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थाईलैंड इलेक्शन में इस नौजवान ने सेना और राजा को कैसे हराया?

थाईलैंड का पोलिटिकल सिस्टम कैसे काम करता है?

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हार्वर्ड से पढ़े पिटा लिमजोरनाट ने थाईलैंड में सेना और राजा को कैसे हराया?

एक देश है. भारत के पूरब में. उसके नाम का शाब्दिक अर्थ है, आज़ाद लोगों की धरती. इसका ज़िक्र अक्सर होलिडे या हनीमून डेस्टिनेशन के तौर पर आता है. आप समझ चुके होंगे कि हम थाईलैंड की कहानी सुनाने वाले हैं. मगर इस बार कहानी का मजमून कुछ और है.
दरअसल, 14 मई को थाईलैंड में आम चुनाव हुए. इसके नतीजे ऐतिहासिक बताए जा रहे हैं. क्यों? ये समझने के लिए चार किरदारों पर ग़ौर करना होगा. राजा, सेना, तीन साल पुरानी पार्टी और हार्वर्ड से पढ़ा एक नौजवान.
तो आइए समझते हैं,

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- इन चारों किरदारों का आपस में कनेक्शन क्या है?
- और, थाईलैंड में इस बार का चुनाव ऐतिहासिक क्यों था?

सबसे पहले राजा.

थाईलैंड में 1932 से संवैधानिक राजशाही वाली व्यवस्था है. मतलब, यहां संसद है, संविधान है, एक सरकार है. लेकिन राष्ट्र का मुखिया राजा या रानी होते हैं. जैसा कि ब्रिटेन में है. वहां हाल ही में चार्ल्स तृतीय की ताजपोशी हुई है. शासन का सारा काम उन्हीं के नाम से होता है. लेकिन वो कानून बनाने या सरकार की नीतियां तय करने में दखल नहीं दे सकते.
थाईलैंड का मामला भी कुछ-कुछ वैसा ही है. हालांकि, शक्तियों के इस्तेमाल को लेकर काफ़ी अंतर दिखता है. मसलन,

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थाईलैंड में राजा हेड ऑफ़ द स्टेट होते हैं.

सेना की कमान भी उनके पास होती है.

वो शाही परिवार के मुखिया होते हैं.

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उन्हें बौद्ध धर्म का रक्षक माना जाता है.

वो ख़ुद से कोई कानून नहीं बना सकते, लेकिन संसद द्वारा पास किए गए किसी भी बिल को लागू कराने के लिए उनकी मंजूरी ज़रूरी है. थाईलैंड में राजा या शाही परिवार की आलोचना नहीं की जा सकती. ऐसा करने पर 03 से 15 साल तक की सज़ा का प्रावधान है. इसको लास मेजेस्तेस लॉ कहा जाता है. राजा ने कई मौकों पर पोलिटिकल पार्टियों के बीच सुलहें भी करवाईं है. हालांकि, वो ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं हैं. और, ना ही पार्टियां उनकी बात मानने के लिए. मौजूदा समय में महा वजिरालोन्गकोर्न थाईलैंड के राजा हैं. वो अपने पिता किंग भूमिबोल अदुल्यादेज की मौत के बाद कुर्सी पर बैठे थे. भूमिबोल ने 1946 से 2016 तक शासन किया. इस दौरान देश में 30 प्रधानमंत्री बदल गए.

थाईलैंड में पिछले 90 बरसों में 19 बार तख़्तापलट की कोशिश हुई है. 12 बार ये कोशिश सफ़ल भी हुई. 19 दफा संविधान भी बदला गया. हालांकि, इससे राजा की प्रभुसत्ता पर कोई असर नहीं पड़ा. इस वजह से भी उन्हें सम्मान की नज़र से देखा जाता है. उनके समर्थकों को रॉयलिस्ट या राजसत्तावादी कहा जाता है. थाईलैंड में इनकी बड़ी संख्या है. उनके लिए राजा होलियर दैन दाऊ हैं. वे राजशाही वाली व्यवस्था को बरकरार रखना चाहते हैं. जो दूसरा धड़ा है, वो राजशाही को खजाने पर बोझ और निरंकुशता का प्रतीक मानता है. ये लोग पूर्ण लोकतंत्र की मांग करते हैं. वे लास मेजेस्तेस लॉ को खत्म करने के लिए आंदोलन भी करते रहे हैं. मगर उन्हें अभी तक सफ़लता नहीं मिली है.

