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औरतों के जिस्म नोचे गए, रेप हुए और 5 से 7 लाख लोग मारे गए, पंजाब की ये तस्वीर रुला देती है

पंजाब बंटवारे के 70 साल की तीसरी कड़ी में पढ़िए कैसे हुआ कत्लेआम.

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photo : Life magazine and AP
अमनप्रीत सिंह गिल
बंटवारे का दर्द वो ही अच्छी तरह जानते हैं, जिन्होंने इस दर्द को खुद सहा. जिन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा हो. जिन्होंने अपनों को खोया हो. उन्हें ये दर्द आज भी सालता रहता है. देश का बंटवारा हुआ. दंगे हुए. क़त्ल हुए. इस बंटवारे पर तमाम लेखकों ने उपन्यास लिखे, कहानियां लिखीं. अगस्त का महीना है, इसी महीने में देश आज़ाद हुआ. आज़ाद हुआ मगर टुकड़े हो गए. 
यहां आप पढ़िए पंजाब का बंटवारा. पंजाब का दर्द. इसको लिखा है अमनप्रीत सिंह गिल ने. अमनप्रीत दिल्ली विश्वविद्यालय के खालसा कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस पढ़ाते हैं. वो ‘नॉन कांग्रेस इन पंजाब’ किताब लिख चुके हैं. पंजाब बंटवारे के 70 साल सीरीज़ में आप जानेंगे पंजाब को, जो 6 किस्तों में है. पढ़िए तीसरी क़िस्त.


70 Years of Punjab Partition

1947 के बंटवारे के दरम्यान पंजाब के लोगों ने हैवानियत की एक विराट झांकी देखी. पंजाबियत इससे पहले कभी भी इतने बड़े पैमाने पर बर्बाद और शर्मसार नहीं हुई थी. लाखों मज़लूमों के कत्ल, रेप, अपहरण, लूटपाट, विश्वासघात, जबरी धर्मांतरण. हैवानियत का वो कौन सा ऐसा रूप था, जिसको पंजाब के लोगों ने अपने जिस्म पर नहीं सहा. पंजाब के अल्पसंख्यकों का दोष सिर्फ इतना था कि वो रेडक्लिफ लाइन की उस दिशा में मौजूद थे जहां पर उन्हें होना नहीं चाहिए था. इन सभी जगहों पर उनका नस्ली सफाया कर दिया गया. नतीजे दहलाने वाले थे. पश्चिमी पंजाब में हिंदू-सिक्खों की गिनती 30 फीसदी से कम होकर 1 फीसदी हो गई. और पूर्वी पंजाब में मुसलमानों की तादाद 40 फीसदी से कम होकर महज़ 2 फीसदी रह गई. 5 से 7 लाख लोग पंजाब के दोनों तरफ मारे गए. 80 लाख लोगों को 90 दिन के अंदर अपने घर-बार छोड़कर भागना पड़ा.
photo : AP
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पंजाब की रेल और नहर अंग्रेजी राज के साथ यहां पर आई और इसके खत्म होने पर यहां भारी कत्लेआम की चश्मदीद गवाह बनी. इस कत्लेआम के बारे में कुलवंत सिंह विर्क का कहना था,
'नहरें लाशों से भरी इस तरह से आती थीं कि पाकिस्तान में इसके पानी से वुज़ू करना हराम हो गया था.'
शरणार्थियों को ले जाने वाली गाड़ियों को अक्सर राह में रोककर कत्लेआम किया जाता था. ऐेसी एक लाशों से भरी ट्रेन को लेकर खुशवंत सिंह ने 'ट्रेन टू पाकिस्तान' उपन्यास लिख डाला.
photo : AP
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बंटवारे की हैवानियत का सबसे बड़ा शिकार पंजाब की अपनी बेटियों, बहनों और मांओं को होना पड़ा. ऐसी हैवानियत कि लिखते हुए हाथ कांप जाए और बोलते हुए ज़बान लरज़ जाए. नंगी औरतों के जुलुस निकालने और कइयों के स्तन काट देने जैसी अमानवीय घटनाएं हुईं. यह सब कुछ पंजाब की सरज़मी पर हुआ, जहां पर सदियों से सिक्ख गुरुओं और सूफी संतों ने मज़हबी सहनशीलता, इंसानियत और दोस्ती की शिक्षा दी थी.
औरतों पर ऐसी हैवानियत की शुरुआत मार्च 1947 के रावलपिंडी के दंगों से शुरू हो गई थी. थोहा खालसा के गांव में हिंदू सिक्ख औरतें दंगाइंयों से अपनी इज़्जत बचाने के लिए कुएं में छलांग लगाकर मर गई थीं. इसके बाद पंडित नेहरू ने खुद इस इलाके का दौरा किया और संत गुलाब सिंह की हवेली में लाशों से भरे इस कुएं को भी देखा. अगस्त, सितंबर और अक्टूबर में पंजाब के हर गांव, हर शहर में अल्पसंख्यक औरतों पर यह कहर बरपाया गया. औरतों के साथ यह सुलूक मध्यकालीन समय के विदेशी हमलावरों जैसा था, लेकिन इस बार ज़ुल्म करने वाले पंजाब की सरजमीं के अपने बाशिदें थे. कुलवंत सिंह विर्क ने अपहरण की शिकार ऐसी एक औरत की कहानी बयां करते हुए लिखा है,
'मेरी नज़र में इंसान की ही इंसान के ऊपर जुल्म की यह सबसे वीभत्स तस्वीर थी.'
colcutta riots, defence forum india

