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जिंदगी को तीन घंटे का शो बताने वाले राज कपूर का सपना क्या था?

शोमैन राजकपूर का निधन आज के दिन ही 1988 में हुआ था.

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फोटो - thelallantop

आज जब राज कपूर की अंतिम यादें भी दो दशकों से अधिक पुरानी हो चुकी हैं. ये उस पीढ़ी का समय चल रहा है जो उन्हें बस तस्वीरों में ही देख पायी है. जिनके लिए उनकी फ़िल्में 'बहुत पुरानी' फिल्मों की श्रेणी में आ चुकी हैं. लेकिन फिर भी ऐसा लगता है जैसे राज कपूर का समय आज भी हमारे समांतर चल रहा है. हो सकता है हम में से अधिकतर ने उनकी कोई फिल्म ही न देखी हो. लेकिन उस ज़माने के आम आदमी पर राज कपूर के किरदारों का क्या जादू रहा होगा, ये अंदाज़ा लगाना हमारे लिए भी कोई बड़ी बात नहीं है.

सिनेमा, इतिहास और राजनीति के समागम के बीच घूमते- फिरते हम अक्सर राज कपूर की सार्वजनिक छवि से टकरा जाते हैं. घुमंतू लोग, चार्ली चैप्लिन और रूस, कुछ ऐसी ही बातें हैं जिनका ज़िक्र आते ही राज कपूर का नाम लेना ज़रूरी हो जाता है. तब हम देख पाते हैं कि इस पीढ़ी के सामने उन्हें जानने के लिए उनकी फिल्मों से आगे भी बहुत कुछ है.

राज कपूर को भारत का चार्ली कहा जाता है. अगर चार्ली और राज कपूर के घुमक्कड़, दूसरों से ज़्यादा खुद पर हंसने वाले और सब कुछ बेच देने वाली दुनिया के बीच ख़रीद-फ़रोख्त से ही मुंह मोड़ लेने वाले किरदारों को विश्व-युद्ध और शीत-युद्ध से जोड़कर देखें तो इनकी कितनी ही परतें सामने आती जाती हैं. और तब हम उनकी अंतरराष्ट्रीय लोकप्रियता के कारण समझ पाते हैं.

इतिहास से पलटकर कुछ सवाल पूछें. वो समय जहां देशों के लिए बढ़ते वैश्विक दबावों के जवाब में इंडस्ट्री और व्यापार बढ़ाने और एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ का था, तो वही समय आम लोगों के लिए तेज़ी से बदलते समाज में खाने-पहनने और पहचान बनाने की चुनौतियों का था. शीत युद्ध के दौर में दुनिया जब दो खेमे में बंट चुकी थी, तब एक तरफ़ पश्चिमी पूंजीवाद की भव्य, सुविधा संपन्न जीवनशैली थी. और दूसरी ओर रूस का आदर्शवादी समाजवाद. अौर इन दोनों के बीच भारत और उसके जैसे 'तीसरी दुनिया' के देशों पर भारी संकट मंडराने लगा था.

चार्ली यूँ तो रहते पश्चिम में थे लेकिन रूस के कारखानों के मजदूरों के बहुत प्रिय थे. यही मजदूर रूस की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा थे. पश्चिम में रहते हुए भी चार्ली वहां की मशीनी ज़िन्दगी का मज़ाक उड़ाते हुए दिख जाते थे. इसके अलावा चार्ली रूस-अमेरिकी दोस्ती के समर्थक थे. जब रूस की सरकार ने औद्योगीकरण और भौतिक गुणवत्ता पर ज़ोर देना शुरू किया, तो गांवों से शहर आए मजदूरों को चार्ली की फिल्मों में शहरी-बाज़ारी दुनिया से एक पलायन मिला. 'मॉडर्न टाइम्स' के बेतुके मशीनों में उलझे, गिरते-पड़ते और ख़ुद पर हँसते चार्ली में उन्होंने खुद को वो करते देखा जो वो शायद कभी वे सचमुच में करना चाहते थे. चार्ली पर पश्चिम में अक्सर साम्यवादी (कम्युनिस्ट) होने का आरोप लगाया जाता रहा, और अंत में उन्हें अमेरिका से देश निकाला दे दिया गया.

