आपने कभी सोचा है कि भारत का संविधान जब नवंबर 1949 में ही बनकर तैयार हो गया था तो उसे 26 जनवरी 1950 को लागू क्यों किया गया? दरअसल 26 जनवरी की तारीख भारत की आजादी की लड़ाई में बहुत ख़ास थी. 1929 में इसी दिन लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज की घोषणा की थी. संविधान सभा के लोग इसी दिन को यादगार बनाना चाहते थे, इसलिए इसे गणतंत्र दिवस के रूप में चुना गया.
महामहिम : जब नेहरू को अपने एक झूठ की वजह से शर्मिंदा होना पड़ा
नेहरू नहीं चाहते थे, राजेंद्र प्रसाद बनें देश के राष्ट्रपति

एक आदमी इस दिन को चुने जाने से खुश नहीं था. वो थे राजेंद्र प्रसाद. वो परंपरावादी हिंदू थे और उनके मुताबिक ये दिन ज्योतिष के हिसाब से ठीक नहीं था. पंडित नेहरू आधुनिक खयाल वाले नेता थे, जिनके लिए ज्योतिष शास्त्र कोई ख़ास महत्व नहीं रखता था. अंत में ना चाहते हुए भी राजेंद्र प्रसाद ने 26 जनवरी, 1950 को 10 बज कर 24 मिनट पर अश्विन नक्षत्र में राष्ट्रपति पद की शपथ ली. साल भर से चल रही वैचारिक लड़ाई में ये नेहरू के लिए सांत्वना पुरस्कार था. वो ये जंग काफी पहले हार चुके थे. राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाने की जंग.

नेहरू और राजगोपालाचारी
1949 के मध्य में जब संविधान बनने की प्रक्रिया अपने आखिरी दौर में थी, नए लोकतंत्र के राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर सरगर्मी तेज हो गई. नेहरू का विचार था कि राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति होना चाहिए. एक तो वो पहले से गवर्नर जनरल के तौर पर काम कर रहे थे. उन्हें राष्ट्रपति बनाने के लिए महज टाइटल में बदलाव करना था. दूसरा राजगोपालाचारी की 'सेक्युलरिज्म' पर समझदारी नेहरू से मेल खाती थी. वहीं कांग्रेस के कई नेता राजाजी को इसलिए स्वीकार करने को तैयार नहीं थे क्योंकि उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन को बीच में छोड़ दिया था. जून 1949 में ब्लिट्ज में इस बाबत खबर छपी-
"राजाजी के समर्थकों का तर्क है कि राजेंद्र प्रसाद का स्वास्थ्य इतने मेहनत भरे काम की गवाही नहीं देता. वहीं कांग्रेस के कई नेता राजाजी को उनके अतीत की वजह से स्वीकार नहीं करना चाह रहे हैं."
जब नेहरू का झूठ पकड़ा गया! नेहरू उनके चुनाव के प्रति इतने उतावले थे कि इसके लिए उन्होंने झूठ बोलने से गुरेज नहीं किया. पूर्व इंटेलिजेंस अफसर रहे आरएनपी सिंह अपनी किताब "नेहरू ए ट्रबल्ड लेगेसी" में उस वाकये का जिक्र करते हैं. हुआ ये था कि 10 सितम्बर, 1949 को नेहरू ने प्रसाद को एक खत लिखा. इस खत का मजमून ये था कि उन्होंने सरदार पटेल से नए राष्ट्रपति के बारे में बात की. इस बातचीत में ये तय हुआ कि राजाजी को ही राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए.
राजेंद्र प्रसाद को सरदार पटेल का ये विचार हजम नहीं हुआ और उन्होंने इस बारे में पता करने की कोशिश की. अगले दिन उन्होंने नेहरू को जवाबी खत लिखा. जिसमें उन्होंने नेहरू को इस बात के लिए काफी खरी-खोटी सुनाई. उन्होंने साफ़ कहा कि पार्टी में उनकी हैसियत का खयाल रखते हुए उनके साथ बेहतर बर्ताव किया जाना चाहिए. उन्होंने इस खत की एक कॉपी सरदार पटेल को भी भेज दी.

पटेल को गृहमंत्री पद की शपथ दिलवाते राजेंद्र प्रसाद
जब ये खत नेहरू की टेबल पर आया, तो उन्हें समझ में आ गया कि वो इस मामले में बंद गली में फंस चुके हैं. उन्होंने आधी रात तक बैठकर अपनी सफाई तैयार की. अपने जवाबी खत में उन्होंने लिखा-
"जो भी मैंने लिखा था, उससे वल्लभभाई का कोई लेना-देना नहीं है. मैंने अपने अनुमान के आधार पर वो बात लिखी थी. वल्लभभाई को इस बारे में कुछ भी पता नहीं है."
आखिर नेहरू क्यों चाहते थे कि राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति ना बनें? दरअसल कांग्रेस उस समय कई विचारधाराओं वाला संगठन हुआ करता था. उस समय लड़ाई ये चल रही थी कि आखिर कौन सी विचारधारा कांग्रेस की आधिकारिक विचारधारा होगी. नेहरू पश्चिम में पढ़े-लिखे थे. उनके खयालात उस वक़्त के मुताबिक काफी खुले थे. वो समाजवाद के समर्थक थे. रूस की प्रगति से प्रभावित थे. वो राजनीति में धर्म का किसी भी किस्म का हस्तक्षेप नहीं चाहते थे. राजेंद्र प्रसाद नेहरू के इस खांचे में फिट नहीं बैठते थे.
अगली कड़ी में पढ़िए किस्सा उस खत का जो राजेंद्र प्रसाद ने बड़े गुस्से में लिखा था. इस खत को पहुंचना था पंडित नेहरू के पते पर, लेकिन एक नेता की सलाह पर यह खत राजेंद्र प्रसाद की जेब में धरा रह गया.
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