1940 के साल में इंदिरा गांधी को अपनी खराब तबीयत के चलते इंग्लैंड में अपनी पढ़ाई छोड़कर स्विट्ज़रलैंड जाना पड़ा था. यह दूसरे विश्व युद्ध का दौर था. 1941 में वो बड़ी मुश्किल से पुर्तगाल के रास्ते लंदन लौट पाईं. उस दौर में लंदन दुनिया की सबसे असुरक्षित जगहों में से एक हुआ करता था. लंदन के आसमान में जर्मन एयरफ़ोर्स के जेयू-87 बॉम्बर रॉयल ब्रिटिश एयरफ़ोर्स और बिरतानी साम्राज्य, दोनों का गुरूर चूर-चूर कर रहे थे. लंदन नाज़ी एयर फ़ोर्स के चांदमारी का मैदान बना हुआ था.
पीएन हक्सर: इंदिरा को इंदिरा बनाने वाला अफसर, जिसने पद्म-विभूषण ठुकरा दिया था
हक्सर बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात कहते थे. बाद में उन्हें इसका बहुत बड़ा खामियाजा उठाना पड़ा.

उस समय फ़िरोज़ गांधी लंदन के हैम्पस्टेड में रहा करते थे और परमेश्वर नारायण हक्सर उनके पड़ोसी हुआ करते थे. जिस दौर में जर्मन विमान लंदन पर बम गिरा रहे होते, इंदिरा गांधी और फ़िरोज़ पीएन हक्सर के घर बैठे होते. बाहर से आ रही बम धमाकों की आवाज़ उनकी खिड़की पर आकर ठिठक जाती. भीतर बीथोवन का संगीत बज रहा होता और हक्सर इंदिरा और फ़िरोज़ के लिए लजीज़ कश्मीरी खाना पका रहे होते. तीनों लोगों ने अपने जीवन में घुमावदार विस्थापन देखे थे. तीनों इलाहाबाद में रहने के दौरान दोस्त बने थे और लंदन में यह दोस्ती बदस्तूर जारी रही थी.
इसके 23 साल बाद इंदिरा को फिर से एक धमाके का सामना करना पड़ा. उनके पिता जवाहर लाल नेहरू इंदिरा को अपना राजनीतिक वारिस बनाने की योजना पर तेजी से काम कर रहे थे. कामराज को तमिलनाडु से दिल्ली लाना इसी दिशा में उठाया गया पहला बड़ा कदम था. 1964 में दिल का दौरा पड़ने की वजह से उनकी मौत हो गई. इस तरह इंदिरा को अपना उत्तराधिकारी बनाने की उनकी सारी योजना धरी की धरी रह गई.

अपने दोनों बेटों के साथ इंदिरा.
1964 से 1966 के बीच का दौर इंदिरा के बहुत जद्दोजहद भरा था. राजनीति के अखाड़े में वो बिल्कुल अकेली खड़ी थीं और अपने पिता की विरासत हासिल करने के लिए जूझ रही थीं. इधर परिवार के मोर्चे पर भी चीज़ें पटरी पर नहीं चल रही थीं. उनके दोनों बेटे जवानी की दहलीज़ पर खड़े थे और अपने भविष्य को लेकर किसी आम नौजवान की तरह अनिश्चित थे. ऐसे में उन्हें याद आई अपने पुराने दोस्त पीएन हक्सर की. पीएन हक्सर 1965 में बतौर राजनयिक लंदन में थे. वो उस समय में ब्रिटेन में भारत के डिप्टी कमिश्नर हुआ करते थे. इंदिरा ने उन्हें 21 फरवरी 1966 को एक खत लिखा. इसका मजमून इस तरह से है-
"दोस्त और भरोसेमंद
प्रिय बाबू जी,
शायद आपको पता हो कि मेरा छोटा बेटा संजय क्रू की रॉल्स रॉयस फैक्ट्री में काम कर रहा है. अभी तक वह वहां खुश रहा है और क्रू के लोगों की रिपोर्ट भी अच्छी है. करीब एक सप्ताह पहले उसने लिखा कि फैक्टरी में जो कुछ सीखना था, वो सब उसने सीख लिया है और अब सवाल उन्हें चीजों को दोहराने और आगे बढ़ाने का है. उसे नहीं लगता कि वो उसे अब कुछ नया सिखाएंगे. इसलिए संजय सोच रहा है कि कोर्स पूरा न करे, बल्कि साल के आखिर में या उसके आसपास छोड़ दे और शायद खुद अपना काम जमाने के लिए भारत लौट आए. मैं आपको बहुत भरोसे और राज़दारी के साथ लिख रही हूं, क्योंकि संजय नहीं चाहता कि मैं इसके बारे में किसी से भी ज़िक्र करूं. मैंने संजय को लिखा है और बता दिया है कि मैं आपको लिख रही हूं. यह भी कि उसे आपसे मिलना चाहिए.
