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क्या भारत बासमती के साथ पानी भी 'निर्यात' कर रहा है?

वॉटर करेंसी पर भारी बासमती चावल.

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तस्वीर धान रोपाई की है. जगह- अमृतसर. धान की फसल के साथ एक दिक्कत है. ये पानी बहुत मांगती है. खेती के लिए ज़मीन तैयार करने से लेकर फसल लगाने और चावल तैयार होने तक..पानी ही पानी. इस वजह से पानी की भारी किल्लत पैदा रही है. (फाइल फोटो- PTI)
भारत मिडिल क्लास परिवारों का देश है. और ये परिवार महीने की खरीदारी करते समय अगर पांच किलो सामान्य चावल खरीदता है तो आधा-एक किलो खरीदता है- बासमती. बासमती को चावलों में ‘प्राइम’ माना जाता है. जन्मदिन पर, त्योहारों पर बनता है. महंगा आता भी है. लेकिन ये बासमती आपके कुकर का ही नहीं, बल्कि जमीन के भीतर का भी पानी सोखे ले रहा है. दरअसल, भारत में उगाई जाने वाली प्रमुख फसलों में से एक है- धान. यानी हमारी थालियों में जो चावल परोसा जाता है, उसकी पेरेंट फसल. धान की फसल के साथ एक दिक्कत है. ये पानी बहुत मांगती है. खेती के लिए ज़मीन तैयार करने से लेकर फसल लगाने और चावल तैयार होने तक..पानी ही पानी. बासमती भी इसमें अपवाद तो है नहीं. इसके उत्पादन में भारी मात्रा में पानी लग रहा है और इसका असर भूजल पर पड़ता है. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट की मदद से इस पूरे मामले को समझते हैं.

वॉटर करेंसी पर भारी बासमती

कहा जाता है कि जो हाल अभी तेल का है, वही आगे चलकर पानी का हो सकता है. जब पानी के लिए कटायुद्ध मचेगा. इसलिए पानी को एक करेंसी की तरह खर्च करना चाहिए. जैसे हम पइसा खर्च करते हैं, वैसे. फूंक-फूंककर. बासमती चावल इस वॉटर करेंसी पर भारी पड़ रहा है. इंडिया टुडे की रिपोर्ट का ये हिस्सा पढ़िए.. साल 2014-15 में भारत ने करीब 37.1 लाख टन बासमती चावल का निर्यात किया. लेकिन हम कहते हैं कि भारत ने इसके साथ 10 ट्रिलियन लीटर पानी का भी निर्यात किया. कैसे? दरअसल ये पानी की वह मात्रा है, जो इस 37.1 लाख टन चावल को तैयार करने की पूरी प्रोसेस में इस्तेमाल हुई. ये बात हम तब समझेंगे, जब बासमती चावल के निर्यात की लागत को वॉटर करेंसी के फॉर्म में मापें. हमें बासमती पर एक बड़ी वॉटर करेंसी लगानी पड़ रही है. पानी की उपलब्धता तेजी से कम हो रही है.

निर्यात का ही ज़िक्र क्यों?

पानी का यह ‘अप्रत्यक्ष निर्यात’ घरेलू स्तर पर बोझ बढ़ा रहा है. इस लिहाज से देखें तो बासमती का निर्यात काफी भारी पड़ रहा है. यहां निर्यात का ही ज़िक्र इसलिए किया जा रहा है क्योंकि भारत बासमती का सबसे बड़ा निर्यातक है. दुनियाभर में बासमती के कुल निर्यात में से भारत का शेयर 80 फीसदी से भी ज़्यादा है. मात्रा और कीमत दोनों के लिहाज से. भारत से जितना चावल बाहर देशों में जाता है, उसमें से 37 फीसदी (मात्रा के हिसाब से) बासमती ही होता है. और बासमती का ये निर्यात लगातार बढ़ ही रहा है. 2014-15 से 18-19 के बीच भारत का बासमती निर्यात करीब 19 फीसदी बढ़ा है. ये जानकारी इस साल मार्च में हुए संसद सत्र में वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने दी थी.

पंजाब में जल संकट

बासमती का ये बढ़ता निर्यात पंजाब-हरियाणा पर खास तौर पर भारी पड़ रहा. पंजाब में खेती का कुल रकबा लगभग 7.8 मिलियन हेक्टेयर है. इसमें से लगभग 45 फीसदी में गेहूं और 40 फीसदी में चावल की खेती होती है. इस तरह 85 फीसदी खेती योग्य भूमि में सिर्फ दो फसलें ही पैदा की जाती हैं- धान और गेहूं. चावल की खेती में ज़्यादा पानी लगता है और अंडरग्राउंड वॉटर पर दबाव पड़ता है. सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड (CGWB) के अनुसार, पूरे पंजाब में लगभग 80 फीसदी भूजल का ‘अति-दोहन’ हो रहा है. सबसे ज़्यादा किल्लत मध्य पंजाब में है. यहां प्रति वर्ष 0.74 मीटर से एक मीटर तक की दर से जलस्तर में गिरावट आ रही है. संगरूर, जालंधर, मोगा, कपूरथला, पटियाला, बरनाला और फतेहगढ़ साहिब में हालात सबसे ज्यादा ख़राब हैं. इंडिया टुडे की रिपोर्ट कहती है कि पंजाब में उपलब्ध जल संसाधनों का करीब 90 फीसदी हिस्सा खेती में जा रहा है. बाकी बचा 10 फीसदी राज्य की घरेलू, औद्योगिक और पर्यावरणीय जरूरतों को पूरा कर रहा है. पंजाब में वैसे भी पानी की कमी है. सालाना 60 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की मांग है और सिर्फ 46 बीसीएम पानी उपलब्ध है.

दिक्कतें और भी हैं

1960 से लेकर 2018 के बीच पंजाब में धान का रकबा 20 हजार हेक्टेयर से बढ़कर करीब 30 लाख हेक्टेयर हो गया है. राज्य में इलेक्ट्रिक पंपिंग सेटों की संख्या भी 16 फीसदी बढ़ गई है. इसी टाइम पीरियड में खरीफ की उन फसलों के रकबे में लगातार गिरावट आई है. धान की खेती के सा​थ एक और संकट जुड़ गया है. हर साल 20 हजार से ज्यादा खेतों में पराली जलाने की बात सामने आती है, जिससे पर्यावरण और सेहत के लिए एक और ख़तरा पैदा होता है.

इसका उपाय क्या है?

इसका एक समाधान बताया जाता है- फसल विविधीकरण (crop diversification). पंजाब में खेती को हर लिहाज से बेहतर बनाने के लिए ज़रूरी है कि अगले छह से सात बरसों में धान के क्षेत्र को लगभग 10 लाख हेक्टेयर घटाया जाए. और फिर धान के विकल्प के तौर पर खरीफ की कुछ फसलें उगाई जाएं. धान की फसल को 160 सेमी सिंचाई के पानी की ज़रूरत होती है. वहीं मक्के और कपास की तमाम फसलों को 25 से 40 सेमी पानी चाहिए होता है. मक्का, आलू और प्याज जैसी फसलों में भी काफी कम पानी लगता है. पंजाब सरकार के जल संसाधन विभाग के तहत आने वाले स्टेट हाइड्रोलॉजी सेल का एक अनुमान कहता है कि फसल विविधीकरण के अब तक के प्रयासों से दो अरब घन मीटर सिंचाई के पानी की बचत हुई है. (ये पूरी एनालिसिस की है भारत शर्मा ने. वे रिटायर्ड वैज्ञानिक, अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान और ICRIER में सीनियर विजिटिंग फेलो हैं.)

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