ये तो हुई राजा की बात. अब दूसरे किरदार के बारे में जान लेते हैं.

ये है थाईलैंड की सेना.

1932 से पहले तक देश में निरंकुश राजशाही थी. राजा को चुनौती देने वाला कोई नहीं था. उसी दौर में कुछ थाई नौजवान पढ़ने के लिए यूरोप गए. वहां उन्होंने लोकतंत्र के महत्व को करीब से देखा. उन्हें लगा कि ऐसा सिस्टम तो अपने देश में भी होना चाहिए. इसी मकसद से 1927 में प्रिदी फ़ानोमयोन्ग और पिबुल सोन्ग्राम ने पीपुल्स पार्टी की स्थापना की. दोनों ने फ़्रांस में पढ़ाई की थी. वहीं पर उनमें दोस्ती भी हुई थी. थाईलैंड लौटने के बाद उन्होंने अपने जैसे लोगों को इकट्ठा किया. उनमें छात्र, मिलिटरी और सरकारी ऑफ़िसर्स भी थे. फिर जून 1932 में एक दिन जब राजा साहब राजधानी बैंकॉक से बाहर गए, पीपुल्स पार्टी ने तख़्तापलट कर दिया. रॉयलिस्ट अफ़सरों को बंधक बना लिया गया. राजा संविधान को मानने के लिए तैयार हो गए. नई संसद बनाई गई. और, इस तरह थाईलैंड में संवैधानिक राजशाही का दौर शुरू हुआ.

1932 के तख़्तापलट में सबसे अहम भूमिका राजशाही के विरोधी मिलिटरी अफ़सरों ने निभाई थी. उन्होंने अपनी पोलिटिकल पार्टी बनाई. फिर उसके ज़रिए शासन चलाने लगे. उन्होंने दूसरी पार्टियों के पनपने की गुंजाइश को खत्म कर दिया. इन सबके बीच राजा सैन्य तानाशाहों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गए.1957 में सरित थनारात नाम के एक मिलिटरी जनरल हुए. उन्हें लगा कि शाही परिवार के साथ गठजोड़ करके अपना रुतबा बढ़ाया जा सकता है. इस तरह उन्हें वैधता भी मिल जाएगी. यही सोचकर उन्होंने राजा की शक्तियां बढ़ाई. सेना और शाही परिवार का गठजोड़ आज तक कायम है.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण 2006 में दिखा. उस समय ताक्सिन शिनावात्रा प्रधानमंत्री थे. शिनावात्रा एक समय तक थाई पुलिस में थे. फिर उन्होंने टेलीकॉम इंडस्ट्री में हाथ आजमाया. सफ़ल हुए. अरबों-खरबों की संपत्ति बनाई. फिर राजनीति में आए. 2001 के चुनाव में जीतकर वो प्रधानमंत्री बन भी गए. कुछ समय तक तो उन्होंने राजा के साथ दोस्ती बनाकर रखी. फिर उन्होंने संकेत दिया कि राजशाही को पूरी तरह खत्म किया जा सकता है. इसको लेकर विपक्षी पार्टियां उनके ख़िलाफ़ हो गईं. इन पार्टियों ने 2006 के आम चुनाव का बायकॉट किया. शिनावात्रा के पास पर्याप्त बहुमत था. फिर भी उन्हें सरकार बनाने नहीं दिया गया. राजा के आदेश पर मामला कोर्ट में पहुंचा. कोर्ट ने चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. कालांतर में शिनावात्रा परिवार से जुड़ी दो और पार्टियों पर बैन लगाया गया. ख़ुद शिनावात्रा निर्वासन में चले गए.

