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रघुवंश प्रसाद सिंह, जिसने भूजा खाकर रात बिताई और बन गया केंद्र सरकार का मंत्री

एक जोड़ी कपड़े और गमछे के साथ शुरू की थी राजनीति.

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रघुवंश प्रसाद सिंह की जनता में जड़े मजबूत हैं. उनके संसदीय क्षेत्र के लोग उन्हें ब्रह्म बाबा कहकर बुलाते हैं

साल 1974. आजादी को ढाई दशक बीत चुके थे. आजाद भारत में पैदा हुई पहली पीढ़ी जवान हो रही थी और बेरोजगार भटक रही थी. नौजवान छात्रों का पहला गुस्सा फूटा गुजरात में. अहमदाबाद के एलडी इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों ने दिसंबर 1973 में मेस का बढ़ा हुआ  बिल देने से मना कर दिया. देखते ही देखते छात्रों के इस प्रदर्शन ने 'नवनिर्माण आंदोलन' का रूप ले लिया. आखिरकार गुजरात के मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को कुर्सी छोड़नी पड़ी. गुजरात के इस छात्र आंदोलन को स्नो बॉल इफेक्ट मिला. पूरे देश में छात्र आंदोलन शुरू हो गए. राजनीति छोड़ चुके जयप्रकाश नारायण फिर से आंदोलन में कूदे. 'दूसरी आजादी' और 'संपूर्ण क्रांति' के नारे लगाए जाने लगे. इस बार आंदोलन का गढ़ बना बिहार.

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बिहार के सीतामढ़ी में छात्र आंदोलन जोर पकड़ रहा था. सूबे में अब्दुल गफूर के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी. सीतामढ़ी में छात्रों के आंदोलन के केंद्र में कोई छात्रनेता नहीं, गोयनका कॉलेज में गणित पढ़ाने वाला एक लेक्चरर था. लेक्चरर जो जनपद में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का सचिव भी हुआ करता था. पुलिस ने 1974 की एक सुबह लेक्चरर साहब के घर पर छापा मार दिया. बाहर लोगों का हुजूम लगा हुआ था. लेक्चरर ने कड़ा विरोध दर्ज किया. उन्हें पुलिस के चार सिपाही टांगकर गाड़ी में भरकर लेकर गए. तीन महीने बाद जेल से छूटकर आए तो मकान मालिक सीताराम सिंह ने घर खाली करने के लिए कह दिया. रेलवे लाइन के पास के अपने कमरे को छोड़कर कॉलेज के होस्टल आ गए. छात्रों के बीच. उस समय कुछ किताबें, एक जोड़ी धोती-कुरता और एक गमछे के अलावा संपति के नाम पर कुछ नहीं था. नाम रघुवंश प्रसाद सिंह. कहते हैं कि उस दौर में रघुवंश प्रसाद सिंह की शाम कॉलेज के सामने बनी सहयोगी प्रेस के बाहर बैठकी जमाते बीता करती. भूजा फांकते हुए. उस दौर में रघुवंश प्रसाद के करीबी बताते हैं कि तनख्वाह इतनी भी नहीं थी कि घर पर खर्च भेजने के बाद दोनों समय कायदे से खाना खाया जा सके. सहयोगी प्रेस के सामने फांका गया भूजा ही रात का खाना हुआ करता था. उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि महज चार साल के भीतर यह फक्कड़ लेक्चरर सूबे का मंत्री हो जाएगा.


 कर्पूरी ठाकुर जिनसे रघुवंश ने सियासत का इमला सीखा
कर्पूरी ठाकुर जिनसे रघुवंश ने सियासत का इमला सीखा