https://www.youtube.com/watch?v=tfw0KapQ3qw

राज कपूर का राजनीतिक झुकाव सीधे तौर पर समाजवादी नहीं था लेकिन उनके स्क्रिप्ट राइटर, फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास पक्के समाजवादी और सोवियत रूस के समर्थक थे. इसका असर राज कपूर की फ़िल्मों की पटकथा अौर संवादों में दिखता था. फ़िल्म 'श्री 420' के एक सीन में वे सड़क पर सोने के अधिकार की जिद करते हैं और कहते हैं कि "एक दिन गरीब आदमी का राज आ जाएगा". इसके अलावा शैलेन्द्र के लिखे गीतों ने भी राज कपूर की फिल्मों को एक समाजवादी चेहरा दिया. 'श्री 420' में ही उनका लिखा गीत 'दिल का हाल सुने दिलवाला' देखिएगा, जहां वो लिखते हैं, "ग़म से अभी आज़ाद नहीं मैं, खुश हूं मगर आबाद नहीं मैं, मंजिल मेरे पास खड़ी है, पांव में लेकिन बेड़ी पड़ी है, टांग अड़ाता है दौलतवाला". इसके साथ अभिनेता राज कपूर का अपनी नायकीय भूमिकाअों में चार्ली चैप्लिन के मशहूर किरदार 'ट्रैंप' को उठाकर उसकी भारतीय संदर्भो में पुन:रचना करना इस कड़ी में तुरुप का पत्ता साबित हुआ.

राज कपूर और चार्ली चैप्लिन, दोनों ही दर्शकों को दो भिन्न स्तर पर प्रभावित करते थे. एक तो स्थानीय संस्कृति और दूसरे एक सामान्य, वैश्विक स्तर पर. विश्व युद्ध और बढ़ते भौतिकवाद के बीच चैप्लिन और राज कपूर, दोनों ही लोगों को अपनी और अपने जैसे लोगों की स्थिति पर हंसने का मौका देते थे. उन्हें दुनिया की खींचतान और चालाकियों से दूर एक ऐसे आदमी में राहत और उम्मीद दिलाते थे जो दुनिया से बेखबर है, फिर भी अपनी बेवकूफियों पर हंस कर इस समाज का मज़ाक उड़ाता है.

https://www.youtube.com/watch?v=VY1pWTek2sY

राज कपूर की 'मेरा नाम जोकर' भी चार्ली चैप्लिन की पचास के दशक की शुरुआत में बनाई फिल्म 'लाइमलाइट' से प्रभावित है. यहां ये भी याद रखना चाहिए कि 'लाइमलाइट' वही फिल्म थी जिसकी रिलीज़ से पहले चार्ली को 'कम्युनिस्ट' बताकर अमेरिका में घुसने से रोक दिया गया था अौर कई अमेरिकन थियेटर्स ने उनकी फिल्म चलाने से इनकार कर दिया था. शायद इस कहानी की किस्मत में अपने नायक की तरह दुख भरे संघर्ष ही बदे थे. 'मेरा नाम जोकर' भी एक ऐसे जोकर की संवेदनशील कहानी है जो अपने ग़म को दिल में छुपाकर दूसरों को हंसाता है. अौर 'मेरा नाम जोकर' का भी बॉक्स अॉफिस पर हश्र बुरा हुआ. इसी तरह चैप्लिन की 'दी ट्रैंप' से प्रेरित 'आवारा' भी बाहर से शहर में आये लड़के राजू की कहानी है. इन कहानियों के माध्यम से राज कपूर सामाजिक और आर्थिक दुनिया के एक छोर पर टिके पिछड़े लोगों और दूसरे छोर पर स्थापित उच्च वर्ग के आपसी संबंधों को सामने लाते हैं. राज कपूर भारतीय और रुसी लोगों को वही उम्मीद और मुस्कराहट देते थे जो उन्हें चैप्लिन से मिलती थी.


यह स्टोरी ‘दी लल्लनटॉप’ के साथ इंटर्नशिप कर रही पारुल तिवारी ने लिखी है.


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