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रोग नेशन: अमेरिका ने आज ही के दिन इस देश में बम बो दिया था, जो अब फट रहा है

लीबिया के तानाशाह गद्दाफी को 5 साल पहले मारा गया था आज ही के दिन.

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फोटो - thelallantop

रोग नेशन यानी रोग देश. रोग नेशन का मतलब है वो देश जो इंटरनेशनल नियमों को नहीं मानता और आतंकवाद को बढ़ाता है. रोग देश का मतलब है वो देश जो अंदर से रोगी हो चुका है, आतंकवाद जिसकी खुराक बन गई है. हिंदी और अंग्रेजी (Rogue) दोनों भाषाओं में मतलब एक ही है.



वैसे तो पुराना देश है ये. अफ्रीका का. पर 1951 में लीबिया अपने आधुनिक रूप में आया. फुल बॉर्डर के साथ. ये फ़ेडरल मोनार्की बन के आया था. मतलब केंद्र और पार्लियामेंट रहेंगे. साथ ही इसके तीन क्षेत्र त्रिपोलितानिया, सिरेनाइका, फेज्जान अपनी-अपनी सरकार रखेंगे. पर 1963 में फ़ेडरल सिस्टम ख़त्म कर दिया गया. इसके बाद सिर्फ एक सरकार रही. केंद्र में. उसके बाद 42 साल तक सत्ता, ताकत और पैसा सिर्फ एक आदमी के हाथ में रहा. कर्नल मुआमार गद्दाफी के हाथ. 2011 में अमेरिका ने हमला कर गद्दाफी को मार डाला. उसके बाद लीबिया में स्थिति बड़ी गंभीर हो गयी है. IS भी अपने लश्कर के साथ पहुंच चुका है. तो इसके इतिहास को दो पार्ट में बांटा जा सकता है: गद्दाफी का वक़्त और गद्दाफी के बाद का वक़्त.




आबादी: 64 लाख राजधानी: त्रिपोली सबसे मशहूर शहर: बेंघाज़ी भाषा: अरबी




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बचपन में केवल कुरान पढ़ा था गद्दाफी ने, राजनीति पर किताब लिखी और चल के सत्ता ली देश की

छः दशक तक राज किया गद्दाफी ने. कोई उनको अद्भुत कहता, कोई अद्भुत क्रूर. जवानी में क्रान्तिकारी हीरो रहे गद्दाफी बुढ़ापे में इंटरनेशनल टेररिस्ट के रूप में नज़र आये. गद्दाफी ने शुरुआत की प्लेटो और मार्क्स की थ्योरी पढ़ कर. फिर अपने बेधड़क स्पीच, रंगीन कपड़े और तड़क-भड़क के लिए जाने गए. अरब देशों के साथ वेस्ट में भी इसकी खूब चर्चा रहती. इनको मिडिल ईस्ट पॉलिटिक्स का पिकासो भी कहा गया था. इस्लाम और अफ्रीका यानी धर्म और क्षेत्र दोनों की लड़ाई लड़ी गद्दाफी ने.



1969 में जवान गद्दाफी आर्मी में कर्नल थे. एकदम से चलते हुए सत्ता हासिल कर ली. किसी की पॉलिटिक्स में दम नहीं था जो इनके सामने आता.


 
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पचास के दशक में लीबिया में तेल खोजा गया था. पर इन तेल के कुओं पर विदेशी कंपनियों का अधिकार था. वो अपने मन से इनके दाम तय करतीं. गद्दाफी ने उनको सीधा करने की धमकी दी. तो उन्होंने कहा कि हम प्रोडक्शन बंद कर देंगे. गद्दाफी का ऐतिहासिक जवाब था: पांच हज़ार साल से लोग बिना तेल के रह रहे थे. कुछ साल और भी रह लेंगे. कोई दिक्कत नहीं है. 1942 में जन्मे गद्दाफी ने बचपन में कुरान के अलावा कुछ और नहीं पढ़ा था, पर दिमाग बहुत तेज चलता था.
और ये धमकी काम कर गयी. लीबिया पहला ऐसा देश बना, जिसका अपने तेल पर पूरा अधिकार बना. इसके बाद ही अरब देशों ने इस चीज को अपनाया. और सबके पास पैसा आने लगा. विदेशी चंगुल से तेल फिसल गया. विदेशी मतलब अमेरिका और वेस्ट यूरोप. अब लीबिया खाड़ी देशों के बराबर तेल पैदा करने लगा और अफ्रीका का सबसे धनी देश बन गया.