1977 में आपातकाल हटा. नए सिरे से चुनाव हुए. इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी दोनों चुनाव हार गए. बिहार की 54 में से 53 सीट जनता पार्टी के घटक भारतीय लोकदल के खाते में गई. सत्ता संभालते ही मोरारजी देसाई ने ऐसे 9 राज्यों की सरकारों को बर्खास्त कर दिया, जहां कांग्रेस की सरकारें थीं. बिहार भी ऐसा ही राज्य था. सूबे में चल रही कांग्रेस की जन्नानाथ मिश्र सरकार को बर्खास्त कर दिया गया. जून 1977 में नए सिरे से चुनाव हुए. सीतामढ़ी के लेक्चरर साहब को भी टिकट मिल गया. सीतामढ़ी की बेलसंड सीट से. सामने थे कांग्रेस के उदय प्रताप सिंह. इसके अलावा तीन और उम्मीदवार ऐसे थे जो क्षत्रिय बिरादरी से आते थे. जातिय गणित का सीधा फायदा हुआ रामचंद्र राय को. जो निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ रहे थे. वो कांग्रेस के उदय प्रताप सिंह को पछाड़ने में कामयाब रहे. लेकिन जनता पार्टी के बैनर तले लामबंद हुआ पिछड़ा वोट बैंक उनपर भारी पड़ा. रघुवंश प्रसाद सिंह छह हजार से ज्यादा वोटों से यह त्रिकोणीय मुकाबला जीतने में कामयाब रहे.

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1977 के बिहार विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी की धमक साफ़ सुनाई दे रही थी. पार्टी को कुल 324 विधानसभाओं में से 214 सीटों पर फतह हासिल हुई. मुख्यमंत्री पद के लिए दो लोगों का नाम सबसे आगे चल रहा था. पहले थे सत्येंद्र नारायण सिंह. सत्येन्द्र नारायण सिंह जनता पार्टी के कांग्रेस (ओ) धड़े से आते थे. दूसरे थे कर्पूरी ठाकुर. जो समाजवादी धड़े से आते थे. जनता पार्टी के कुल 214 विधायकों में से 33 विधायक राजपूत बिरादरी से आते थे. सत्येंद्र नारायण सिंह भी इसी बिरादरी के थे. उनके मुकाबिल कर्पूरी ठाकुर पिछड़ी हज्जाम बिरादरी से आते थे. मुख्यमंत्री चुनने के लिए जब विधायकों की वोटिंग हुई तो 33 में से 17 राजपूत विधायकों ने कर्पूरी ठाकुर के पक्ष में वोट दिया. रघुवंश प्रसाद सिंह भी ऐसे ही विधायकों में से एक थे.


लालू प्रसाद यादव और रघुवंश प्रसाद सिंह.
लालू प्रसाद यादव और रघुवंश प्रसाद सिंह.

कर्पूरी ठाकुर को वोट करने की दो वजहें थी. पहली का सिरा 1959 के साल में ले जाता है. रघुवंश प्रसाद सिंह उस समय कक्षा 9 के विद्यार्थी हुआ करते थे. गणित का ट्यूशन पढ़ने के लिए राम किशोर सिंह के पास जाया करते थे. राम किशोर सिंह लोहिया के समाजवाद के कायल थे. दिमाग की खुराक पूरी करने के लिए तरह-तरह की पत्रिकाएं मंगवाया करते थे. जन, चौखम्भा राज, Man Kind और दिनमान जैसी पत्रिकाएं उनकी पढ़ने की टेबल पर पड़ी रहती थीं. रघुवंश प्रसाद सिंह ये पत्रिकाएं पढ़ते-पढ़ते जवान हो रहे थे. मूंछों की रेख और समाजवाद की समझ एकसाथ उगी. 'पिछड़ा पाए सौ में साठ' का नारा लगाते हुए दर्जनों बार कंठ बैठे थे. ऐसे में जब मुख्यमंत्री पद का चुनाव आया तो स्वाभाविक पसंद कर्पूरी बने. दूसरी वजह थी कॉलेज की पढ़ाई. इसके लिए वो मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह कॉलेज आ गए. यहां समाजवादी छात्रों के गोल में शामिल गए. पीजी होस्टल नंबर-1 में रहा करते थे. यहीं पहली बार कर्पूरी ठाकुर से मुलाकात हुई. सियासत का इमला कर्पूरी ठाकुर ने पढ़ना सिखाया था. कर्पूरी से करीबी उन्हें वोट करने की दूसरी वजह थी. और शायद पहली बार विधायकी जीतने के साथ ही मंत्री बनने की भी. कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें उर्जा महकमे का मंत्री बना दिया.