जितना जुल्म इन औरतों ने अपने जिस्म पर बर्दाश्त किया, उससे ज्यादा मानसिक तौर पर. रेप की शिकार औरतों ने ऐसे बच्चों को जन्म दिया जिनकी हस्ती उनकी अंतरआत्मा को कचौटती रही. ऐसे ही एक बच्चे की मानसिक पीड़ा को अमृता प्रीतम ने 'खरीड़' कविता में बयां किया. अगवा की शिकार लड़कियों को अंग्रेजी परिकथा 'ब्यूटी एंड बीस्ट' की व्यथा में से गुजरना पड़ा, जिसमें अगवा हुई लड़की को अपने अगवाकार जानवर के जुल्म को ही प्रेम समझना पड़ता है. साइकोलॉजिस्ट की लैंग्वेज में इसे 'स्टॉकहोम सिंड्रोम' कहते हैं.
Photo : HT
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उस वक़्त हैवानियत इतनी हुई कि उसे एक साधारण प्रवृत्ति मान लिया गया. इंसानियत की गुहार को तो एक समझ न आने वाली चीज़ मानकर दरकिनार कर दिया गया था. ऐसे हालात में भी कुछ ऐसे लोग थे जिनके दिल रहम की भावना से बिल्कुल खाली नहीं हुए थे.
गांव और शहरों में बहुत सारे बहुसंख्यक लोगों, बुर्जुगों और औरतों ने अपने हमसायों की मदद की. इसमें उस वक्त के कम्यूनिस्टों का बहुत बड़ा योगदान रहा. उन्होंने न सिर्फ अपने प्रभाव वाले गांव में दंगों को रोका बल्कि अपने संसाधन इस्तेमाल करके मजलूम परिवारों की हिफाजत करके इलाके से निकलवाया. ऐसे ही एक सिलसिले में गांव शज्जलवड्डी के कॉमरेड गहल सिंह को अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़ी. इस तरह की इंसानियत और दोस्ती की पूर्वी और पश्चिमी पंजाब में बहुत सारी मिसालें हैं.
Source : wikimedia common
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इंसानियत की मिसाल कायम रखने में 'कौर सिंह चक्कर' का बड़ा रोल रहा. 1951 की बात है. उन्होंने पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में अमौर कैम्प से 1600 हिंदू-सिक्ख लड़कियों को किसी तरह छुड़ाकर हिन्दुस्तान भेजा और यहां से मुस्लिम लड़कियों को बरामदगी करवाकर उन्हें पाकिस्तान भेज दिया. ऐसा अमल पश्चिमी पंजाब के बहुतर सारे रहमदिल अफसरों की मदद के बिना मुमकिन नहीं था. हैवानियत के इस अंधेरे में इंसानियत की कन्नी पकड़नेवाले यह लोग आंधी में दीया जलाकर मुडेर पर रखने कोशिश में जुटे थे. यह सब लोग पंजाब की 'शिंडलर्स लिस्ट' के रचयिता थे.



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