2006 से 2014 के बीच थाईलैंड में मिलिटरी शासन. सेना के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट और पोलिटिकल डेडलॉक के बीच झूलता रहा. दो चुनाव भी हुए. लेकिन उनमें सिविलियन सरकार को खुलकर सामने आने का मौका नहीं मिला. विपक्ष लगातार सैन्य शासन की वापसी पर अड़ा रहा. आख़िरकार, मई 2014 में थाई आर्मी के मुखिया प्रयुत चान-ओचा ने तख़्तापलट को अंजाम दे ही दिया. उनके आदेश पर 25 से अधिक दिग्गज नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया. फिर संविधान को भी भंग कर दिया गया. राजा ने प्रयुत के साथ हाथ मिला लिया. प्रयुत ने शासन चलाने के लिए मिलिटरी हुंटा बनाई. इसका नाम रखा, नेशनल सेंटर फ़ॉर पीस एंड ऑर्डर (NCPO). 2017 में एक नया संविधान बनाया गया. इसे सेना का वर्चस्व बनाए रखने के लिए ही डिजाइन किया गया था. इस नए संविधान के तहत 2019 में चुनाव कराए गए.

नए संविधान में क्या-क्या था?

- प्रधानमंत्री का चुनाव संसद के दोनों सदनों के संयुक्त वोट से होगा. थाईलैंड की संसद में दो सदन हैं. हाउस ऑफ़ रिप्रजेंटेटिव्स यानी निचला सदन और सेनेट यानी ऊपरी सदन.
निचले सदन में कुल 500 सदस्य होते हैं. इनका चुनाव जनता के वोट से होता है. सेनेट के सदस्यों की संख्या 250 है. इनकी नियुक्ति मिलिटरी हुंटा ने की थी. यानी, सेनेट के सदस्य सेना के इशारों पर ही काम करते हैं.

प्रधानमंत्री बनने के लिए संसद के 376 सदस्यों का वोट चाहिए. इसमें से सिर्फ सेना के पास 250 वोट हैं. बाकी मिलिटरी लीडर्स ने भी पार्टियां बना रखी हैं. जैसे, प्रयुत चान-ओचा की पार्टी का नाम पलांग प्रचारत है. 2019 के चुनाव में उसने 97 सीटें जीती थीं. वो आम चुनाव में दूसरे नंबर पर थी. इसके बावजूद प्रयुत प्रधानमंत्री पद पर बने रहे. आज भी हैं.

अब तीसरे अंक की तरफ़ चलते हैं.

तीन साल पुरानी पार्टी.

जुलाई 2019 में संसद ने प्रयुत चान-ओचा को प्रधानमंत्री चुन लिया. राजा ने भी उनकी नियुक्ति को सहमति दे दी. विपक्ष ने इसका विरोध किया. संसद के अंदर भी और बाहर भी.
इस बीच संवैधानिक अदालत ने फ़्यूचर फ़ॉवर्ड पार्टी के मुखिया के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. इससे नाराज़ लोगों ने प्रोटेस्ट किया.
फ़रवरी 2020 में अदालत ने फ़्यूचर फ़ॉवर्ड पार्टी पर भी बैन लगा दिया. इसके ख़िलाफ़ बैंकॉक में विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए. प्रदर्शनकारियों की तीन मुख्य मांगें थीं - संसद को भंग करो, संविधान में संशोधन करो और विरोधियों का दमन बंद करो. जल्दी ही प्रोटेस्ट का दायरा बढ़ गया. लोग सैन्य सरकार में सुधार के साथ-साथ राजशाही को खत्म करने की मांग भी करने लगे. उससे पहले तक कोई राजशाही पर ऊंगली उठाने की हिम्मत नहीं करता था.