दो हार और केंद्र की सियासत

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रघुवंश प्रसाद 1977 में पहली मर्तबा विधायक बने थे. बेलसंड से उनकी जीत का सिलसिला 1985 तक चलता रहा. इस बीच 1988 में कर्पूरी ठाकुर का अचानक निधन हो गया. सूबे में जगन्नाथ मिश्र की सरकार थी. लालू प्रसाद यादव कर्पूरी के खाली जूतों पर अपना दावा जता रहे थे. रघुवंश प्रसाद सिंह ने इस गाढ़े समय में लालू का साथ दिया. यहां से लालू और उनके बीच की करीबी शुरू हुई. 1990 में बिहार विधानसभा के लिए चुनाव हुए. रघुवंश प्रसाद सिंह के सामने खड़े थे कांग्रेस के दिग्विजय प्रताप सिंह. रघुवंश प्रसाद सिंह 2,405 के करीबी मार्जिन से चुनाव हार गए. रघुवंश ने इस हार के लिए जनता दल के भीतर के ही कई नेताओं को जिम्मेदार ठहराया. रघुवंश चुनाव हार गए थे लेकिन सूबे में जनता दल चुनाव जीतने में कामयाब रहा. लालू प्रसाद यादव नाटकीय अंदाज में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे. लालू को 1988 में रघुवंश प्रसाद सिंह द्वारा दी गई मदद याद थी. लिहाजा उन्हें विधान परिषद भेज दिया गया. 1995 में लालू मंत्रिमंडल में मंत्री बना दिए गए. ऊर्जा और पुनर्वास का महकमा दिया गया.

1996 के लोकसभा चुनाव में लालू यादव के कहने पर रघुवंश प्रसाद सिंह लोकसभा चुनाव लड़ गए. बिहार के वैशाली से. सामने लड़ रहे थे समता पार्टी के वृषन पटेल. रघुवंश प्रसाद सिंह 62,683 के मार्जिन से चुनाव जीतने में कामयाब रहे. रघुवंश प्रसाद सिंह पटना से दिल्ली आ गए. केंद्र में जनता दल गठबंधन सत्ता में आई. देवेगौड़ा प्रधानमन्त्री बने. रघुवंश बिहार कोटे से केंद्र में राज्य मंत्री बनाए गए. पशु पालन और डेयरी महकमे का स्वतंत्र प्रभार. अप्रैल 1997 में देवेगौड़ा को एक नाटकीय घटनाक्रम में प्रधानमन्त्री की कुर्सी गंवानी पड़ी. इंद्र कुमार गुजराल नए प्रधानमन्त्री बने और रघुवंश प्रसाद सिंह को खाद्य और उपभोक्ता मंत्रालय में भेज दिया गया.


एचडी देवेगौड़ा के खिलाफ पहला चुनाव लड़ा शिवकुमार ने.
एचडी देवेगौड़ा ने रघुवंश प्रसाद सिंह को अपने मंत्रिमंडल में जगह दी थी.

रघुवंश प्रसाद सिंह 1996 में केंद्र की राजनीति में आ चुके थे लेकिन उन्हें असली पहचान मिली 1999 से 2004 के बीच. इसकी वजह थी एक चुनावी हार. बिहार की राजनीति में एक मुहावरा प्रचलित है. 'रोम पोप का और मधेपुरा गोप का.' 1999 के लोकसभा चुनाव में यहां से दो हैवीवेट गोप चुनाव लड़ रहे थे. पहले थे शरद यादव और दूसरे थे लालू प्रसाद यादव. बिहार की सबसे चर्चित सीट. मुकाबला गया शरद यादव के पक्ष में. लालू प्रसाद यादव को 30,320 वोट से हार का सामना करना पड़ा.