इस वक़्त फैक्ट्री छोड़ने का मतलब होगा कि उसके पास कोई डिग्री नहीं होगी, सिवाय इसके कि उसके पास व्यवहारिक तजुर्बा है. मुझे निजी तौर पर लगता है कि इससे भारत में मुश्किल हो सकती है, खासकर इसलिए कि शुरुआत में उसका अपना काम जमाने के लिए बहुत ज्यादा पूंजी जुटाना मुमकिन न हो. मैं नहीं जानती कि इस मामले से आपका कितना वास्ता है, पर अगर संजय को इसमें शामिल किए बगैर आप कोई कोई रास्ता निकाल सकें, तो बेहद अहसानमंद रहूंगी. वब वजह यह हो सकती है कि बहुत दूर क्रू में वह कटा हुआ और अकेला महसूस करता है. अगर ऐसा है, तो क्या लंदन में, जहां दोस्तों के लिए उस पर निगाह रखना कहीं ज्यादा आसन होगा. कोई ऐसा कोर्स है, जो वो कर सकता है?
शुभकामनाओं और जल्दबाजी के साथ.
इंदिरा 21 फरवरी 1966"
पीएन हक्सर को लिखे इस खत का जिक्र मनमोहन सरकार में रहे पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने अपनी नई किताब "इंटरवाइंड लाइव्ज पीएन हक्सर एंड इंदिरा गांधी' में किया है. इस किताब के मुताबिक पीएन हक्सर ने संजय गांधी से इंदिरा के कहने पर बात की और उन्हें सीधे शब्दों में कोर्स पूरा करने की हिदायत दी. संजय गांधी उस समय महज़ 19 साल के हुआ करते थे. उन्होंने हक्सर और अपनी मां इंदिरा दोनों की सलाह को नज़रअंदाज़ कर दिया और पढ़ाई बीच में ही छोड़कर भारत लौट आए. यह रिश्तों के उस त्रिकोण की शुरुआत थी, जिसमें इंदिरा के उभार और पतन के बीज छिपे हुए थे.

शिमला समझौते से पहले पाकिस्तानी प्रतिनिधि मंडल के साथ इंदिरा. सबसे किनारे सफ़ेद शर्ट में खड़े हैं हक्सर.
इंदिरा का साया
1967 की फरवरी की बात है. देश में चौथी लोकसभा के लिए चुनाव होने जा रहे थे. इंदिरा रायबरेली में अपने प्रचार अभियान में व्यस्त थीं. 4 फरवरी 1967 को उन्होंने हक्सर को एक खत लिखा. इस खत में उन्होंने उन्होंने हक्सर के सामने दिल्ली आने का प्रस्ताव रखा. इंदिरा का अभी प्रधानमंत्री बने महज एक साल का समय हुआ था और यह बतौर प्रधानमंत्री उनका पहला चुनाव था. इंदिरा लिखती हैं-
"मैं रायबरेली का दौरा करते हुए जल्दबाजी में आपको लिख रही हूं. मैं काफी दिनों से आपको लिखना चाहती रही हूं, ताकि आपकी चिट्ठी का शुक्रिया अदा कर सकूं और साथ ही यह पूछ सकूं कि क्या आप दिल्ली आना चाहेंगे. यह आखिरी बात बेशक समय से पहले पूछी जा रही है. मुझे अभी खुद अपने भविष्य का पता नहीं है, उस व्यवस्था की तो बात ही छोड़ दें, जो इस चुनाव के बाद उभरकर आएगी. लेकिन मैंने सोचा कि आपको अपने विचार से आगाह कर देना चाहिए."
