वेस्चन यानी गैरज़रूरी सवाल. जिनका केस से कोई सीधा संबंध नहीं होता. ये बहुत जनरल टाइप के सवाल होते हैं. ये डर पैदा करने के लिए होते हैं. इनका संबंध टेस्ट दे रहे व्यक्ति के पास्ट(अतीत) से हो सकता है. जैसे कि, क्या तुमने कभी किसी ऐसे आदमी को धोखा दिया है, जिसने तुम्हारे ऊपर भरोसा किया हो? इस तरह के कंट्रोल क्वेस्चन्स से लगभग हर किसी के अंदर एक डर या घबराहट पैदा होती ही है. कंट्रोल क्वेस्चन टेक्नीक में ये अज़्यूम किया जाता है कि सच बोल रहा व्यक्ति रेलेवेंट क्वेस्चन के मुकाबले कंट्रोल क्वेस्चन में ज़्यादा घबराएगा. क्योंकि कंट्रोल क्वेस्चन बहुत बड़े पास्ट को टारगेट करते हैं. इसलिए इनमें सच बोलने वाले को ज़्यादा चिंता होती है. जबकि दोषी व्यक्ति को क्राइम से जुड़े हुए रेलेवेंट क्वेस्चन में ज़्यादा घबराहट होती है. तो कंट्रोल क्वेस्चन टेक्नीक के तहत दोनों तरह के सवाल पूछे जाते हैं. और इनके रिस्पॉन्स की तुलना की जाती है. इसी तुलना करने के बाद एग्ज़ामिनर किसी नतीजे पर पहुंचते हैं. अगर पॉलीग्राफ मेंं कंट्रोल क्वेस्चन से ज़्यादा रेलेवेंट क्वेस्चन में रिस्पॉन्स दिखाई देता है, तो उसे Deceptive (भ्रामक) समझा जाता है.
अगर उसका कंट्रोल क्वेस्चन में ज़्यादा और रेलेवेंट क्वेस्चन में कम रिस्पॉन्स दिखाई देता है, तो उसे Truthful (सच्चा) मान लिया जाता है.
और अगर कंट्रोल क्वेस्चन और रेलेवेंट क्वेंस्चन दोनों में एक जैसा रिस्पॉन्स दिखता है, तो रिज़ल्ट Inconclusive (कोई निष्कर्ष नहीं) होता है.
चोर की दाढ़ी में तिनका
ज़्यादातर पॉलीग्राफ टेस्ट में कंट्रोल क्वेस्चन टेस्ट यूज़ होता है. लेकिन इसके अलावा एक और टेक्निक है. जिसका नाम है गिल्टी नॉलेज टेस्ट (GKT). जापान जैसे देश पॉलीग्राफ टेस्ट में इस टेक्नीक का इस्तेमाल करते हैं. इस टेस्ट में ऐसे क्वेस्चन पूछे जाते हैं, जिनमें टेस्ट से जुड़ी बारीक जानकारी शामिल होती है. ऐसे सवाल सुनने पर सिर्फ उसी व्यक्ति के अंदर प्रतिक्रिया होगी, जिसे वो डीटेल्स पता हैं. जैसे कि किसी चोर से पूछा जाए, क्या चोरी हुई रकम 50,000 थी, या 47,000?
या किसी हत्यारे से पूछा जाए, क्या मर्डर के लिए 7 mm बुलेट यूज़ हुई थी या 9 mm? अगर उस व्यक्ति को केस से जुड़े ये फैक्ट नहीं पता हैं, तो कोई पॉलीग्राफ में कोई खास रिस्पॉन्स देखने को नहीं मिलेगा. लेकिन अगर उसे ये ‘गिल्टी नॉलेज’ है, तो पॉलीग्राफ का रिस्पॉन्स ये बता देगा. गिल्टी नॉलेज टेस्ट को ज़्यादा जगहों पर यूज़ नहीं किया जाता क्योंकि इसमें एक दिक्कत है. ये तभी काम आ सकती है, जब सवाल पूछने वाले को भी वो स्पेसिफिक चीज़ें पता हों, जो दोषी जानता है. और इस टेस्ट से वो आदमी भी बचकर निकल सकता है, जिसने क्राइम को अंजाम तो दिया है, लेकिन उसे क्राइम के बारे में इतनी डीटेल नहीं मालूम हों.
पॉलीग्राफ का पर्दाफाश
जब से पॉलीग्राफ का आविष्कार हुआ है, तब से ये कॉन्ट्रोवर्सी का केंद्र रहे हैं. कॉन्ट्रोवर्सी इसी बात पर है कि इसे लाई डिटेक्टर यानी झूठ पकड़ने वाली मशीन कैसे कहा जा सकता है? पॉलीग्राफ टेस्ट में मुख्यत: डर, घबराहट और नर्वसनेस के लक्षण पकड़े जाते हैं. कई बार सच बोलने वाला व्यक्ति भी घबरा सकता है और झूठा व्यक्ति कूल रहकर सफेद झूठ बोल सकता है. इसलिए इसे झूठ पकड़ने वाली मशीन कहना कितना सही है, इस पर मत बंटे हुए हैं. कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि प्रॉपर ट्रेनिंग के साथ इस टेस्ट को मात दी जा सकती है. कई ऐसी किताबें और वेबसाइट्स हैं, जो बताती हैं कि इस टेस्ट को कैसे बीट किया जा सकता है. मार्केट में कई तरह के ऐसे सेडेटिव्स और एंटीपर्सपिरेंट्स आते हैं, जो पॉलीग्राफ को चकमा देने में मददगार बताए जाते हैं. इसके अलावा कई ट्रिक्स भी हैं, जिनके ज़रिए अपने शरीर के रिस्पॉन्स को बदला जा सकता है. और पॉलीग्राफ को कन्फ्यूज़ किया जा सकता है. उदाहरण के लिए जूते में कील फंसाने वाली ट्रिक को देखिए. कुछ लोग टेस्ट के दौरान जूते में कील फंसाकर ले जाते हैं. जब उनसे सवाल पूछे जाते हैं, तो वो अपना पैर उस कील पर दबा देते हैं. इससे उनके शरीर में बदलाव होते हैं और पॉलीग्राफ की रीडिंग डगमगा जाती है. इसी तरह अपनी जीभ या होठ काटकर पॉलीग्राफ को बेवकूफ बनाने वाली ट्रिक्स भी बताई जाती हैं.

ज़्यादातर साइकोलॉजिस्ट्स और साइंटिस्ट्स इस बात पर सहमत हैं कि पॉलीग्राफ टेस्ट्स की वैधता का आधार बहुत कमज़ोर है. इस बात के सबूत भी बहुत पुख्ता नहीं हैं कि पॉलीग्राफ टेस्ट में जांचे जाने वाले शारीरिक बदलाव झूठ बोलने के लक्षण ही हैं. जाते-जाते निदा फाज़ली का ये शेर पढ़ लीजिए.
हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना.
वीडियो-