1999 में जब लालू प्रसाद यादव हार गए तो रघुवंश प्रसाद को दिल्ली में राष्ट्रीय जनता दल के संसदीय दल का अध्यक्ष बनाया गया. केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी. रघुवंश प्रसाद सिंह विपक्ष की बेंच पर बैठे थे. एक दिन संसद की कार्यवाही में जाते हुए रघुवंश प्रसाद सिंह को सत्ता पक्ष के अरुण जेटली ने रोक लिया. मुस्कुराते हुए बोले-


'तो कैसा चल रहा है वन मैन ऑपोजिशन?'

रघुवंश प्रसाद सिंह को समझ में नहीं आया. रघुवंश के मुंह पर अनभिज्ञता के भाव देखते हुए अरुण जेटली ने उस दिन का हिन्दुस्तान टाइम्स खिसका दिया. अखबार में चार कॉलम में रघुवंश प्रसाद की प्रोफाइल छपी थी. इसका शीर्षक था, "वन मैन ऑपोजिशन." 1999 से 2004 के रघुवंश प्रसाद संसद के सबसे सक्रिय सदस्यों में से एक थे. उन्होंने एक दिन मेंकम से कम 4 और अधिकतम 9 मुद्दों पर अपनी पार्टी की राय रखी थी. यह एक किस्म का रिकॉर्ड था. संसद में गणित के इस प्रोफ़ेसर के तार्किक भाषणों ने उन्हें नई पहचान दिलवाई. उस दौर में सत्ता पक्ष के सांसद यह कहते पाए जाते थे कि विपक्ष की नेता भले ही सोनिया गांधी हों, लेकिन सरकार को घेरने में रघुवंश प्रसाद सिंह सबसे आगे रहते हैं.

एक योजना जिसने कांग्रेस को फिर से सत्ता दिलाई

2004 का साल शाइनिंग इंडिया के नारे के औंधे मुंह गिरने का साल था. केंद्र में कांग्रेस की वापसी हुई. विदेशी मूल के सवाल पर बवाल होने के बाद सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकरा दी. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाया गया. लेकिन सत्ता का असल केंद्र रहीं सोनिया गांधी ही. सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सलाहकार समिति बनी. इसमें देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं को शामिल किया गया. इस समिति को समानान्तर कैबिनेट कहा जाने लगा. राष्ट्रीय सलाहकार समिति ने अपनी पहली ही मीटिंग में रोजगार गारंटी कानून बनाने का प्रस्ताव पास किया. कानून बनाने की जिम्मेदारी दी गई श्रम मंत्रालय को. श्रम मंत्रालय ने छह महीने में हाथ खड़े कर दिए. बाद में यह कानून बनाने का जिम्मा सौंपा गया ग्रामीण विकास मंत्रालय को.


1999 में लालू मधेपुरा सीट से चुनाव हार गए
1999 में लालू मधेपुरा सीट से चुनाव हार गए

2004 के लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल 22 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही थी और यूपीए में कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी थी. इस लिहाज से उसके खाते में दो कैबिनेट मंत्रालय आए. पहला रेल मंत्रलय जिसका जिम्मा लालू प्रसाद यादव के पास था. दूसरा ग्रामीण विकास मंत्रालय जिसका जिम्मा रघुवंश प्रसाद सिंह के पास आया. रघुवंश प्रसाद सिंह ने इस कानून को बनवाने और पास करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस समय मंत्रिमंडल के कई सदस्य उनके खिलाफ खड़े थे. खास तौर पर पी. चिदंबरम और प्रणब मुखर्जी इसे सरकार पर बोझ बढ़ाने वाला कह रहे थे. ऐसे में रघुवंश प्रसाद सिंह को इस कानून के लिए मंत्रिमंडल के भीतर लंबी जिरह करनी पड़ी. कानून पास होने के बाद भी यह तकरार चलती रही. मंत्रिमंडल के उनके कई सहयोगी चाहते थे कि शुरुआत में इसे महज 50 पिछड़े जिलों में लागू किया जाए. लेकिन रघुवंश प्रसाद सिंह अड़े रहे.आखिरकार एक साल के भीतर रघुवंश प्रसाद इसे आलमीजामा पहनाने में कामयाब रहे. 2 फरवरी, 2006 के रोज देश के 200 पिछड़े जिलों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना लागू की गई. 2008 तक यह भारत के सभी जिलों में लागू की जा चुकी थी.