10 फरवरी को हक्सर ने इंदिरा जी को अपना जवाब लिखा, इसका मजमून इस तरह से था-
"मेरी प्रिय इंदु जी मैं आपका बेहद शुक्रगुज़ार हूं कि आपने इस सब आपाधापी के बीच लिखने का का वक़्त निकला. आप बहुत ही अच्छी और दयालु हैं, जो आपने मुझसे पूछा कि क्या मैं दिल्ली आना चाहूंगा? हां, बेशक हां.
सरकारी सेवा में मेरे महज़ करीब चार साल बचे हैं. मैं 4.9.1971 को सेवानिवृत्त होने की उम्र पर पहुंच जाऊंगा. अगर रिटायरमेंट से पहले तैयारी के लिए एक दिन की छुट्टी मुझे मिल जाती है, तो 3.9.1971 मेरे काम का आखिरी दिन होगा. इस छोटे से वक्त में अगर मैं आपके किसी काम आ सका, तो यह मेरी कामकाजी ज़िंदगी का माकूल अंत होगा.
चुनाव के नतीजे जल्द ही आ जाएंगे. जिन लोगों को बहुत पसंद नहीं भी करते हों, उनके प्रति उदारता दिखानी होती है. लेकिन अगर कांग्रेस लोगों की रोटी का इंतजाम करना चाहती है, तो वह निशान के तौर पर बैल या गाय की बजाए टैक्टर को अपनाए. हमारी राष्ट्रीय गरिमा की हिफाजत करते हुए, हमारी आजादी को कुर्बान किए बगैर यह सब करे, इसके अलावा कोई चारा नहीं है. वरना यह गाय और उसका गोबर हमें ले डूबेगा."
जयराम रमेश इस पत्र के हवाले से हक्सर के बारे में लिखते हैं, "ये शानदार और बेमिसाल हक्सर थे: दो-टूक, बेलौस और बेधड़क. अपनी राय और विचारों में बेरहम होने की हद तक ईमानदार." इस खत को हक्सर की शख्सियत की शहादत के तौर पर पेश किया जा सकता है. वो ऐसे ही थे. पेशे से नौकरशाह और रुझानों से कट्टर वामपंथी. वो 1973 तक इंदिरा के प्रधान सचिव रहे. इस दौरान इंदिरा के साथ वो साए की तरह रहे, लेकिन करीब से देखने वाले लोग कहते हैं कि इस दौरान इंदिरा के हर फैसले पर हक्सर की छाया साफ़ नजर आती है.

किसी दौर में इंदिरा के हर फैसले पर हक्सर की छाया दिखाई देती थी.
1969 में बैकों के राष्ट्रीयकरण ने कांग्रेस के विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. बैंको के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स को खत्म करना जैसे निर्णय में हक्सर ने अहम् भूमिका निभाई थी. जुलाई 1969 में जिस समय बैंको का राष्ट्रीयकरण हुआ, संसद का मानसून सत्र शुरू होने वाला था. कांग्रेस के पास सदन में बहुमत था और यह काम कानून बनाकर भी किया जा सकता था. अध्यादेश के जरिए बैंको के राष्ट्रीयकरण की योजना हक्सर के दिमाग की ही उपज थी. वो नहीं चाहते थे कि इंदिरा इस काम श्रेय लेने से चूक जाएं.
इसी तरह पूर्वी पकिस्तान में बढ़ती अशांति को उन्होंने समय से पहले भांप लिया था. ये हक्सर ही थे, जिनकी वजह से 1971 के युद्ध से पहले भारत और सोवियत संघ के साथ रणनीतिक समझौता हो सका. बांग्लादेश युद्ध के दौरान अमेरिकी हस्तक्षेप के दूर रखने में यह समझौता बहुत मददगार साबित हुआ.