1970 में एक राजनीतिक दार्शनिक की तरह गद्दाफी ने किताब लिखी: ग्रीन बुक. इसमें प्लेटो से लेकर मार्क्स सबकी बातें थीं. एक थ्योरी भी दी: Third Universal Theory. इसमें कहा गया कि कैपिटलिज़म और कम्युनिज़म के बीच का रास्ता है जो सबको प्रगति के रास्ते ले जायेगा.


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BBC

सारे कानून बदले, फिर दुनिया को भी सिखाने चले ग्रीन बुक की बातें

पर इसमें ये भी लिखा था कि 'चुनाव' मेजॉरिटी पार्टी की तानाशाही होता है. और इस सिस्टम से कुछ नहीं होने वाला. गद्दाफी के मुताबिक गद्दाफी सबसे ऊपर रहें और उनके हिसाब से बाकी लोग भी अपनी पोजीशन में रहें तो कुछ हो सकता है. विडम्बना ये है कि गद्दाफी ने इसको जम्हूरिया कहा मतलब लोगों का शासन. जिस ग्रीन बुक में स्वतंत्रता की बात की गद्दाफी ने, उसी को आधार बनाकर तानाशाही की लीबिया में.
उसके बाद अपनी बातों को सही साबित करने के लिए सारे कानून बदल दिए गए. अब किसी को सरकारी तरीके से मारना बड़ा आसान हो गया था. जरा सी बात पर फांसी और देश-निकाला आसान हो गया. बहुत से मेधावी लोग देश छोड़कर भाग गए.
फिर दुनिया की नज़रों में भी अपनी थ्योरी को सही साबित करने की धुन थी. इसके लिए गद्दाफी ने हर संभव कोशिश की. जहां तक हो सका, हर मिलिटेंट ग्रुप को पैसा दिया. चुनाव वाला सिस्टम नहीं होना चाहिए. प्रगति के पथ पर चलना है, तो गद्दाफी की बात माननी पड़ेगी. लीबिया से भागे लोगों को मरवाने के लिए भी इन्हीं ग्रुप्स का सहारा लिया जाता था.

पर पंगा ले लिया अमेरिका से, अब जो उनका दुश्मन वो दुनिया का दुश्मन




1986 में बर्लिन में एक नाइट क्लब को बम से उड़ा दिया गया. ये क्लब अमेरिकी फौजियों के लिए था. इसका आरोप लीबिया के एजेंटों पर मढ़ा गया. और यहां से गद्दाफी दुनिया की नज़रों में आ गए. अपनी थ्योरी के चलते नहीं, बल्कि अमेरिका की थ्योरी के चलते. जो अमेरिका का दुश्मन, वो दुनिया का दुश्मन.


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अमेरिका के राष्ट्रपति ने गद्दाफी को 'पागल कुत्ता' कहा. और आदेश दिया कि इसे ढूंढकर मार दिया जाये. लीबिया की राजधानी त्रिपोली और शहर बेंघाज़ी पर हमले हो गए. पर जानकार बताते हैं कि लीबिया पर आरोप का कोई प्रूफ नहीं था. ये बस मुंहामुंही की बात थी. असल बात तो तेल की थी. गद्दाफी की एक बेटी हमले में मारी गई, पर ग्रीन बुक का लेखक बच गया.



1988 में यूनाइटेड किंगडम में Pan-Am flight 103 को बम से उड़ा दिया गया. 270 लोग मरे. ब्रिटेन में इतना बड़ा आतंकवादी हमला कभी नहीं हुआ था. दो लीबियाई आरोपी थे पर गद्दाफी ने उनको देश से नहीं भेजा. बहुत प्रेशर डालने के बाद 1999 में वो दोनों इंग्लैंड के हवाले किये गए.


फिर अमेरिका ने इराक पर हमला कर दिया. इसके साथ ही प्रेसिडेंट बुश ने ऐलान कर दिया कि अब दुनिया में तानाशाहों की खैर नहीं, अब हर जगह डेमोक्रेसी ही आएगी. इस चीज का सामना करने के लिए गद्दाफी अपने पास एटम बम होने की धमकी देने लगे. फिर कहा कि मैं तो ऐसे ही कह रहा था. वेस्ट ने ये मान लिया कि गद्दाफी सद्दाम का हश्र देख चुके हैं. सुधर जायेंगे. गद्दाफी ने भी अपना ध्यान खाड़ी देशों में लगा दिया. वहां कांड करते रहते. कभी सिगरेट पी कर सामने वाले के मुंह पर धुआं छोड़ देते. कभी खुद को राजाओं का राजा बताते. भाषण देते तो चुप ही नहीं होते.

