
पहली और दूसरी किस्त में आपने छोटे से बच्चे की रेडियो के लिए शुरुआती दीवानगी पढ़ी. अब पढ़िए कि रेडियो की बैटरी महीनों तक चलाने के लिए उसे कैसे कंजूसी करनी पड़ती थी.
पहली और दूसरी किस्त में आपने छोटे से बच्चे की रेडियो के लिए शुरुआती दीवानगी पढ़ी. अब पढ़िए कि रेडियो की बैटरी महीनों तक चलाने के लिए उसे कैसे कंजूसी करनी पड़ती थी.
और हां एक बात तो मैं बताना ही भूल गया, चूनावढ में बिजली नहीं थी. आप सोच रहे होंगे कि फिर रेडियो कैसे बजता था? आपका सोचना सही है, उस वक्त तक ट्रांजिस्टर का आविष्कार भी नहीं हुआ था. कार में जो बैटरी लगती है, उस से थोड़ी छोटी EVEREADY की लाल रंग की एक बैटरी आया करती थी, जिसमें रेडियो का प्लग लगाया जाता था और लगभग 15 फीट लंबा जालीदार एरियल रेडियो से जोड़ दिया जाता था तब जाकर बजता था रेडियो.हर शाम मस्जिद यानि दफ्तर के आंगन में गांव के लोग इकठ्ठे होते थे और उन्हें रेडियो पर समाचार, संगीत और खेती बाडी के कार्यक्रम सुनवाए जाते थे. बाकी वक्त वैसे तो वो रेडियो हमारी पहुंच में रहता था. हम जब चाहे उसे बजा सकते थे मगर सबसे बड़ी दिक्कत थी बैटरी, जो कि श्री गंगानगर से लानी पड़ती थी. हमें उस बैटरी को 6 महीने चलाना होता था. इसलिए रेडियो सुनने में बहुत कंजूसी बरतनी पड़ती थी. पूरे गांव में उसी तरह का एक और रेडियो मौजूद था और वो था पिताजी के ही एक मित्र जोधा राम चाचा के घर में. कभी कभी हम वहां जाकर भी रेडियो सुनते थे. मगर वहां दिक्कत ये होती थी कि चाचा सीलोन लगाते थे और उनका बेटा तुरंत विविध भारती की तरफ सुई घुमा देता था जो कि उन दिनों शुरू हुआ ही था. फिर जैसे ही चाचा का बस चलता, वो फिर सीलोन लगा दिया करते थे. इस तरह दिन भर रेडियो की सुई, सीलोन और विविध भारती के बीच घूमती रहती थी.
ग्रामोफोन हालांकि बैटरी से नहीं चलता था, उसमें थोड़ी थोड़ी देर में चाबी भरनी पड़ती थी मगर आज से 15-20 साल पहले के रिकॉर्ड प्लेयर की तरह उसमें डायमंड की नीडल नहीं लगी होती थी. उसमें मैटल की सुई लगती थी और एक सुई से बस दो रिकॉर्ड ही बज पाते थे. हर दो रिकॉर्ड के बाद घिसी हुई सुई को हटा कर नई सुई लगानी पड़ती थी. यहाँ भी वहीं संकट था, सुइयां खत्म हो गईं तो जब तक पिताजी श्री गंगानगर जाकर सुई की डिब्बियां नहीं लायेंगे तब तक ग्रामोफोन बंद. बड़ी किफायतशारी से काम लेते हुए हम लोग बारी बारी से अपनी पसंद के गाने सुना करते थे.विविध भारती के अपने 12 बरस के कार्यकाल में जब भी मैं भूले बिसरे गीत सुना करता था, चूनावढ की ये तस्वीरें हर बार ज़िंदा होकर मेरे सामने आ खड़ी होती थीं और मैं आंखें बंद कर उसी वक्त में पहुँच जाता था. बीच के 45-50 बरस एक लम्हे में न जाने कहां गायब हो जाते थे. चूनावढ के दिनों में मुझे जूथिका रॉय का गाया मीरा का भजन “घूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे”बहुत पसंद था. https://www.youtube.com/watch?v=vVdt6Hjus3A मुझे जब भी अकेले ग्रामोफोन बजाने का मौक़ा मिलता था. मैं ये भजन सुनता और रिकॉर्ड के साथ गुनगुनाया करता था. पता नहीं सुर में गाता था या बेसुरा मगर एक रोज मैं रिकॉर्ड चलाकर उसके साथ यही भजन गा रहा था कि पिताजी कमरे में घुसने लगे, मुझे गाते सुनकर वो दरवाज़े के बाहर ही रुक गए. रिकॉर्ड खत्म होने लगा तो वो अंदर आये.... मैं एकदम हडबडा गया... मेरी उम्र छह साल रही होगी उस वक्त. मुझे लगा अब शायद डांट पड़ेगी, मगर पिताजी ने बहुत प्यार से मुझे पूछा “तुम गा रहे थे?”