1971 के युद्ध से पहले इंदिरा अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन से मिलने के लिए अमेरिका गई हुई थीं. हेनरी किसिंगर के शब्दों में इंदिरा निक्सन के साथ पहली मुलाक़ात में इस तरह बात रही थीं, मानो कोई प्रोफ़ेसर अपने स्टूडेंट को समझा रहा हो. निक्सन और इंदिरा के रिश्ते पहली मुलाकात से तल्ख हो गए थे. इस दौरान हक्सर लगातार निक्सन के चेहरे की तरफ देखते रहे. मीटिंग खत्म होने के बाद उन्होंने इंदिरा को बेहद काम का विश्लेषण उपलब्ध कराया. उन्होंने इंदिरा को बताया कि दबाव में आने पर निक्सन के चेहरे से तेजी से पसीना छूटने लगता है.

अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के साथ इंदिरा
अगली मुलाकात में निक्सन ने पिछली मुलाकात का बदला लेने के लिए इंदिरा को 45 मिनट इंतजार कराया. इंदिरा इस अपमान पर कुढ़ रहीं थीं. जब दोनों की मुलाक़ात हुई, तो इंदिरा उनके सामने बड़ी कठोरता से अपनी अपनी बात रख रही थीं. इससे निक्सन दबाव में आ गए. जैसे ही उनके चहरे ने पसीना छोड़ना शुरू किया, इंदिरा उन पर पूरी तरह से हावी हो गईं.
मशहूर परमाणु वैज्ञानिक राजा रमन्ना ने इंदिरा गांधी और हक्सर के साथ के बारे में बड़ी सटीक बात लिखी थी-
"जब तक इंदिरा गांधी ने हक्सर की बात सुनी, वो जीत पर जीत अर्जित करतीं गईं. चाहे वो बांग्लादेश हो, निक्सन हों, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो हों या परमाणु परीक्षण हो. लेकिन जैसे ही उन्होंने हक्सर को हटाकर अपने छोटे बेटे की बात सुननी शुरू कर दी, उनकी आफ़तें वहीं से शुरू हो गईं. इसे मात्र संयोग ही नहीं कहा जा सकता कि हक्सर के जाने के बाद ही भिंडरावाला आए, ऑप्रेशन ब्लू स्टार हुआ, संजय की मौत हुई और खुद उनकी हत्या हुई."

पीएन हक्सर और इंदिरा के रिश्तों पर जयराम रमेश की नई किताब आई है.
जब साए ने इंदिरा का साथ छोड़ दिया
संजय गांधी इंदिरा और हक्सर के रिश्ते में खटास की तरह आए. संजय गांधी और हक्सर के बीच रिश्तों के खराब होने की शुरुआत लंदन से ही हो चुकी थी. संजय अपनी पहली मुलाकात से ही हक्सर को नापंसद करने लगे थे. भारत आने के बाद यह नापसंदगी जस की तस बनी रही. इधर हक्सर भी संजय को बहुत पसंद नहीं करते थे. उन्हें संजय की अपने काम में दखलंदाजी बहुत पसंद नहीं थी. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल अपनी आत्मकथा 'मैटर्स ऑफ़ डिसक्रेशन' में संजय को लेकर इंदिरा और हक्सर में हुए विवाद के बारे में लिखते हैं-
"हक्सर इस हद तक गए कि उन्होंने इंदिरा से कहा कि आप संजय से अलग रहना शुरू कर दें. इस पर उनका जवाब था कि हर कोई संजय पर हमला कर रहा है. कोई उसके बचाव में नहीं आ रहा है. उसके बारे में हर तरह की गलत कहानियां फैलाई जा रही हैं. हक्सर ने कहा कि इसीलिए तो मेरा मानना है कि आपको कुछ समय के लिए संजय से कोई वास्ता नहीं रखना चाहिए, क्योंकि इसकी वजह से आपको नुकसान हो रहा है."
हक्सर इंदिरा को चेताना चाह रहे थे. यह बातचीत बहुत अप्रिय परिस्थितयों में खत्म हुई. बाद में हक्सर को अपनी ईमानदार सलाह का खामियाजा भी भुगतना पड़ा. उन्हें प्रधान सचिव के पद से हाथ धोना पड़ा और उन्हें प्लानिंग कमीशन के उपाध्यक्ष पद पर बैठा दिया गया. नेहरु के दौर में यह पद बहुत ताकतवर हुआ करता था, लेकिन इंदिरा के समय आते-आते योजना आयोग हाशिए पर लगाए गए नौकरशाहों की शरणगाह हो बन चुका था.