डेमोक्रेसी की मांग पर 'बड़े भाई' बनकर आये गद्दाफी, पर जनता ज्यादा चालू थी

2010 में अफ़्रीकी देश ट्यूनीशिया में डेमोक्रेसी को लेकर आन्दोलन शुरू हुआ. इससे अरब देशों के तानाशाह घबरा गए. कि अब किसका नंबर आएगा. पर गद्दाफी निश्चिन्त थे. देश का पैसा अपने हाथ में रखे थे. खुद तो बेशुमार दौलत इकट्ठा किये थे पर जनता में भी काफी पैसा दिया था. किसी और को बटोरने नहीं दिया था. फिर एक Great Man-Made River Project भी बनवाया था. ये बहुत बड़ा प्रोजेक्ट था. उस गरम इलाके में ताजा शुद्ध पानी का. जनता को पसंद भी आया था.
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पर वो दिन भी आया, जब लीबिया में भी लोग ग्रीन बुक के पन्ने फाड़ने लगे. गद्दाफी ने पहले कहा कि अगर जनता ऐसा चाहती है तो मैं इस विद्रोह में उनका बड़ा भाई बनूंगा. पर तुरंत ही वो रूप दिखाया, जो सत्तर के दशक में था. मार-काट होने लगी. ट्यूनीशिया और इजिप्ट में तो आन्दोलन सफल रहा. पर कर्नल के यहां कोई गुंजाइश नहीं थी. जनता में नए जवान थे जिन्होंने नेता के रूप में गद्दाफी के अलावा किसी को देखा ही नहीं था. उनको नया चेहरा चाहिए ही था. क्योंकि सोशल मीडिया पर उन्होंने पूरी दुनिया देख ली थी. पर गद्दाफी अपना चेहरा सबके दिमाग में छपवाना ही चाहते थे.
2011 में अमेरिका ने यूएन से 'परमिशन' लेकर बेंघाज़ी पर हमला कर दिया. गद्दाफी ने ओबामा को बेटा कहकर चिट्ठी भी लिखी. पर सब बेकार हो गया. गद्दाफी एक सुरंग में छुपे मिले. ये नहीं पता चला कि किसने गद्दाफी को मारा, पर मौत हो गयी.
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गद्दाफी के मरने के बाद अमेरिका ने जिम्मेदारी ली. सबको पता है फिर क्या होने वाला था

गद्दाफी के मरने के बाद जून 2014 में लीबिया में चुनाव हुए. जिसमें लिबरल और राष्ट्रवादी पार्टियों ने सबसे ज्यादा सीटें जीतीं. पर वोट देने बहुत कम लोग आये थे. और जो डर था, वही हुआ. हारी हुयी पार्टियों ने इस्लाम के नाम पर सेना बना ली और विद्रोह कर दिया. सरकार गिरा दी गयी.
उसके बाद से लीबिया में कोई भी सेंट्रल गवर्नमेंट नहीं है. इसके साथ ही वहां पर मौका देख ISIS ने अपनी रिक्रूटमेंट ड्राइव शुरू कर दी. फिर साउथ लीबिया में कई तरह के ट्राइब्स रहते हैं. वो भी आपस में झगड़ने लगे. मतलब मार गोली टाइप का. इस खेल के मेन खिलाड़ी ये हैं:

1. लीबियन नेशनल आर्मी

इसके जनरल हैं खलीफा हफ्तार. जो कि आर्मी छोड़ 1990 में अमेरिका के नागरिक बन गए थे. 2011 में वापस आये और सेना बना ली. पूर्वी लीबिया में इनका प्रभुत्व है. थोड़ा बहुत साउथ और पश्चिम में. इनको हर समस्या का समाधान माना जा रहा था. पर कुछ दिन बाद ये ही समस्या बन गए. सबको डर लगने लगा कि ये भी ग्रीन नहीं तो रेड बुक लिख ही देंगे.

2. न्यू जनरल नेशनल कांग्रेस

ये है इस्लामी लड़ाकुओं की पार्टी. इन्होंने ही 2014 में सरकार गिराई थी. राजधानी त्रिपोली और पश्चिम लीबिया में इनका अधिकार है.

3. ISIS

ये लोग पहुंचे हैं गद्दाफी के होमटाउन सिरते में. इनके फाइटर तो हर जगह से आते हैं. एशिया, यूरोप सब जगह इनके प्रेमी हैं. मार खा रहे हैं पर हार नहीं मानते ये लोग. इनसे लड़ाई के नाम पर अमेरिका जब ना तब बम गिराने लगता है. इसमें लीबिया के लोग भी मारे जाते हैं.


जो भी था, गद्दाफी के शासन में देश चल तो रहा था. पर अब तो देश चल ही नहीं रहा. राजनीति चल रही है. अफ्रीका का सबसे धनी देश आग में जल रहा है.


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