2009 के चुनाव में कांग्रेस अपनी सत्ता बचाने में कामयाब रही. उस समय राजनीतिक विश्लेषकों ने इस जीत की दो बड़ी वजहें बताई थीं. पहला किसानों की कर्जा माफ़ी और दूसरा मनरेगा. लेकिन जिस योजना ने कांग्रेस के सत्ता में वापसी सुनिश्चित की उसका श्रेय ना तो प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह को मिला और ना ही रघुवंश प्रसाद को. संजय बारू ने अपनी किताब 'एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर' में श्रेय लेने की होड़ का जिक्र करते हुए लिखा है-


"पार्टी चाहती है कि मनरेगा का पूरा क्रेडिट राहुल गांधी को दिया जाए. लेकिन आप और रघुवंश प्रसाद सिंह इसके असली हकदार हैं. मैंने कहा.

"मुझे कोई क्रेडिट नहीं चाहिए." डॉ. सिंह ने जवाब दिया. उनका चेहरा अब भी गुस्से से लाल था. "

2009 के लोकसभा चुनाव से पहले राष्ट्रीय जनता पार्टी कांग्रेस गठबंधन से अलग हो गई. बिहार में दोनों पार्टी आमने-सामने थीं. रघुवंश प्रसाद सिंह ने पार्टी सुप्रीमों लालू प्रसाद यादव के इस कदम का विरोध किया. लेकिन उस समय लालू ने उनकी नहीं सुनी. इसका घाटा राजद को उठाना पड़ा. बिहार में राजद की सीट 22 से घटकर 4 पर पहुंच गई. 2009 में लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद आरजेडी ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन दिया. सूत्र बताते हैं कि मनमोहन सिंह रघुवंश प्रसाद सिंह को फिर से ग्रामीण विकास मंत्रालय देने के लिए अड़े हुए थे. लेकिन आरजेडी ने सरकार में शामिल होने के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया. कहते हैं कि कांग्रेस आलाकमान के इशारे पर बिहार कांग्रेस के एक नेता को रघुवंश के पास भेजा गया. रघुवंश के सामने कांग्रेस जॉइन करने का प्रस्ताव रखा गया, लेकिन रघुवंश बाबू ने प्रस्ताव खारिज़ कर दिया.


रघुवंश प्रसाद सिंह को 2014 में लगातार पांच जीत के बाद हार का सामना करना पड़ा.
रघुवंश प्रसाद सिंह को 2014 में लगातार पांच जीत के बाद हार का सामना करना पड़ा.

2014 के लोकसभा चुनाव में रघुवंश प्रसाद सिंह वैशाली में त्रिकोणीय मुकाबले में घिर गए. 2009 में रघुवंश प्रसाद सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले विजय शुक्ला जेल में थे और उनकी पत्नी अनु शुक्ला बतौर निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में उतर गईं. जेडीयू ने मल्लाह समुदाय से आने वाले विजय सहनी को टिकट थमा दिया. वैशाली संसदीय क्षेत्र में मल्लाह परम्परागत तौर पर आरजेडी के समर्थक माने जाते थे. विजय सहनी की एंट्री ने मुकाबले को नया मोड़ दे दिया. पूरे मुकाबले में डार्कहॉर्स की तरह उभरे लोक जनशक्ति पार्टी के रामकिशोर सिंह. इस चुनाव में एलजेपी बीजेपी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रही थी. मोदी लहर ने भी उनका भरपूर साथ दिया. रामकिशोर सिंह 99,267 वोट से यह चुनाव जीतने में कामयाब रहे. रघुवंश प्रसाद सिंह को लगातार पांच जीत के बाद हार का सामना करना पड़ा.




राजस्थान का वो सीएम जिसका सीधा संबंध महाराणा प्रताप से था

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