इस मांग के केंद्र में जो पार्टी थी, उसका नाम था मूव फ़ॉवर्ड पार्टी (MFP). ये फ़्यूचर फ़ॉवर्ड के उत्तराधिकारी के तौर पर सामने आई थी. 2020 के प्रोटेस्ट के बाद भी प्रयुत अपनी कुर्सी पर बने रहे. लेकिन उनके ख़िलाफ़ मोर्चा निकालने वाली MFP लोगों की नज़रों में आ गई.
2023 के आम चुनाव में ये पार्टी 151 सीटों के साथ पहले नंबर पर है.

ये तो हुई पार्टी की कहानी. अब हार्वर्ड से पढ़े एक नौजवान की कहानी भी जान लीजिए.

अंक चार. पिटा लिमजोरनाट.

पिटा MFP के मुखिया हैं. वो फ़्यूचर फ़ॉवर्ड के कैंडिडेट के टिकट पर जीतकर 2019 में संसद पहुंचे थे. लेकिन कुछ ही समय में इस पर बैन लग गया. तब MFP का गठन हुआ और पिटा उसके लीडर बनाए गए. 42 साल के पिटा उद्योगपति परिवार में पैदा हुए. उनके परिवार का तगड़ा पोलिटिकल कनेक्शन रहा है. उनके चाचा पूर्व प्रधानमंत्री शिनावात्रा के सलाहकार रहे. उनके पिता भी एग्रीकल्चर मिनिस्ट्री में एडवाइजर के तौर पर काम कर चुके हैं.

पिटा की शुरुआती पढ़ाई न्यू ज़ीलैंड में हुई. फिर उन्हें मास्टर्स के लिए हार्वर्ड भेजा गया. उसके बाद उन्होंने मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी से MBA की डिग्री ली.
थाईलैंड वापस लौटने के बाद उन्होंने अपने पिता का तेल का बिजनेस संभाला. लेकिन वहां उनका मन नहीं रमा. तब उन्होंने पोलिटिक्स में उतरने का फ़ैसला किया. जब तक उनकी पार्टी बैन नहीं हुई थी, तब तक उन्होंने संसद में तहलका मचा रखा था.

पार्टी बैन हुई तो वो सड़कों पर उतरे. थाईलैंड के युवा वोटर्स ने उन्हें हाथोंहाथ लिया. नतीजा, आज के समय में वो सबसे बड़ी पार्टी के लीडर हैं. उन्होंने प्रधानमंत्री बनने की इच्छा भी जताई है. लेकिन ये इतना आसान भी नहीं होने वाला है.

पिटा के सामने क्या मुश्किलें हैं?

बैंकॉक पोस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक, पिटा ने छह विपक्षी पार्टियों का गठबंधन तैयार कर लिया है. उन्होंने दावा किया है कि उनके पास कुल मिलाकर 309 सीटें हैं. सरकार बनाने के लिए उन्हें 376 वोट चाहिए. अभी भी उनके पास 67 सीटें कम हैं. पिटा ने उम्मीद जताई है कि सेनेट के सदस्य जनता की राय का सम्मान करेंगे और उनके पक्ष में वोट करेंगे. लेकिन इसकी संभावना कम ही है. क्योंकि सेनेट के मेंबर सेना के द्वारा नियुक्त किए जाते हैं. वे शायद ही किसी ऐसे गठबंध के साथ जाएंगे, जो सेना और राजा की शक्तियां कम करने पर ज़ोर दे रही हो.
जानकारों का कहना है कि वे प्रयुत या किसी और मिलिटरी जनरल की पार्टी का साथ देंगे. ऐसी स्थिति में अल्पमत की सरकार बनेगी. जिसका जनता से कोई जुड़ाव नहीं होगा.

वीडियो: दुनियादारी: 'रेड लाइट इलाका' और सेक्स टूरिज्म के लिए कुख्यात थाईलैंड का ये सच आपको नहीं पता होगा

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