मैंने डरते डरते हां में सर हिलाया. इस पर वो बोले “डर क्यों रहे हो? ये तो अच्छी बात है.” मेरी जान में जान आई. पिताजी थोडा बहुत हारमोनियम बजा लिया करते थे. कुछ ही दिन बाद उन्होंने एक हारमोनियम का इंतजाम किया और मुझे गाने का अभ्यास करवाने लगे.............मेरा गाने का ये सिलसिला कॉलेज में पहुंचा तब तक जारी रहा. आप पूछेंगे, “क्या उसके बाद ये सिलसिला रुक गया?” जी हाँ, उसके बाद मैंने गाना बंद कर दिया. क्यों बंद कर दिया मैंने गाना... इसका ज़िक्र मैं आगे चलकर करूंगा.हां तो मैं बता रहा था कि जुथिका रॉय का गाया मीरा का भजन मुझे बहुत प्रिय था.... सही पूछिए तो उसवक्त मुझे ये लगता था कि जो कलाकार ये भजन गा रही हैं वही मीरा हैं. चार साल पहले की बात है. मैं विविध भारती का प्रमुख था. एक रोज यही भजन विविध भारती से प्रसारित हो रहा था. मैं हमेशा की तरह आंखें बंद करके अपने बचपन में पहुंच गया. वही चूनावढ का कच्ची ईंटों का बना कमरा और उसमें बजता वही चाबी वाला ग्रामोफोन. थोड़ी देर में भजन तो ख़त्म हो गया मगर मैं दिन भर चूनावढ के उस कमरे से बाहर नहीं निकल पाया. ऑफिस में भी आंखें बंद किये उन्हीं बचपन की यादों में खोया था कि तभी फोन की घंटी बजी, मानो किसी ने झिन्झोड़कर मेरा सपना तोड़ दिया. मैंने थोडा सा झुंझलाकर फोन उठाया. उधर से किसी सभ्य महिला ने नमस्कार के साथ एक ऐसी बात कही कि मैं उछल पड़ा. वो बोलीं- सर, एक बहुत पुरानी सिंगर कलकत्ता से आई हुई हूं, पता नहीं आपने उनका नाम सुना है या नहीं मगर वो विविध भारती आना चाहती हैं और आप चाहें तो उन्हें रिकॉर्ड भी कर सकते हैं.”
मैंने कहा “विविध भारती में सभी कलाकारों का स्वागत है, मगर नाम तो बताइये उनका.” वो धीरे से बोलीं “ जूथिका रॉय.” मुझे उछलना ही था. खैर, अगले दिन उन्हें विविध भारती में आमंत्रित किया गया....वो जब मेरे सामने आईं तो मैं एक बार फिर चूनावढ के अपने उस कच्चे कमरे में पहुंच गया, अपने बचपन की उंगली थामे ..... मगर इस बार मेरे साथ सिर्फ वो चाबी वाला ग्रामोफोन ही नहीं था... इस बार साक्षात् मीरा मेरे सामने बैठकर हारमोनियम हाथ में लिए गा रही थीं, “घूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे ..........” और मेरी आंखों से दो आंसू टपक गए.