संजय गांधी देश को पहली छोटी कार देना चाहते थे. हक्सर इसे बेवकूफी करार दे रहे थे.
नाराज शहजादे का बदला
आपातकाल के दौरान संजय गांधी अपने आपको बेहद मज़बूत कर चुके थे. इस दौरन उनके मन में हक्सर के लिए नफरत जस की तस बरक़रार थी. इस बीच कई और घटनाओं ने उन्हें नफरत पालने की वजहें मुहैया करवा दी थी. हक्सर इंदिरा को लगातार सलाह दे रहे थे कि वो संजय के छोटी कार बनाने के प्रोजेक्ट बंद करवा दें. इसने संजय को आक्रोश से भर दिया. वो हक्सर के साथ हिसाब चुकता करने की फिराक में थे.
15 जुलाई 1975. आपातकाल लगे अभी एक महीना भी नहीं हुआ था कि हक्सर बदले की कार्रवाई की जद में आ गए. 1927 में चांदनी चौक में पंडित ब्रदर्स नाम से एक शोरूम खुला था. अपने शुरूआती दौर में यह शोरूम बॉम्बे डाइंग की चादरें बेचा करता था. बाद के दौर में इसने फर्नीचर और दूसरे घरेलू साज-ओ-सामान के व्यापार में भी पैर जमाने शुरू कर दिए. 70 के दशक तक पंडित ब्रदर्स दिल्ली के एलीट क्लास में जाना-पहचाना नाम था.

इंदिरा ने हक्सर की बात सुनने की बजाए संजय गांधी को मनमानी करने की पूरी छूट दे दी.
15 जुलाई की सुबह पंडित ब्रदर्स के मालिक को गिरफ्तार कर लिया गया. अगले दिन के अखबारों ने लिखा कि इस फर्म ने कीमत लगाने के नियमों का भारी उल्लंघन किया है. हालांकि, शोरूम के मालिक को खबर छपने तक ज़मानत मिल चुकी थी. जब दिल्ली की अदालत में शोरूम के मालिक के लिए जमानत की रकम भरी जा रही थी, ठीक उस समय एक सेवानिवृत्त नौकरशाह कैबिनेट की मीटिंग में बैठा हुआ था. घर आकर वो कुर्सी पर बैठने की बजाए ढह गया. उसने अपनी बीवी से कहा-
"आज कैबिनेट की मीटिंग थी. सीधा वहीं से आ रहा हूं. मिसेज गांधी मेरे बगल में बैठी थीं. मैं पूरी मीटिंग के दौरान उनकी तरफ टकटकी लगाए देखता रहा. उन्होंने मुझसे निगाहें नहीं मिलाई. वो मुझसे नजरें चुरा रही थीं."
यह परमेश्वर नारायण हक्सर की आवाज थी. सामने बैठी उनकी बीवी उर्मिला हक्सर ने उनकी आवाज में इतनी बेबसी पहले कभी नहीं देखी थी. किसी दौर में पीएन हक्सर का यह रौला हुआ करता था कि इंदिरा सरकार के कई काबीना मंत्री अपने चैंबर में उन्हें देखकर कुर्सी से उठ जाया करते थे. पंडित ब्रदर्स उनके चाचा का शोरूम था. हक्सर जानते थे कि उनके चाचा को वो संजय गांधी के इशारे पर गिरफ्तार किया गया था. वो अपनी ईमानदारी और बेबाकपने की सजा भुगत रहे थे.
आखिरी दम तक वफादार
पीएन हक्सर जिस दौर में इंदिरा के प्रधान सचिव थे, उन्होंने कमिटेड ब्यूरोक्रेसी के विचार को लागू करने की बात कही थी. कमिटेड ब्यूरोक्रेसी का सीधा मतलब यह होता है कि कोई नौकरशाह सरकारी योजनाओं और नीतियों को लागू करने के लिए पूरी तरह से समर्पित हो. हक्सर के इस सुझाव की उस समय यह कहकर आलोचना हुई थी कि वो ब्यूरोक्रेसी का राजनीतिकरण करने की कोशिश कर रहें हैं. हालांकि हक्सर का यह सुझाव उस समय लागू नहीं हो पाया था, लेकिन इंदिरा गांधी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पूरी जिंदगी बनी रही. इंदिरा से पूरी तरह अलग हो जाने के बावजूद वो उन्हें अक्सर महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी राय उन्हें देते रहते. इस दौरान उन्हें इस बात का इल्म भी रहता कि अब उनकी राय इंदिरा के लिए पहली जैसी अहमियत नहीं रखती. 15 जनवरी 1983 को इंदिरा गांधी को लिखे खत की आखरी दो लाइन में मिल जाती है. वो लिखते हैं-
"मैं जानता हूं कि मैं जो कहता हूं, उसे लंबे समय से संदिग्ध माना जा रहा है. फिर भी मुझे लगता है कि मुझे कहते रहना चाहिए."
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद गांधी परिवार एक बार फिर से संकट में था. मिसेज गांधी के स्वाभाविक सियासी वारिस संजय गांधी ने विमान दुर्घटना में उनसे चार साल पहले ही दुनिया छोड़ दी थी. इस तरह गांधी परिवार की सियासी विरासत संभालने का जिम्मा न चाहते हुए राजीव के कंधों पर आ गया था. राजीव और पीएन हक्सर के बीच के संबंध काफी अच्छे थे. राजीव लंदन में रहने के दौरान कई बार उनके घर पर ही छुट्टी मनाया करते थे. राजीव के प्रधानमंत्री बनने के बाद पीएन हक्सर एक बार फिर से गांधी परिवार के करीब आ गए.

राजीव गांधी के बगल में खड़े पीएन हक्सर
दिसंबर 1989 में राजीव गांधी श्री पेरम्बदूर में मानव बम के शिकार बन गए. उनकी हत्या के बाद सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभालने से साफ़ इनकार कर दिया. राजीव के जाने के बाद कांग्रेस का नेतृत्व कौन करेगा? इसका किसी के पास माकूल जवाब नहीं था. बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह नरसिम्हा राव के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने का किस्सा बयान करते हैं.
बकौल नटवर सिंह, उन्होंने सोनिया गांधी को यह सलाह दी कि वो पीएन हक्सर से मशविरा करके नया कांग्रेस अध्यक्ष चुन लें. सोनिया ने उनकी सलाह पर अमल करते हुए हक्सर को 10 जनपथ बुलाया. हक्सर ने उन्हें सलाह दी कि वो तत्कालीन उप-राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा को नया अध्यक्ष बना दें. इस काम को अंजाम देने के लिए नटवर सिंह और अरुणा आसिफ अली को शर्मा के पास भेजा गया. शर्मा ने खराब स्वास्थ्य का हवाला देते हुए यह जिम्मेदारी लेने से मना कर दिया. इसके बाद हक्सर के बार फिर से 10 जनपथ तलब किया गया. हक्सर ने इस बार नरसिम्हा राव का नाम सुझाया. इस तरह अपने रिटायर्मेंट की तैयारी कर रहे राव के लिए सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने का रास्ता खुला.
हक्सर को इस दुनिया से गए 20 साल हो गए हैं. लोग अपने-अपने तरीके से उनका मूल्यांकन करते आए हैं. फिर भी कुछ बातें ऐसी हैं, जो निर्विवाद रूप से उनके बारे में कही जा सकती हैं. वो भारतीय ब्यूरोक्रेसी के इतिहास में सबसे ताकतवर नौकरशाहों में एक थे. विदेश नीति और रणनीति बनाने के मामले में उनका सानी नहीं था. 1973 में अपने रिटायरमेंट के बाद उन्होंने पद्म विभूषण सम्मान यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि उनके काम के बदले इनाम स्वीकार करते हुए उन्हें शर्मिंदगी महसूस होगी. अपने लिखे खत में इंदिरा ने उनके लिए 'दोस्त और भरोसेमंद' का संबोधन लिखा. हक्सर ने अपनी बाद की जिंदगी इन्ही शब्दों को सच साबित करने में बिता दी.
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